महिला डॉक्टर से दुष्कर्म-हत्या से जुड़े सवाल

Questions related to rape and murder of female doctor

ललित गर्ग

कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज में ट्रेनी डॉक्टर के दुराचार, बलात्कार व बर्बर हत्या पर स्वाभाविक ही देशभर के आमजन में तीखी प्रतिक्रिया एवं डॉक्टरों तीव्र रोष, गम और गुस्सा है, उसे समझा जा सकता है। जीवन-रक्षा करने वाले अस्पतालों एवं जीवन-रक्षक डाक्टरों पर हो रहे हमले, बर्बर एवं वीभत्स घटनाएं चिन्तनीय है। यह सरकारों एवं पुलिस की असफलता, लापरवाही एवं कोताही को ही दर्शा रही है। ऐसी घटनाओं में पुलिस की भूमिका अनेक सवाल खड़े कर रही है। कोलकाता की इस घटना ने एक बार फिर इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि अस्पतालों में डॉक्टरों को किस तरह के खतरों के बीच काम करना पड़ता है। डॉक्टर अपनी सुरक्षा को लेकर भी डरे एवं सहमे हुए हैं। लेडी डॉक्टर्स ही नहीं, पुरुष डॉक्टर भी तरह-तरह के हमलों की आशंकाओं एवं असुरक्षा के बीच जीते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि घटना के बाद भी पुलिस संतोषनक कार्रवाई नहीं कर सकी। डॉक्टरों की बुनियादी मांग यह है कि इस घटना की निष्पक्ष और विश्वसनीय जांच सुनिश्चित की जाए।

यह घटना दर्दनाक होने के साथ-साथ अमानवीयता एवं क्रूरता की पराकाष्ठा थी, क्योंकि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में महिला डॉक्टर की आंखों, मुंह और प्राइवेट पार्ट से खून बहने के अलावा उसके शरीर पर चोट के कई निशान मिलने की बात कही गई है। इस त्रासद एवं खौफनाक घटना के विरोध में देशभर में गुस्साए और फिक्रमंद डॉक्टर बेमियादी हड़ताल पर चले गए हैं, जिससे अस्पतालों में चिकित्सा सेवाएं चरमरा गयी हैं एवं सभी हिस्सों में ओपीडी सेवाएं बाधित एवं प्रभावित हो रहीं। जाहिर है, इससे मरीजों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अब चूंकि इस मामले का संज्ञान लेते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने इसकी जांच सीबीआई को सौंप दी है और राज्य पुलिस को सारे कागजात बुधवार 10 बजे तक सीबीआई को सौंपने की हिदायत दी है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि मामले की संतोषजनक जांच होगी और दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।

एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या अस्पतालों में सिर्फ डॉक्टर ही खतरे में होते हैं? डॉक्टरों के साथ नर्स, अन्य स्वास्थ्यकर्मी एवं रोगी भी कहां सुरक्षित है? हालांकि हड़ताली डॉक्टरों ने सभी स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा को मुद्दा बनाया है, लेकिन नर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों पर हमले कभी इतना बड़ा मुद्दा क्यों नहीं बनते? मसला मरीजों की सुरक्षा का भी है। 2024 में अस्पतालों में हुए यौन हमलों के हर पांच में से चार मामलों में पीड़ित महिला मरीज रही हैं। सवाल यह भी है कि अस्पतालों में ओवरचार्ज के रूप में मरीजों पर होने वाले वित्तीय हमलों को क्यों चर्चा से बाहर रखना चाहिए? आखिर अस्पतालों में बनते असुरक्षा के माहौल का यह भी एक अहम पहलू है। हमारे अस्पताल हर तरह से सुरक्षित होने चाहिए और इसके लिए सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए। संभवतः इसीलिए हड़ताली डॉक्टरों की एक प्रमुख मांग यह है कि हेल्थकेयर वर्कर्स की सुरक्षा के लिए देश में एक नया केंद्रीय कानून बनाया जाए।

बढ़ते डॉक्टरों पर हमलों के कारण उनका डर और उनकी चिंता जायज है। लेकिन जहां तक केंद्रीय कानून की मांग है तो सवाल यह है कि क्या कोलकाता में लेडी डॉक्टर पर हुआ हमला कड़े कानूनों की कमी का परिणाम माना जा सकता है? सच यह है कि ज्यादातर राज्यों में मेडिकेयर सर्विस पर्सन्स और मेडिकेयर सर्विस इंस्टीट्यूशंस (हिंसा या क्षति या संपत्ति के नुकसान की रोकथाम) अधिनियम पहले से ही लागू है। अब तो हर अस्पताल में डाक्टरों पर हमलों के लिये चेतावनी के बोर्ड देखने को मिलते है कि ऐसी घटनाओं को अपराध मानते हुए उन पर सख्त कानूनी कार्रवाई की जायेगी। मगर इन राज्यों में भी इसके तहत दर्ज मामलों में दस फीसदी ही आरोप तय होने के बाद अदालत तक पहुंच पाते है। जाहिर है, मूल समस्या कानून में नहीं, उस पर अमल में है। अदालत ने उचित ही आंदोलित डॉक्टरों को उनके पवित्र एवं पावन दायित्व का एहसास कराया है और उनसे अपने काम पर लौटने की अपील की है। आखिर किसी जालिम की करतूत की सजा बेकसूर मरीजों को क्यों मिलनी चाहिए? इसलिये न्याय मांगते डॉक्टरों को भी सोचना चाहिए कि इंसाफ का तकाजा क्या यह भी नहीं है कि किसी मरीज से नाइंसाफी न हो?

