ललित गर्ग
देश पर सर्वाधिक समय शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी ने एक बार फिर विदेशी की धरती पर होहल्ला मचाते हुए भारत की छवि को धूमिल करने का घृणित एवं गैरजिम्मेदाराना काम किया है। गांधी ने लंदन की कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में पेगासस को लेकर सरकार पर निशाना साधा है। वह देश में इस तरह की बातें करते ही रहे हैं कि मोदी सरकार के चलते भारतीय लोकतंत्र खतरे में है और सरकार से असहमत लोगों के साथ विपक्ष की आवाज दबाई जा रही है। वह वहां यह भी कह गए कि भारत की सभी संस्थाओं और यहां तक कि न्यायालयों पर भी सरकार का कब्जा है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनके सरकार चलाने के तौर-तरीकों की तीव्र आलोचना की, जो महज खिसियाहट भरी अभद्र राजनीति का ही परिचायक नहीं था, बल्कि इसका भी प्रमाण था कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए कोई किस हद तक जा सकता है, देश के गौरव को दाव पर लगा सकता है। राहुल गांधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री के खिलाफ अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल किया, क्या वह देश के सर्वोच्च राजनीतिक दल की गैर जिम्मेदाराना राजनीति का परिचायक नहीं है?
राहुल गांधी ने यह बात ठीक उस वक्त कही, जब कुछ ही घंटे पहले सर्वोच्च न्यायालय ने दो ऐसे फैसले दिए थे, जो सरकार के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करते हुए भी देखे गए। एक फैसले के तहत उसने निर्वाचन आयोग के आयुक्तों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश को भागीदार बनाया और दूसरे के तहत अदाणी मामले की जांच करने के लिए अपने हिसाब से एक समिति गठित की। सबसे हैरानी एवं दुर्भाग्य की बात यह रही कि राहुल गांधी ने पेगासस मामले को नए सिरे से उछाला और अपनी जासूसी का आरोप लगाते हुए यह हास्यास्पद दावा भी किया कि खुद खुफिया अधिकारियों ने उनसे कहा था कि उनका फोन रिकार्ड किया जा रहा है और उन्हें संभल कर बात करनी चाहिए। स्पष्ट है कि उन्होंने यह बताना आवश्यक नहीं समझा कि सुप्रीम कोर्ट की एक समिति ने इस मामले की जांच की थी और उसने यह पाया था कि उसके पास जांच के लिए आए फोन में से किसी में भी जासूसी उपकरण नहीं मिला। लगता है पेगासस राहुल के मोबाइल में नहीं, उनके दिमाग में है।
राहुल गांधी अक्सर भाजपा सरकार एवं नरेन्द्र मोदी के विरोध में स्तरहीन एवं तथ्यहीन आलोचना, छिद्रान्वेशन करते रहे हैं। ऐसा लगता है उनकी चेतना में स्वस्थ समालोचना के बजाय विरोध की चेतना मुखर रहती है। राहुल गांधी न सही, कम से कम उनके सहयोगियों और सलाहकारों को यह पता होना चाहिए कि उनकी घिसी-पिटी बातें और यह राग लोगों को प्रभावित नहीं कर रहा बल्कि देश को बर्बाद कर रहा है। विदेश की धरती पर ऐसी सारहीन, तथ्यहीन एवं भ्रामक आलोचना से दुनिया में भारत की छवि को भारी नुकसान पहुंचता है। राहुल गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता एवं नासमझी के अनेक किस्से हैं, अक्सर वे खुद को सही साबित करने के लिए छल का सहारा लेने में लगे रहते हैं। अफसोस केवल यह नहीं कि बिना किसी सुबूत राहुल गांधी झूठ का पहाड़ खड़ा करने में लगे हुए हैं, बल्कि इस पर भी है कि अनेक जिम्मेदार राजनेताओं ने उनकी झूठ की राजनीति में सहभागी बनना बेहतर समझा। यही कारण है कि कांग्रेस एवं उसके अनर्गल प्रलाप में सहभागी बनने वाले राजनीतिक दल लगातार हार का मुंह देख रहे हैं, फिर भी कोई सबक लेने एवं सुधरने का प्रयास नहीं करते। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में कांग्रेस को जो पराजय मिली, वह उसके खोखले चिंतन, अपरिपक्व राजनीति, तथ्यहीन बयानों और दृष्टिहीनता का ही नतीजा है। राहुल गांधी अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए किस तरह विदेश में देश को नीचा दिखाने पर तुले हुए हैं, इसका पता इससे चलता है कि उन्होंने यह कह दिया कि मोदी सरकार सिखों, ईसाइयों और मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक समझती है। यह एक किस्म की शरारत ही नहीं, देश की एकता को खंडित करने की कोशिश भी है। यह देश को तोड़ने एवं आपसी सौहार्द को भंग करने की कुचेष्ठा है। अच्छा होता कि कोई उन्हें यह बताता कि भाजपा ने ईसाई बहुल नगालैंड में केवल 20 सीटों पर चुनाव लड़कर 12 सीटों पर जीत हासिल की हैं। किसी को राहुल गांधी को यह भी बताना चाहिए कि वह भारत विरोधी एवं भारत के दुश्मन चीन का बखान करके भारत के जख्मों पर नमक छिड़कने का ही काम कर रहे हैं। यह एक तरह की सस्ती, स्वार्थी और एक तरह से देशघाती राजनीति है।
