राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: शताब्दी वर्ष की यात्रा और समाज में सार्थक योगदान

Rashtriya Swayamsevak Sangh: The journey of the centenary year and its meaningful contribution to the society

“समर्पण, अनुशासन और समावेशिता के माध्यम से विविधता में एकता: संघ की शताब्दी यात्रा”

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य केवल संगठन तक सीमित नहीं है। यह समाज में नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को मजबूत करने, प्रत्येक व्यक्ति में अनुशासन और समर्पण विकसित करने और राष्ट्र निर्माण में योगदान देने का कार्य करता है। संघ का दृष्टिकोण समावेशी है; यह किसी धर्म, जाति या समूह के विरोध में नहीं है। हिन्दू शब्द का अर्थ केवल धर्म नहीं, बल्कि जिम्मेदारी, भक्ति और समाज के प्रति प्रतिबद्धता है। संघ समाज को गुटबंदी से मुक्त कर, विविधता में एकता स्थापित करने का कार्य करता है। शताब्दी यात्रा इस समर्पण और संगठन की पुष्टि है।

डॉ. सत्यवान सौरभ

संगठन प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने शताब्दी वर्ष के अवसर पर दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन किया। यह आयोजन केवल एक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि संघ की विचारधारा, उसकी कार्यपद्धति और समाज-निर्माण यात्रा का जीवंत प्रदर्शन था। संघ का निर्माण भारत को केंद्र में रखकर हुआ और इसका उद्देश्य देश को विश्वगुरु बनाने में योगदान देना है। संघ की प्रार्थना “भारत माता की जय” केवल शब्द नहीं, बल्कि कार्य और समर्पण की प्रेरणा है। संघ का निर्माण धीमी और सतत प्रक्रिया का परिणाम है, जो समय की कसौटी पर खरा उतरा।

संघ भले ही ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग करता है, लेकिन इसका मर्म केवल धर्म तक सीमित नहीं है। इसमें समावेश, मानवता और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी की भावना निहित है। संघ का उद्देश्य किसी विरोध या प्रतिस्पर्धा के लिए खड़ा होना नहीं, बल्कि समाज के प्रत्येक वर्ग को संगठित करके देश की एकता बनाए रखना है। संघ का कार्य स्वयंसेवकों के माध्यम से संचालित होता है, और यह कार्य नए स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण देने, उनमें नेतृत्व और जिम्मेदारी विकसित करने का अवसर प्रदान करता है।

राष्ट्र की अवधारणा सत्ता या सरकार से परिभाषित नहीं होती। भारतीय परंपरा में राष्ट्र का अर्थ संस्कृति, आत्मचिंतन और सामाजिक चेतना से जुड़ा है। इतिहास की ओर देखने पर यह स्पष्ट होता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल रहा, लेकिन इसने भारतीय समाज में नई चेतना और आत्म-जागरूकता को जन्म दिया। इसके बाद कांग्रेस का उदय हुआ, जिसने राजनीतिक समझ और सामाजिक सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। स्वतंत्रता के बाद समाज में उपजी असमानताओं और कुरीतियों को दूर करने की चुनौती बनी रही। इसी आवश्यकता ने संघ की स्थापना और उसकी भूमिका को जन्म दिया।

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और अन्य महापुरुषों ने समाज के दुर्गुणों को दूर करने और संपूर्ण समाज के संगठन की आवश्यकता को पहचाना। 1925 में संघ की स्थापना इस दृष्टि से हुई कि समाज के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य मजबूत हों और राष्ट्र निर्माण में योगदान सुनिश्चित हो। ‘हिन्दू’ शब्द केवल धर्म नहीं, बल्कि जिम्मेदारी, समर्पण और समावेश का प्रतीक है। इसमें किसी को अलग करने या विरोध करने का भाव नहीं, बल्कि सबको जोड़ने और समाज को संगठित करने का उद्देश्य निहित है।

