सवाल जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता का ?

Question about the credibility of investigating agencies?

निर्मल रानी

पिछले कुछ दिनों के भीतर विभिन्न न्यायालयों द्वारा कई बहुचर्चित व हाई प्रोफ़ाईल मामलों से संबंधित कई ऐसे फ़ैसले सुनाये गये जिससे एक बार फिर जांच एजेंसियों की ‘कारगुज़ारियों ‘ पर सवाल उठने लगे हैं । सवाल भी दो तरह के। एक तो यह कि यदि सम्बद्ध मामले में अदालत के अनुसार आरोपी बेगुनाह थे तो आख़िर अपराध करने वाले कौन थे? उन्हें सामने लाने की ज़िम्मेदारी आख़िर किस एजेंसी की है ? और दूसरा बड़ा सवाल यह कि लंबे समय तक जेल में रहने,कथित रूप से प्रताड़ना सहने, पूरे समाज में अपनी व अपने परिवार की बदनामी उठाने,इतने वर्षों तक अपने काम काज से मुक्त होकर जांच व जेल का सामने करने गोया आरोपियों का पूरा जीवन बर्बाद होने की भरपाई कैसे हो और कौन करेगा इसकी भरपाई ? गत 21 जुलाई को बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस अनिल किलोर और जस्टिस श्याम चांडक की विशेष पीठ ने 2006 के मुंबई ट्रेन ब्लास्ट मामले से संबंधित मामले में 19 साल बाद,ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। इस फ़ैसले में 12 में से 11 आरोपियों को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया। जबकि कमाल अहमद अंसारी नाम के एक आरोपी की 2021 में कोरोना के चलते जेल में ही मृत्यु हो चुकी थी। ग़ौर तलब है कि 11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में केवल 11 मिनट के भीतर सात स्थानों पर सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे। इन धमाकों में 189 बेगुनाह लोग मारे गए थे तथा 800 से अधिक घायल हुए थे । यह बम धमाका मुंबई की उन लोकल ट्रेन्स को लक्षित करके किया गया था, जिसमें रोज़ाना लाखों यात्री सफ़र करते हैं।

इसी तरह का दूसरा फ़ैसला गत 31 जुलाई 2025 को मुंबई की विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी एन आई ए की अदालत ने सुनाया। यह मामला 29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के नासिक ज़िले के मालेगांव में हुए बम धमाके से संबंधित था। मालेगांव बम विस्फ़ोट मामले में 17 साल बाद सुनाये गये इस फ़ैसले में भी अदालत ने सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। मुस्लिम बहुल इलाक़े में हुये इस मोटरसाइकिल बम विस्फ़ोट में फ़रहीन उर्फ़ शगुफ्ता शेख़ लियाक़त, शेख़ मुश्ताक़ यूसुफ़, शेख़ रफ़ीक़ मुस्तफ़ा, इरफ़ान ज़ियाउल्लाह ख़ान , सैयद अज़हर सैयद निसार, और हारून शाह मोहम्मद शाह जैसे 6 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 100 से अधिक लोग घायल हुए थे। 29 सितंबर 2008 को रमज़ान के पवित्र महीने और नवरात्रि से ठीक पहले, मालेगांव के भीकू चौक पर एक मोटरसाइकिल में बम विस्फ़ोट कर इस घटना को अंजाम दिया गया था। । इस घटना के बाद देश में व्यापक विवाद व सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था। यही वह घटना थी जिसमें प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ़्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, रिटायर्ड मेजर रमेश उपाध्याय, अजय राहिरकर, सुधाकर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी, और समीर कुलकर्णी जैसे लोगों पर ग़ैर क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA), भारतीय दंड संहिता (IPC), और विस्फ़ोटक पदार्थ अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए थे । अभियोजन पक्ष ने यह दावा किया था कि जिस मोटरसाइकिल में विस्फ़ोटक लगाकर उड़ाया गया था वह प्रज्ञा ठाकुर के नाम पर थी जबकि कर्नल पुरोहित ने विस्फ़ोटक सामग्री यानी आर डी एक्स उपलब्ध कराई थी। उस समय ए टी एस ने यह दावा भी किया था कि यह हमला दक्षिणपंथी संगठन “अभिनव भारत” की साज़िश के तहत किया गया था।

