डॉ नीलम महेंद्र
बीते दौर में किसी शायर ने कहा था कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। लेकिन आज की परिस्थितियों में तो लगता है कि बात निकलेगी तो हिंसा तक जाएगी। टीवी डिबेट में किसी राजनैतिक दल की एक कार्यकर्ता द्वारा सामने वाले पैनलिस्ट की बात के प्रत्यत्तर में कहे गए वचन देश के कुछ हिस्सों में हिंसा का कारण बन जाएंगे ये अपने आप में बेहद चिंताजनक विषय है।
पहले कानपुर फिर उत्तरप्रदेश के प्रयागराज सहारनपुर देवबंद हाथरस जैसी जगहों से लेकर रांची और हावड़ा में जुम्मे की नमाज के बाद पत्थरबाजी की ताजा घटनाएं स्थिति की संवेदनशीलता दर्शा रही है। स्थिति इसलिए भी गम्भीर हैं क्योंकि हिंसा की ये अधिकतर घटनाएं देश के उस प्रदेश में हुई हैं जिस प्रदेश की सरकार असामाजिक तत्वों के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाए हुए है।
बुलडोजर वहाँ के मुख्यमंत्री की पहचान बन चुकी है। जिस प्रदेश में कभी गुंडाराज और माफिया के डर के साए में रहने को आम जनता मजबूर थी उस प्रदेश में अब अपराधी डर के कारण अंडरग्राउंड हो जाने को विवश हैं। लेकिन आज उसी प्रदेश में बच्चे पत्थर फेंक रहे हैं? क्या ये साधारण बात है? छोटे छोटे बच्चों के हाथों में पत्थर थमा कर उन्हें ढाल बनाने वाले ये लोग कौन हैं? क्या सरकार का डर खत्म हो गया? क्या वे नहीं जानते कि सरकार कठोर कार्यवाही करेगी? सोशल मीडिया में तो लोग यहां तक कहने लगे हैं कि शक्रवार को पत्थरबाजी का दिन और शनिवार को बुलडोजर का दिन घोषित कर दिया जाना चाहिए। लेकिन फिर भी इन लोगों के हौंसले बुलंद हैं। इसे क्या समझा जाए?
दरअसल पिछले कुछ समय से देश को अस्थिर करने के प्रयास लगातार हो रहे हैं। पहले शाहीनबाग फिर दिल्ली दंगे किसान आंदोलन और अब उत्तरप्रदेश के कानपुर प्रयागराज जैसे शहर। इन सभी जगह विरोध का एक ही स्वरूप जिसमें आपने ही देश के नागरिकों और सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंके जाते हैं। उत्तरप्रदेश की हाल की हिंसा में तो भीड़ के द्वारा आईजी व एएसपी समेत कई पुलिस कर्मियों और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों तक को पत्थरों से घायल कर दिया गया।
इससे पहले 26 जनवरी के दिल्ली दंगो में भी ऐसा ही हुआ था। उस समय भी दिल्ली पुलिस और सुरक्षा बलों के अनेक कर्मी गायल हुए थे। इतना ही नहीं इस हिंसा के दौरान अनेक सरकारी और निजी वाहनों को भी आग लगा दी गई। खास बात यह है कि इन सभी विरोध प्रदर्शनों में सिर्फ इतनी ही समानता नहीं है। एक समानता यह भी है कि भले ही इस प्रकार की घटनाएं स्थानीय स्तर पर एक प्रदेश के कुछ हिस्सों में या फिर देश के कुछ इलाकों में ही होती हों लेकिन इनका प्रचार सिर्फ स्थानीय स्तर पर सीमित नहीं रहता बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर हो जाता है। और फिर शुरू होती है भारत में मानवाधिकारों के हनन और अल्पसंख्यक समुदाय पर अत्याचार जैसे मुद्दों पर बहस।
कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सब से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर क्या असर होता है और इससे उसकी अन्य देशों के साथ भविष्य की योजनाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार से इस ताज़ा मामले में लगभग 15 मुस्लिम देशों ने भारत सरकार से नाराजगी जताई कि थी वो भारत के लिए अपने आप में एक संवेदनशील विषय बन गया था। लेकिन इन विषम परिस्थितियों में भी यह भारत की कूटनीतिक जीत ही कही जाएगी कि इस सब के बावजूद भारत के इन देशों के साथ सम्बन्धों पर कोई असर नहीं पड़ा।
सरकार तो खैर अपना काम कर रही है।
अंतराष्ट्रीय मंचो के साथ साथ घरेलू मोर्चे पर भी वो कदम साध कर चल रही है क्योंकि वो राजनीति और कूटनीति दोनों समझती है। लेकिन वो बच्चा जिसके हाथों में पेन की जगह पत्थर पकड़ा दिए गए वो राजनीति और कूटनीति तो छोड़िए अपना खुद का अच्छा बुरा भी नहीं समझता। इन बच्चों की छोड़िए इससे पहले सीएए के विरोध प्रदर्शन में शामिल अधिकतर लोग उस कानून के बारे में नहीं जानते थे, किसान आंदोलन में अधिकांश किसान उन कानूनों को नहीं समझते थे लेकिन इन तथाकथित “काले कानूनों” के विरोध के सड़कों पर थे। कहने का मतलब यह है कि देश विरोधी ताकतों के लिए इस देश की भोली भाली जनता उनका हथियार है, कभी किसानों के रूप में तो कभी बच्चों के रूप में कभी विद्यार्थियों के रूप में तो कभी समुदाय विशेष के रूप में। मुस्लिम समुदाय तो देश की आज़ादी से लेकर आज तक किसी भी राजनैतिक दल के एक वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं रहा।
लेकिन अब समय आ गया है कि जुम्मे की नमाज के बाद देश के विभिन्न स्थानों पर हुई हिंसक घटनाओं के बाद देश के पढ़े लिखे मुस्लिम समुदाय के लोग आगे आएं और इस प्रकार की घटनाओं के पीछे की राजनीति को बेनकाब करें ताकि देश का मुसलमान देश विरोधी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन कर देश को कमजोर करने के बजाए देश का मजबूत स्तम्भ बने। आखिर हमें यह याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र और देश का संविधान देश के नागरिकों को विरोध करने का अधिकार देता है तो देश की अखंडता एवं संप्रभुता की रक्षा करने का उत्तरदायित्व भी देता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अधिकार सीमित तथा दायित्वों के अधीन होते हैं। अधिकार असीमित और निरंकुश नहीं हो सकते। दअरसल अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन-2020 में अधिकारों और कर्त्तव्यों के विषय पर चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का भी मत था कि लोगों द्वारा कर्त्तव्यों का निर्वाह किये बिना सिर्फ अधिकारों की मांग करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। मूल कर्त्तव्य नागरिकों को नैतिक उत्तरदायित्व का बोध कराते हैं। अधिकार एवं कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसलिए आवश्यक है कि हमें संविधान द्वारा प्रदत्त विरोध के अधिकार का प्रयोग करें तो वो संविधान में वर्णित हमारे कर्तव्यों में बाधा न डाले। इससे पहले कि देश विरोधी ताकतें अपने मनसूबों में कामयाब हो जाएं , अपनी सुविधानुसार संविधान का उपयोग करने के इस को चलन कठोर कदम उठाकर रोकना होगा।
लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।