दिलीप कुमार पाठक
दिसंबर 2025 में दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला अरावली वर्तमान में एक महत्वपूर्ण कानूनी मोड़ पर है, जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अरावली की एक नई परिभाषा को मंजूरी दी है जिसके तहत केवल 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही इसके दायरे में माना जाएगा, हालांकि पर्यावरणविदों ने चिंता जताई है कि इससे कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर खनन का खतरा बढ़ सकता है। तमाम विरोधों के बावजूद वर्तमान में केंद्र सरकार ने अरावली परिदृश्य में नई माइनिंग लीज पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है, हालांकि कब तक ये प्रतिबंध रहेगा कुछ कहा नहीं जा सकता l क्योंकि यह श्रृंखला थार रेगिस्तान को दिल्ली-एनसीआर की ओर बढ़ने से रोकने और भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
आज सारी दुनिया की बातें एक तरफ और प्रकृति के निर्मम दोहन का मुद्दा एक तरफ है। आज के तमाम बौद्धिक विमर्शों में सबसे जरूरी और भयावह रूप में पर्यावरणीय समस्याएं हमारे सामने खड़ी हो गई हैं। यह केवल चर्चा का विषय नहीं, बल्कि अस्तित्व का संकट है। हम देख रहे हैं कि लगातार भू-मंडल का तापमान बढ़ रहा है और सदियों से जमे ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। मौसम का चक्र पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है; कहीं सूखा है तो वह अब अत्यधिक सूखे की विभीषिका में बदल रहा है, कहीं बाढ़ आ रही है तो वह प्रलयंकारी रूप धारण कर रही है, और कहीं यदि सर्दी पड़ रही है तो वह भी अब रिकॉर्ड तोड़ और जानलेवा साबित हो रही है।
प्रकृति का असंतुलन आज इस कदर बढ़ गया है कि प्राकृतिक त्रासदियों की बाढ़ सी आ गई है। कभी उत्तराखंड की भीषण बाढ़ तबाही मचाती है, तो कभी केरल के वायनाड जैसे क्षेत्रों में भयावह भूस्खलन मासूमों को निगल जाता है, तो कभी कच्छ में आए तीव्र भूकंप जैसी ऐसी त्रासदियाँ सामने आती हैं कि लोगों की कई-कई पीढ़ियां एक झटके में उजड़ जाती हैं।
विकास की हवस ने पहाड़ों की जड़ें हिला दी हैं, तभी तो कहीं जोशीमठ जैसा शहर दरक गया, तो कहीं अरावली पर्वत की प्राचीन श्रृंखलाओं को हड़पने की कोशिशें तेज हो गईं। आधुनिक विकास के नाम पर प्रकृति को चौपट करने वाली यह दानवी प्रवृत्ति रुकने का नाम नहीं ले रही। विडंबना देखिए, कई रसूखदार लोग, जो प्रकृति के विनाश की नींव रखते हैं, किसी भी संभावित प्राकृतिक त्रासदी की आहट मिलते ही अपने-अपने निजी प्लेन में सवार होकर सुरक्षित भविष्य की तलाश में विदेश निकल जाते हैं। पीछे रह जाते हैं आम लोग और स्थानीय निवासी, जिन्हें इन विनाशकारी परिस्थितियों और मलबे से अकेले जूझना पड़ता है। जिनके पास भागने का कोई रास्ता नहीं, वे अपनी ही मिट्टी में दफन होने को मजबूर हैं।
आज समय आ गया है कि सरकार और उद्योगपतियों को अभी से अपनी अक्ल के घोड़े दौड़ाने होंगे, अन्यथा भविष्य में न यह लोग रहेंगे और न ही यह उपजाऊ ज़मीन बचेगी। सत्ता और पूँजीपतियों को यह बुनियादी बात समझनी होगी कि जब लोग ही नहीं रहेंगे, तो इस निर्जीव ज़मीन का वे करेंगे क्या? आखिर देश और समाज जीवित लोगों से बनता है, दीवारों या तिजोरियों से नहीं; और जब मनुष्यता ही मिट जाएगी, तो क्या बचेगा? पैसे कमाने का भी एक मानवीय मूल्य होना चाहिए, पर यहाँ प्रश्न यह है कि पैसा किस कीमत पर कमाना है? क्या आने वाली पीढ़ियों की साँसों को बेचकर दौलत की मीनारें खड़ी की जाएंगी?
विडंबना देखिए कि जो जिम्मेदारी एक चुनी हुई सरकार को निभानी चाहिए थी, वही जिम्मेदारी आज इस देश के निरीह और आम लोग निभा रहे हैं। ये वही आम लोग हैं जो प्रकृति को बचाने के लिए पुलिस की लाठियां खाते हैं, सरकारी तंत्र के प्रतिरोध का सामना करते हैं और सत्ता की क्रूर हिंसा को सहते हैं। समाज और आने वाली नस्लों के लिए इनके भीतर प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का जो भाव है, वह वंदनीय है। लेकिन इसके ठीक उलट, हमारी सरकारें पूरी तरह गैर-जिम्मेदार हो चुकी हैं। जब समाज के रखवाले ही संसाधनों के भक्षक बन जाएं, तो फिर न्याय की उम्मीद किससे की जाए? आज ‘माँ के नाम एक पेड़’ लगाने जैसे अभियानों की नौटंकी का आखिर मतलब क्या रह जाता है, जब आप एक तरफ दिखावे के लिए पौधा रोपते हैं और दूसरी तरफ सीधे पहाड़ के पहाड़ उद्योगपतियों को सौंप देते हैं? यह विरोधाभास स्पष्ट करता है कि नीतियां प्रकृति को बचाने के लिए नहीं बनाई जा रही हैं।