भारत का स्वभाव सहयोग और समन्वय का है, संघर्ष का नहीं। उसकी एकता भूगोल, संसाधनों और आत्मचिंतन परंपरा में निहित है। बाहर की ओर देखने के बजाय भीतर झाँकने पर यह स्पष्ट होता है कि सभी में एक ही तत्व है, चाहे वह अलग-अलग रूपों में क्यों न प्रकट हो। यही कारण है कि भारत माता और पूर्वज हमारे लिए पूजनीय हैं। जो व्यक्ति भारत माता और अपने पूर्वजों का सम्मान करता है, वही सच्चा हिन्दू है। शब्द बदल सकते हैं, लेकिन भक्ति और श्रद्धा की भावना समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जोड़ती है।

समाज में धीरे-धीरे लोग संघ और हिन्दू शब्द के अर्थ को समझने लगे हैं। जीवन की गुणवत्ता बेहतर होने से लोग अपने मूल परंपराओं की ओर लौटते हैं। संघ किसी को हिन्दू होने के लिए बाध्य नहीं करता; उसका उद्देश्य समाज के समग्र संगठन और राष्ट्र निर्माण में योगदान देना है। संघ किसी धर्म, जाति या समूह के खिलाफ नहीं है, बल्कि समावेशी दृष्टि से सभी को जोड़कर समाज को संगठित करता है।

संघ कार्य केवल संगठन तक सीमित नहीं है। उसका लक्ष्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति के भीतर नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का विकास करना है। समाज में जागरूकता और अनुशासन लाना संघ का प्रमुख उद्देश्य है। संघ की कार्यपद्धति में व्यक्तिगत समर्पण और अनुशासन का विशेष महत्व है। प्रत्येक स्वयंसेवक संघ की मूल भावना और कार्य शैली को आत्मसात करता है और समाज में इसे लागू करता है। संघ का लक्ष्य यह है कि समाज में गुटबंदी न हो, बल्कि सभी को संगठित किया जाए और देश में एकता कायम रहे।

भारत की विविधता में एकता उसकी असली पहचान है। विभिन्न भाषा, धर्म, संस्कृति और परंपराओं के बावजूद भारत की पहचान उसकी आत्मा, संस्कृति और पूर्वजों के प्रति सम्मान में निहित है। संघ का उद्देश्य इस एकता को बनाए रखना और समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इसमें सहभागी बनाना है। संघ का कार्य व्यक्ति निर्माण, समाज उत्थान और राष्ट्र निर्माण तीनों स्तरों पर कार्य करता है।

संघ के माध्यम से समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को मजबूत किया जा रहा है। संघ कार्यकर्ताओं के माध्यम से समाज में अनुशासन, समर्पण और सेवा भाव का संचार करता है। संघ का उद्देश्य केवल स्वयंसेवकों तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज के प्रत्येक वर्ग तक इसका प्रभाव पहुँचना है। संघ की कार्यशैली में व्यक्तिगत प्रयास और संगठनात्मक दृष्टि का संतुलन बना रहता है। संघ का लक्ष्य यह है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को समझे और राष्ट्र निर्माण में योगदान करे।

व्याख्यानमाला ने संघ की स्थापना, हिन्दू शब्द के अर्थ, संगठनात्मक दृष्टि, समाज सेवा और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पर स्पष्ट प्रकाश डाला। संघ का उद्देश्य किसी के विरोध में नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के उत्थान में योगदान देना है। संघ की कार्यशैली, व्यक्तिगत समर्पण और संगठनात्मक दृष्टि समाज के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।

इस प्रकार, संघ शताब्दी वर्ष की यह व्याख्यानमाला समाज में संघ की भूमिका, उसकी कार्यप्रणाली और उद्देश्य को समझने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करती है। यह स्पष्ट करती है कि संघ का उद्देश्य केवल संगठन तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज के समग्र उत्थान और राष्ट्र निर्माण में योगदान देना है। संघ का कार्य व्यक्तिगत समर्पण, अनुशासन और सामाजिक जिम्मेदारी के माध्यम से समाज को संगठित करना है।