राहुल गांधी भले ही नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार रूपी साफ-सुधरे ‘आइने’ पर धूल जमी होने का ख्वाब देख रहे हो मगर असलियत में उसके ‘चेहरे’ पर ही धूल लगी हुई है जिसे उसे साफ करके ‘आइने’ में अपना चेहरा देखना होगा। क्योंकि दुनियाभर के राजनेता एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति भारत एवं नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा कर रहे हैं, जी-20 के सम्मेलन में भाग लेते हुए दिल्ली में एक दिन पहले ही इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दुनियाभर में लोग प्यार करते हैं। इसी तरह माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के संस्थापक बिल गेट्स ने भी पिछले दिनों एक लेख लिखकर बताया कि भारत विश्व को विकास एवं शांति की राह दिखा रहा है। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, रूस, जापान और इजरायल सहित अनेक देशों के प्रमुख राजनेता भारत के प्रयासों की सराहना कर चुके हैं। ऐसे में जब राहुल गांधी विदेश में जाकर प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार और अन्य संस्थाओं के संबंध में नकारात्मक टिप्पणी करते हैं, तब उनके बारे में क्या ही छवि बनती होगी? यह भी ध्यान में आता है कि राहुल गांधी भारत की संवैधानिक संस्थाओं पर भी भरोसा नहीं करते हैं अपितु उन्हें भी नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। एक विदेशी संस्थान में यह कहना कि भारत में मीडिया और न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं रह गए हैं, यह उचित नहीं ठहराया जा सकता। राहुल गांधी बताएं कि वे किस आधार पर यह कह रहे थे? क्या न्यायपालिका ने यह कहा है कि वह स्वतंत्र नहीं है? या फिर मीडिया संस्थान और न्यायपालिका से लेकर चुनाव आयोग एवं अन्य संवैधानिक संस्थाएं भी कांग्रेस के झूठे आरोपों और वितंडावाद से परेशान हो चुकी है।
जब राहुल गांधी राफेल सौदे में गड़बड़ी को इंगित करते तब फिर वे क्या हासिल करने के लिए एक जरूरी रक्षा सौदे को संदिग्ध बता रहे थे? आखिर इससे उन्हें अपयश के अलावा और क्या मिला? उनकी नादानी की वजह से भारत की छवि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी धुंधलाती रही, यह बड़ा अपराध माना गया जो अक्षम्य भी था। भले सर्वोच्च अदालत इसके लिये राहुल को यह कहकर कि भविष्य में वह बहुत सोच-विचार कर बोलें और विषय की गंभीरता को समझ कर बोले, माफ कर दिया। जाहिर है कि राफेल पर राहुल गांधी उग्रता से भी ऊपर आक्रामक शैली में गैर-जिम्मेदाराना अंदाज में सीधे प्रधानमन्त्री की ईमानदारी और विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर किये थे फिर भी हासिल कुछ नहीं हुआ था। इसलिये कांग्रेस को यह स्वीकार करना चाहिए कि देश की जनता भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करनेवाली बातों को सहन करने के लिए तैयार नहीं है। यदि कोई नेता विदेशी धरती पर भारत का मान बढ़ाने की जगह उसकी छवि को बिगाड़ने का प्रयास करेगा, तो उसका खामियाजा उसकी समूची पार्टी को उठाना पड़ेगा। कांग्रेस के नेता यह भी समझने की कोशिश करें कि प्रधानमंत्री मोदी, भारत सरकार और संवैधानिक संस्थाओं पर प्रतिकूल टिप्पणी करने से जनता का विश्वास नहीं जीता जा सकता। विडम्बनापूर्ण है कि राहुल गांधी जैसे राजनेताओं की आंखों में किरणें आंज दी जाएं तो भी वे यथार्थ को नहीं देख सकते। क्योंकि उन्हें उजालों के नाम से ही एलर्जी है। तरस आता है राहुल जैसे राजनेताओं की बुद्धि पर, जो सूरज के उजाले पर कालिख पोतने का असफल प्रयास करते हैं, आकाश में पैबन्द लगाना चाहते हैं और सछिद्र नाव पर सवार होकर राजनीतिक सागर की यात्रा करना चाहते हैं।