इसी तरह एक और बहुचर्चित मामला दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री और आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता सत्येंद्र जैन से जुड़ा है। गत 4 अगस्त 2025 को दिल्ली की राउज़ एवेन्यू कोर्ट ने सत्येंद्र जैन के ख़िलाफ़ एक मामले में सी बी आई की क्लोज़र रिपोर्ट स्वीकार कर ली। इस मामले में सत्येंद्र जैन पर लोक निर्माण विभाग में अनियमित नियुक्तियों का आरोप था। परन्तु अदालत ने पिछले दिनों इसी मामले में अपना फ़ैसला सुनाते हुये कहा कि सी बी आई को लंबी जांच के बाद भी जैन के ख़िलाफ़ कोई आपराधिक सबूत नहीं मिले । अब आरोप लग रहा है कि ई डी ने जैन के विरुद्ध बिना ठोस सबूतों के कार्रवाई की। क्योंकि ED ने जैन के घर से नक़द या सोना बरामद होने का जो दावा किया था अदालत ने उन दावों को ही झूठा माना और ई डी को फटकार भी लगाई। इन आरोपों में अपनी संलिप्तता से पूर्व दिल्ली सरकार में स्वास्थ्य, बिजली, गृह, और पी डब्लू डी जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री जैसे गरिमामयी पद पर थे ।

उदाहरणार्थ उपरोक्त तीनों मामलों का ज़िक्र यहाँ इसीलिये किया जा रहा है क्योंकि यह मामले न केवल है प्रोफ़ाइल थे बल्कि इन मामलों का गहरा सम्बन्ध देश की राजनीति से भी था। मीडिया में इन सभी मामलों ने भरपूर सुर्ख़ियां बटोरी थीं और पक्षपाती मीडिया ने भी इन मामलों में अपने तरीक़े से ‘मिडिया ट्रायल ‘ भी चलाया था। अन्यथा निश्चित रूप से ऐसे और भी फ़ैसले आये दिन होते होंगे जिनमें वर्षों तक जेल भुगतने के बाद या जेल में मौत हो जाने के बाद आरोपियों को सुबूतों,साक्ष्यों व गवाहों के अभाव के चलते बरी कर दिया जाता हो। इन परिस्थितियों में कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठने लाज़िमी हैं। अदालतें यदि किसी भी आरोपी को साक्ष्यों व गवाहों के अभाव के कारण बरी करती हैं तो वह निश्चित रूप से स्वागत योग्य है। क्योंकि हमारे देश की न्याय व्यवस्था का यह कथन है कि भले ही सौ गुनहगार रिहा हो जाएँ परन्तु किसी एक भी बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिये। ज़ाहिर है इस कथन के तहत जांच एजेंसियों की रिपोर्ट्स का अति सूक्ष्म अध्यन व गवाहों से भरसक जिरह करना अदालत का दायित्व है।

परन्तु हम जांच एजेंसियों की दोषसिद्धि दर की भी अनदेखी नहीं कर सकते। मिसाल के तौर पर जब विपक्षी नेताओं के विरुद्ध सीबीआई और ईडी की कार्रवाई करती है तो सज़ा की दर केवल 1% होती है। जैसा कि राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया गया था। हो सकता है कि यह आंकड़ा विशेष रूप से राजनीतिक मामलों तक ही सीमित हो परन्तु इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि क्या जांच एजेंसियों की कार्रवाइयां भी पूर्वाग्रह से प्रेरित तथा सत्ता के इशारे पर की जाती हैं ? इसी तरह आतंकवाद से संबंधित मामलों में ठोस सबूत जुटाना मुश्किल होता है, क्योंकि कई बार गवाह डर के कारण सामने नहीं आते या सबूत अपर्याप्त होते हैं। तो भी आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। कई बार हमारे देश में लंबी व जटिल क़ानूनी प्रक्रिया के चलते ATS द्वारा गिरफ़्तार किए गए संदिग्धों को निचली अदालतों में सज़ा मिलती है, लेकिन उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय में अपील के बाद वे बरी हो जाते हैं। कुछ मामलों में तो 9 से 23 साल बाद पर्याप्त सबूत के अभाव में लोग बरी हुए थे। इसी तरह UAPA के तहत सज़ा की दर भी अपेक्षाकृत कम रही है। इसी आधार पर कभी 2008 में हुये जयपुर सीरियल बम धमाके में बॉम्बे हाईकोर्ट ने निचली अदालत द्वारा सज़ा पाए कुछ आरोपियों को 2023 में बरी कर दिया। तो कभी 2002 में हुये अक्षरधाम मंदिर हमले के मामले में 6 आरोपियों को गिरफ़्तार किया गया लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में जहां वर्षों बाद बरी होने वाले आरोपियों का जीवन बर्बाद हो जाता है और उनका पूरा परिवार गंभीर आरोपों के इस कलंक के साथ जीने के लिये अभिशप्त हो जाता है वहीं जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता भी संदेह के दायरे में आ जाती है।