प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की मजबूती के लिए श्रीकृष्ण और गांधी से प्रेरणा की जरूरत जताई

Prime Minister Narendra Modi expressed the need for inspiration from Shri Krishna and Gandhi for the strength of India

चक्र और चरखा की स्वदेशी महिमा से प्रेरणा की जरूरत

प्रमोद भार्गव

बदलती स्थितियों में परिवर्तन के मानदंड भी बदल देते हैं। वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वदेशी प्रेरणा से आत्मनिर्भरता की बात हमेशा ही करते रहे हैं, परंतु इस बार उन्होंने लाल किले की प्राचीर से भारत को मजबूत बनाने के लिए कहा कि ‘हमें इस हेतु चक्रधारी मोहन अर्थात भगवान श्रीकृष्ण से प्रेरणा लेनी चाहिए और भारत को आत्मनिर्भर बनाने के नजरिए से चरखाधारी मोहन यानी महात्मा गांधी के मार्ग पर चलना चाहिए।‘ इन प्रतीकों के माध्यम से भारत की समृद्धि के रास्ते खुलते हैं। दुनिया में भू-राजनीतिक स्थितियां बदल रही हैं। ऐसे में भारत को अपने हितों को साधने के लिए नए मित्रों का साथ जरूरी है। हम देख रहे हैं कि अमेरिका, रूस, चीन, भारत और पाकिस्तान के परिप्रेक्ष्य में तेजी से नए समीकरण बनते-बिगड़ते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में कृश्ण के सुदर्शन चक्र से प्रेरणा लेने की जरूरत है। यह चक्र काल और जीवन दोनों की ही गतिशीलता का प्रतीक है। यह नाम सत्य की रक्षा और असत्य के संहार का प्रतीक भारतीय परंपरा में रहा है। इसी चक्र की निरंतर गतिशीलता को देखते हुए वैदिक ऋषियों ने ‘चरैवेति-चरैवेति‘ सिद्धांत स्थापित किया था। अंग्रेजों ने जब भारत में यांत्रिकीकरण लागू किया, तब गांधी ने इस समस्या से निपटने के लिए चरखा को स्वावलंबन के मंत्र का आधार बनाया। गांधी ने कहा कि ‘भारत के सभी नागरिक स्वदेशी उत्पादों पर भरोसा रखें, क्योंकि अगर आप भारतीय हैं तो भारत में बनी चीजें ही खरीदें। इन्हें ही उपहार में दें। दुकानदार स्वदेशी सामान ही बेचें। यदि हम ऐसा करते हैं तो इस एक कदम से भारतीय मजदूर और गरीब नागरिक को लाभ होगा।‘

गांधीजी ने केंद्रीय उद्योग समूहों के विरुद्ध चरखे को बीच में रखकर लोगों के लिए यांत्रिक उत्पादन की जगह, उत्पादन लोगो द्वारा हो का आंदोलन चलाया था। जिससे एक बढ़ी आबादी वाले देश में बहुसंख्यक लोग रोजगार से जुडें़ और बढ़े उद्योगां का विस्तार सीमित रहे। इस दृष्टिकोण के पीछे महात्मा का उद्देश्य यांत्रिकीकरण से मानव मात्र को छुटकारा दिलाकर उसे सीधे स्वरोजगार से जोड़ना था। क्योंकि दूरदृष्टा गांधी की अंर्तदृष्टि ने तभी अनुमान लगा लिया था कि औद्योगिक उत्पादन और प्रौद्योगिकी विस्तार में सृष्टि के विनाश के कारण अंतनिर्हित हैं। आज दुनिया के वैज्ञानिक अपने प्रयोगों से जल, थल और नभ को एक साथ दूषित कर रहे हैं।

गांधी गरीब की गरीबी से कटु यर्थाथ के रूप में परिचित थे। इस निवर्सन गरीबी से उनका साक्षात्कार ओड़ीसा के एक गांव में हुआ था। यहां एक बूढ़़ी औरत ने गांधी से मुलाकात की थी। जिसके पैबंद लगे वस्त्र बेहद मैले-कुचेले थे। गांधी ने शायद साफ-सफाई के प्रति लापरवाही बरतना महिला की आदत समझी। इसलिए उसे हिदायत देते हुए बोले, ‘अम्मां क्यों नहीं कपड़ों को धो लेती हो ?’ बुढ़िया बेवाकी से बोली, ‘बेटा जब बदलने को दूसरे कपड़े हों, तब न धो-पहनूं।’ महात्मा आपादमस्तक सन्न व निरुत्तर रह गए। इस घटना से उनके अंर्तमन में गरीब की दिगंबर देह को वस्त्र से ढकने के उपाय के रूप में ‘चरखा’ का विचार कौंधा। साथ ही उन्होंने स्वयं एक वस्त्र पहनने व ओढ़ने का संकल्प लिया। देखते-देखते उन्होंने ‘वस्त्र के स्वावलंबन’ का एक पूरा आंदोलन ही खड़ा कर दिया। लोगों को तकली-चरखे से सूत कातने को उत्प्रेरित किया। सुखद परिणामों के चलते चरखा स्वनिर्मित वस्त्रों से देह ढकने का एक कारगर अस्त्र ही बन गया।