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के एक अध्ययन के अनुसार, 75 प्रतिशत से अधिक डॉक्टरों को काम पर हिंसा का सामना करना पड़ता है। तूतीकोरिन में एक महिला डॉक्टर की हत्या एक गर्भवती महिला के पति ने की थी, जिसे गंभीर हालत में भर्ती कराया गया था। उसे दूसरे अस्पताल में रेफर किया गया था, लेकिन उसे स्थानांतरित किए जाने से पहले ही उसकी मौत हो गई।

पति ने तीन साथियों के साथ महिला डॉक्टर के परामर्श कक्ष में प्रवेश किया और उस पर तलवार से हमला किया। 2014 में, पंजाब के मनसा जिले में एक लड़के की मौत के बाद एक डॉक्टर के क्लिनिक को जला दिया गया था, जिसे तृतीयक अस्पताल में रेफर किया गया था, लेकिन उसकी मौत हो गई। भारत भर में डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा की असंख्य घटनाएं लगभग हर दिन सामने आती हैं, जिनमें से कुछ में गंभीर चोटें भी आती हैं। यहां तक कि देश के प्रमुख चिकित्सा संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली जैसे संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं।

पश्चिम बंगाल में बात केवल राजनीतिक हिंसा एवं आक्रामकता की ही नहीं है बल्कि कुशासन एवं अराजकता की भी है। वहां आमजनता के साथ साथ अस्पतालों की सुरक्षा भी खतरे में है। इसका एक उदाहरण चुनाव से पहले कोलकाता के एनआरएस मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 10 जून की रात को सामने आया था, वह भी एक काला अध्याय ही था। इलाज के दौरान एक बुजुर्ग मरीज की मृत्यु के बाद एक वर्ग विशेष के लोगों ने डॉक्टरों पर हमला बोल दिया था, जिससे कई डॉक्टर गंभीर रूप से घायल हो गए थे। भारत में डॉक्टर को लगभग भगवान का दरजा मिला हुआ है। ऐसे में, आमतौर से उन पर हमला किसी ऐसे निरंकुशता और असंवेदनशीलता की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए, जो तंत्र से पोषित एवं संरक्षित होता है। उसकी हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर इसे किसी शून्य की उपज भी नहीं कह सकते। लेकिन ताजा घटना में महिला ट्रेनी डॉक्टर के साथ जो हुआ, उसने तो सारी सीमाएं लांघ दी है।

इस हत्याकांड ने एक बार फिर पश्चिम बंगाल सरकार एवं पुलिस-प्रशासन को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। खुद अदालत ने सवाल किया कि आखिर शुरुआत से ही हत्या के बजाय अस्वाभाविक मौत के नजरिये से जांच क्यों की गई? फिर 9 अगस्त को घटी इस घटना में उसने जिस आरोपी को हिरासत में लिया है, वह एक पुलिस का वॉलंटियर बताया जाता है और उसे इस अस्पताल में अक्सर मंडराते देखा जाता था। इतने संवेदनशील मामले में अतिरिक्त सक्रियता बरतकर कोलकाता पुलिस न सिर्फ पीड़ित परिवार के भरोसे का संरक्षण कर सकती थी, बल्कि डॉक्टरों को भी यह यकीन दिला सकती थी कि अपराधी चाहे कोई भी हो चंद घंटों के भीतर वे सलाखों के पीछे होंगे! मगर बंगाल पुलिस ने कहीं न कहीं कोताही बरती।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का उसे यह अल्टीमेटम देना कि रविवार तक जांच पूरी हो, वरना मामला सीबीआई को सौंप देंगे, आखिर क्या ध्वनित करता है? दरअसल, यह सिर्फ एक राज्य की पुलिस की बात नहीं है। लोगों की निगाहों में राज्य-दर-राज्य पुलिस की छवि इतनी कमजोर हो चली है कि जघन्य अपराधों की जांच में भी लोग उसकी पेशेवर काबिलियत पर आसानी से भरोसा नहीं करते और उसमें राजनीतिक कोण देखने लगते हैं। निस्संदेह, इसके लिए पुलिस के साथ-साथ राजनीतिक नेतृत्व भी बराबर के दोषी हैं। सीबीआई की कार्यशैली भी सवालों से घिरी हैं ऐसे में, आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की डॉक्टर के हत्याकांड की जांच उसके लिए एक नई चुनौती है कि वह जल्दी से जल्दी इसकी जांच मुकम्मल कर न सिर्फ दोषी या दोषियों को सलाखों के पीछे पहुंचाएं, बल्कि अपनी छवि भी सुधारे।