राजस्थान उपचुनाव : अशोक गहलोत से अधिक सचिन पायलट और उनके समर्थक सांसदों की साख हैं दांव पर

Rajasthan by-election: More than Ashok Gehlot, the credibility of Sachin Pilot and his supporting MPs is at stake

गोपेन्द्र नाथ भट्ट

राजस्थान विधानसभा की सात सीटों के उप चुनावों में पूर्व मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत से अधिक पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट और उनके समर्थक सांसदों की साख दांव हैं। इसका कारण इस बार सचिन पायलट और उनके समर्थक सांसदों की राय पर ही कांग्रेस उम्मीदवारों के टिकट तय हुए हैं। बताते है कि इस बार उम्मीदवारों के चयन में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कोई विशेष भूमिका नहीं निभाई। इसलिए सचिन पायलट और उनके समर्थक सांसदों एवं विधायकों के साथ ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के कारण गोविंद सिंह डोटासरा तथा प्रतिपक्ष के नेता टीकाराम जूली भी जीत और हार में अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं पायेंगे।अलवर जिले के रामगढ़ सीट पर दिवंगत विधायक जुबेर ख़ान के पुत्र को टिकट देने के निर्णय में प्रतिपक्ष के नेता टीकाराम जूली के साथ पूर्व केन्द्रीय मंत्री भँवर जितेन्द्र सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

इस लिहाज़ से उनकी प्रतिष्ठा एक बार फिर से कसौटी पर हैं। वैसे अशोक गहलोत, सचिन पायलट और भँवर जितेन्द्र सिंह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के वरिष्ठ पदाधिकारी भी है।इस कारण यदि उप चुनाव में कांग्रेस अपनी वर्तमान चार सीटों दौसा, उनियारा देवली,रामगढ़ और झूँझनूँ की सीटे नहीं बचा पाई तो नैतिक रूप से ये सभी नेता चुनाव परिणामों के लिए जिम्मेदार माने जायेंगे तथा उन्हें भी लोकसभा तथा हरियाणा विधान सभा चुनाव के बाद राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस नेताओं को खरी खरी सुनाई गई फटकार के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। हालाँकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविन्द सिंह डोटासरा का दावा है कि कांग्रेस प्रदेश में अपनी चारों वर्तमान सीटी के साथ ही इण्डिया गठबन्धन के सहयोगी दलों की चौरासी एवं खींवसर और भाजपा की सलूम्बर सहित सातों उप चुनाव जीत कर आयेगी। उनका दावा है कि मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा के ग्यारह महीनों के शासन काल को जनता ने देख लिया है और गहलोत सरकार की फ़ायदेमंद स्कीमों को बंद करने अथवा उसका स्वरूप बदलने से जनता भाजपा सरकार से नाराज़ हैं।

इन दावों के बावजूद राजनीतिक जानकार बता रहे गई कि वर्तमान में राजस्थान के जमीनी हालात कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के मुकाबले भाजपा के पक्ष में अधिक है। उस दावे के पीछे उनका तर्क भाजपा का सत्ता में होना है। जनता विधानसभा और उप चुनाव में स्पष्ट रुप से फर्क करती है क्योंकि क्षेत्र के विकास की दृष्टि से जनता प्रायः उप चुनावों में शासनारूढ़ दल को ही तरजीह देती है। इसके अलावा सत्ताधारी दल के पास प्रतिपक्ष के मुकाबले अधिक संसाधन आदि भी रहते है।