पिछले तीन दशक के भीतर उद्योगों की स्थापना के सिलसिले में हमारी जो नीतियां सामने आयी हैं उनमें अकुशल मानव श्रम की उपेक्षा उसी तर्ज पर है, जिस तर्ज पर अठारहवीं सदी में अंग्रेजों ने ब्रिटेन में मशीनों से निर्मित कपड़ों को बेचने के लिए ढाका (बांगलादेश) के मलमल बुनकरों के हस्त उद्योग को हुकूमत के बूते नेस्तनाबूद ही नहीं किया था, उनके अंगूठे भी काट दिए थे। उन्हें भूखों मरने के लिए भगवान भरोसे छोड़ दिया था। आज पूंजीवादी अभियानों और कथित डिजीटल विस्तार के लिए व्यापार से मानवश्रम को लगातार बेदखल किया जा रहा है। जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपने देश के समग्र कुशल-अकुशल मानव समुदायों के हित साधन के दृष्टिकोण सामने लाते ? गांधी की सोच वाली आर्थिक प्रक्रिया की स्थापना और विस्तार में न मनुष्य के हितों पर कुठाराघात होता है और न ही प्राकृतिक संपदा के दोहन पर टिकी अर्थव्यवस्था का ? जबकि मौजूदा आर्थिक हितों के सरोकार केवल पूंजीवादियों के हित साधते हैं और इसके विपरीत मानवश्रम से जुड़े हितों को तिरष्कृत करते हैं। मानव समुदायों के बीच असमानता की खाई ऐसे ही उपायों से उत्तरोतर बढ़ती चली जा रही है।

चरखा और खादी परस्पर एक दूसरे के पर्याय हैं। गांधी की शिष्या निर्मला देशपाण्डे ने अपने एक संस्मरण का उद्घाटन करते हुए कहा था, नेहरू ने पहली पंचवर्षीय योजना का स्वरूप तैयार करने से पहले आचार्य विनोबा भावे को मार्गदर्शन हेतु आमंत्रित किया था। राजघाट पर योजना आयोग के सदस्यों के साथ हुई बातचीत के दौरान आचार्य ने कहा था, ‘ऐसी योजनाएं बननी चाहिएं, जिनसे हर भारतीय को रोटी और रोजगार मिले। क्योंकि गरीब इंतजार नहीं कर सकता। उसे अविलंब काम और रोटी चाहिए। आप गरीब को काम नहीं दे सकते, लेकिन मेरा चरखा ऐसा कर सकता है।‘ वाकई यदि पहली पंचवर्षीय योजना को अमल में लाने के प्रावधानों में चरखा और खादी को रखा जाता तो मौसम की मार और कर्ज का संकट झेल रहा किसान आत्महत्या करने को विवश नहीं होता ?

दरअसल आर्थिक उन्नति का अर्थ हम प्रकृति के दोहन से मालामाल हुए अरबपतियों-खरबपतियों की फोर्ब्स पत्रिका में छप रही सूचियों से निकालने लगे हैं। आर्थिक उन्नति का यह पैमाना पूंजीवादी मानसिकता की उपज है, जिसका सीधा संबंध भोगवादी लोग और उपभोगवादी संस्कृति से जुड़ा है। जबकि हमारे परंपरावादी आदर्श किसी भी प्रकार के भोग में अतिवादिता को अस्वीकार तो करते ही हैं, भोग की दुष्परिणति पतन में भी देखते हैं। अनेक प्राचीन संस्कृतियां जब उच्चता के चरम पर पहुंचकर विलासिता में लिप्त हो गईं तो उनके पतन का सिलसिला शुरू हो गया। रक्ष, मिश्र, रोमन, नंद और मुगल संस्कृतियों का यही हश्र हुआ। कृष्ण के सगे-संबंधी जब दुराचार और भोग-विलास में संलग्न हो गए तो स्वयं कृष्ण ने उनका अंत किया। इतिहास दृष्टि से सबक लेते हुए गांधी ने कहा था, ‘किसी भी सुव्यवस्थित समाज में रोजी कमाना सबसे सुगम बात होनी चाहिए और हुआ करती है। बेशक किसी देश की अच्छी अर्थव्यवस्था की पहचान यह नहीं है कि उसमें कितने लखपति लोग रहते हैं, बल्कि जनसाधारण का कोई भी व्यक्ति भूखों तो नहीं मर रहा है, यह होनी चाहिए।’

गांधी के स्वरोजगार और स्वावलंबन के चिंतन और समाधन की जो धाराएं चरखे की गतिशीलता से फूटती थीं, उस गांधी के अनुआयी वैश्विक बाजार में समस्त बेरोजगारों के रोजगार का हल ढूढ़ रहे हैं। यह मृग-मारीचिका नहीं तो और क्या है ? अब तो वैश्विक अर्थव्यवस्था के चलते रोजगार और औद्योगिक उत्पादन दोनों के ही घटने के आंकड़े सामने आने लगे हैं। रुपए का डॉलर की तुलना में निरंतर अवमूल्यन हो रहा है। इन नतीजों से साफ हो गया है कि भू-मण्डलीकरण ने रोजगार के अवसर बढ़ाने की बजाय घटाए हैं। ऐसे में चरखे से खादी का निर्माण एक बढ़ी आबादी को रोजगार से जोड़ने का काम कर सकता है। भारत की विशाल आबादी पूंजीवादी मुक्त अर्थव्यवस्था से समृद्धशाली नहीं हो सकती ? अलबत्ता वैश्विक आर्थिकी से मुक्ति दिलाकर, विकास को समतामूलक कारकों से जोड़कर इसे सुखी और संपन्न बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से चरखा और खादी सार्थक औजार के रूप में ग्रामीण परिवेश में ग्रामीणों के लिए एक नया अर्थशास्त्र रच सकते हैं।