योगेश कुमार गोयल
स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली नन्हीं सी प्यारी गौरैया दो दशक पहले तक हर कहीं झुंड में उड़ती देखी जाती थी लेकिन अब यह एक संकटग्रस्त और दुर्लभ पक्षी की श्रेणी में आ गई है। भारत के अलावा यूरोप के कई हिस्सों में भी इनकी संख्या काफी कम रह गई है। तेजी से लुप्त होती गौरैया को नीदरलैंड में तो ‘दुर्लभ प्रजाति’ की श्रेणी में रखा गया है। जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, फ्रांस, चेक गणराज्य इत्यादि कुछ अन्य देशों में भी गौरैया की संख्या तेजी से घट रही है। पश्चिमी देशों में इनकी आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। दुनियाभर में गौरैया की कुल 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से पांच भारत में मिलती हैं लेकिन अब इनके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स’ ने भारत सहित दुनिया के अन्य हिस्सों में भी कई अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है। ‘रेड लिस्ट’ में उन जीव-जंतुओं या पक्षियों को डाला जाता है, जिन पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा होता है। भारतीय उपमहाद्वीप में गौरैया की कुल छह प्रजातियां हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, डैड सी अथवा अफगान स्क्रब स्पैरो, ट्री स्पैरो अथवा यूरेशियन स्पैरो, सिंध स्पैरो तथा रसेट अथवा सिनेमन स्पैरो पाई जाती हैं। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के मुताबिक भारत में गौरैया की आबादी में 60 फीसदी के आसपास कमी आई है। इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक सर्वेक्षण के अनुसार गौरैया की संख्या आंध्र प्रदेश में करीब 80 फीसदी तथा केरल, गुजरात, राजस्थान जैसे राज्यों में 20 फीसदी तक कम हो चुकी है। इसके अलावा तटीय क्षेत्रों में इनकी संख्या 70 से 80 फीसदी तक कम होने का अनुमान है। केन्द्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय का भी मानना है कि देशभर में गौरेया की संख्या में निरन्तर कमी आ रही है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि अगर गौरैया के संरक्षण के लिए समय रहते ठोस प्रयास नहीं किए गए तो संभव है कि नन्हीं सी चिडि़या गौरैया इतिहास का प्राणी बनकर रह जाए और हमारी आने वाली पीढि़यों को इसके दर्शन केवल गूगल या किताबों में ही हो पाएं। दरअसल हम पर्यावरण के साथ जिस तरह का खिलवाड़ कर रहे हैं, उसी का नतीजा है कि हमने धरती, जल, वायु प्रकृति के इन सभी तत्वों को इस कदर प्रदूषित कर दिया है कि इसका दुष्प्रभाव अब मनुष्यों के अलावा धरती पर विद्यमान तमाम जीव-जंतुओं और पशु-पक्षियों को भुगतना पड़ रहा है। गौरैया की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए गौरैया के अलावा शहरी वातावरण में रहने वाले आम पक्षियों के संरक्षण के प्रति भी जागरूकता लाने के उद्देश्य से वर्ष 2010 से प्रतिवर्ष 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया जाता है। गौरैया की तेजी से घटती संख्या को देखते हुए दिल्ली सरकार द्वारा इसे वर्ष 2012 में राज्य-पक्षी घोषित कर दिया गया था, बिहार का भी यह राजकीय पक्षी है। पिछले दो-ढ़ाई दशकों में हमारी जीवनशैली में बहुत बदलाव आया है। अपने निहित स्वार्थों के चलते हमने जंगल उजाड़ दिए, प्रकृति का संतुलन चक्र बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे जीव-जंतुओं और पक्षियों की अनेक प्रजातियों को मारकर, उनका शिकार करके या उनके आशियाने उजाड़कर उनके अस्तित्व पर संकट पैदा कर दिया है। एक समय था, जब सुबह आंख खुलते ही गौरैया की चहचहाहट सुन हमारे दिलोदिमाग को एक अजीब सा सुकून मिलता था किन्तु अब यह चहचहाहट कहीं गायब हो गई है।
पर्यावरण संरक्षण पर प्रकाशित अपनी पुस्तक प्रदूषण मुक्त सांसें में गौरैया को लेकर मैंने विस्तार से यह उल्लेख किया है कि भोजन तथा पानी की कमी, पक्के मकान बनने से घोसलों के लिए उचित स्थानों की कमी, तेजी से कटते पेड़-पौधे, हमारी बदलती जीवनशैली, मोबाइल रेडिएशन का दुष्प्रभाव, तापमान में लगातार होती बढ़ोतरी इत्यादि कई ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो गौरैया की विलुप्ति का कारण बन रहे हैं। खेतों में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से भी इनके अस्तित्व पर काफी बुरा असर पड़ रहा है।
पर्यावरणविदों के मुताबिक गौरेया काकून, बाजरा, धान, पके हुए चावल के दाने इत्यादि खाती है किन्तु अत्याधुनिक शहरीकरण के कारण उसके प्राकृतिक भोजन के स्रोत खत्म होते जा रहे हैं, उनके आशियाने उजड़ रहे हैं। पेड़-पौधे लगातार तेजी से कट रहे हैं और नए जमाने के बन रहे घरों में गौरैया के घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही है। शहरों की बात छोडि़ये, अब ग्रामीण इलाकों में भी घर बनाने के तरीके बदल गए हैं, जिससे गौरैया के लिए घोंसले बनाने की जगह खत्म सी गई हैं। अब शहर हों या गांव, हर कहीं हजारों की संख्या में मोबाइल फोन के लिए बड़े-बड़े टावर लगे हैं। इन टावरों से निकलने वाला रेडिएशन गोरैया की लगातार घटती संख्या का सबसे बड़ा जिम्मेदार कारण है। दरअसल इन टावरों से निकलने वाली इलैक्ट्रो मैग्नेटिक किरणें इस छोटे से पक्षी को उत्तेजित करती हैं, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता बहुत कम हो जाती है और वह दिशाभ्रम की शिकार भी होती है। इससे सीधे-सीधे उनके अस्तित्व पर बहुत बड़ा असर पड़ा है। पर्यावरणविदों के अनुसार गौरैया अधिकांशतः छोटे-छोटे झाड़ीनुमा झुरमुट वाले वृक्षों पर रहती हैं लेकिन विकास की अंधी दौड़ में पेड़ों का तेजी से सफाया किया जा रहा है, जिससे गौरैया सहित अन्य पक्षियों के आशियाने भी उजड़ गए हैं।
बहुत बार देखा जाता रहा है कि लोग अपने घरों में गौरैया के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं। पक्षी विज्ञानी कहते हैं कि गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिएं, जहां वे आसानी से घोंसले बना सकें और घरों में बने इन घोंसलों में उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। प्रकृति संतुलन तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए आज समय की सबसे बड़ी मांग है कि हम पक्षियों के लिए वातावरण को उनके प्रति अनुकूल बनाने में सहायक बनें अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब गौरैया सहित और भी बहुत सारे पक्षी गिद्ध तथा मॉरीशस के ‘डोडो’ पक्षी की भांति पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगे। बहरहाल, प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में हमारी सहभागी रही गौरेया के संरक्षण के लिए आज लोगों में बड़े स्तर पर जागरूकता पैदा किए जाने की सख्त जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण मामलों के जानकार हैं तथा पर्यावरण पर चर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ लिख चुके हैं)