राजस्थान में इस बार के उप चुनाव में पूरी भजन लाल सरकार का प्रचार अभियान में उतर जाना और केंद्र की मोदी सरकार के साथ कड़ी से कड़ी जोड़ने की अपील करना भी मतदाताओं के गले उतर रहा हैं। भाजपा को इस बार प्रतिपक्ष में बिखराव का फायदा भी मिल रहा है। पहले उम्मीद थी कि इस बार उप चुनाव में सिर्फ दो सीटों डूँगरपुर जिले की चौरासी और नागौर ज़िले की खींवसर पर ही त्रिकोणात्मक मुकाबला देखने मिलेगा लेकिन बाद में स्थिति ऐसी बदली की कि प्रदेश की एक दो सीटों दौसा रामगढ़ आदि को छोड़ लगभग सभी सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बजाय भाजपा को ही फायदा देता दिख रहा हैं। भाजपा का चुनाव प्रचार अभियान भी कांग्रेस की तुलना में कई गुणाअधिक सुनियोजित और आक्रामक है जबकि कांग्रेस के बड़े नेता चुनाव प्रचार में वह धार पैदा करते नहीं दिखाई दे रहें जैसा कि लोकसभा चुनाव के वक्त दिखाई दे रहा था। अधिकांश कांग्रेस नेता स्थानीय नेताओं के भरोसे चुनाव प्रचार छोड़ कर अन्य प्रदेशों में पार्टी का प्रचार कर रहे है।भाजपा को सबसे बड़ा लाभ इस बार पार्टी के अन्दर विरोधी गुट के किसी नेता का मुखर नहीं होना भी है । यहाँ तक कथित विरोधी गुट के नेता भी इस बार भाजपा के चुनाव प्रचार में भी दिख रहे है। भाजपा ने न केवल शुरू में बग़ावत को उतारू अपने नेताओं को मैनेज करने में तत्परता दिखाई वरन् कुछ प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं और क्षेत्रीय दलों के नेताओं को भी तोड़ कर अपने पाले में लाने में भी सफलता पाई है।

कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक कहते है कि राजस्थान में गुजर जाट मीणा और आदिवासी राजनीति की थाह पाना आसान नहीं है और इसलिए पहले से किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी करना भी ख़तरे से ख़ाली नहीं क्योंकि राजस्थान का इतिहास गवाह है कि इन जातियों के रुझान ने देखते देखते चुनाव परिणामों को पलट कर रख दिया है। प्रदेश में इस बार दो विधानसभा सीटों सलूम्बर और रामगढ़ पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने सहानुभूति का कार्ड खेला गई लेकिन सलूम्बर में भारतीय आदिवासी पार्टी बाप का उम्मीदवार किसी भी दल की जीत हार का जायका बिगाड़ सकता है। उसी प्रकार रामगढ़ में भारतीय जनता पार्टी का कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी के खिलाफ हिन्दू मतदाताओं का धुर्वीकरण कुछ भी खेल कर सकता हैं। इसी प्रकार झूँझनूँ में राज्य के पूर्व मंत्री राजेंद्र गूढ़ा का चुनाव मैदान में शीश राम ओला परिवार तथा भाजपा के जाट उम्मीदवार के राह में काँटे बिछा सकता हैं। दूसरी ओर खीवसर में आर एल पी सुप्रीमो हनुमान बैनीवाल की पत्नी कनिका की राह भी आसान नहीं है। उनियारा देवली में कांग्रेस का बाग़ी ही मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा बन गया है। दौसा में क़द्दावर मीणा नेता डॉ किरोड़ी लाल मीणा की साँसे अटकी हुई हैं लेकिन वहाँ उनके छोटे भाई जगमोहन की साख अच्छी बताई जा रही हैं। वहाँ कांग्रेस और भाजपा में भीतरघात भी हो सकता है तथा यदि मीणा जाती के ख़िलाफ़ दूसरी सभी जातियों का धुर्वीकरण हो गया तो बाज़ी पलट भी सकती है। आदिवासी अंचल सलूम्बर की तरह चौरासी में भी कांग्रेस भाजपा का बाप पार्टी से तगड़ा मुकाबला है लेकिन यहाँ बाँसवाड़ा डूँगरपुर लोकसभा सीट पर चुनाव से ठीक पहले पलटी खा कांग्रेस से भाजपा में आये कद्दावर आदिवासी नेता महेंद्र जीत सिंह मालवीया और इससे पहले विधान सभा चुनाव में पूर्व सांसद ताराचन्द भगोरा को हरा कर तहलका मचाने वाले बाप के सुप्रीमो राज कुमार रोत को भाजपा मात देने की ताक में हैं लेकिन रोत की पिछली जीत का मार्जिन प्रदेश में सबसे अधिक मार्जिन से जीतने वाले पहले दो उम्मीदवारों में था जिसे पाटना काफी मुश्किल दिख रहा है।

इस बार के उप चुनाव में एक और महत्वपूर्ण फेक्टर मतदाताओं में युवकों की संख्या अधिक होना हैं और कहा जा रहा है कि इस बार जिस ओर युवाओं का झुकाव रहेगा वहीं पार्टी चुनाव जीतेगा।

देखना है 13 नवम्बर को होने वाले चुनाव में राजस्थान के युवा मतदाता किसके सिर पर जीत का सेहरा बान्धेंगे?