नरेंद्र तिवारी
एमपी की मोहन यादव सरकार को 13 दिसंबर को सालभर पूर्ण हो जाएगा। बीते वर्ष की इसी तारीख को भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने एमपी में उज्जैन के विधायक मोहन यादव को प्रदेश के मुख्यमंत्री का दायित्व सौंपा था। अब जबकि मोहन यादव की सरकार को सालभर हुआ जाता है। यह जानना बहुत जरूरी हो जाता है कि मोहन यादव के नेतृत्व में प्रदेश की सरकार कैसा काम कर रही है। इस लिहाज से प्रदेश की भाजपा सरकार के कामकाज की समीक्षा होना चाहिए। यह समीक्षा खुद सरकार ने भी कराना चाहिए और केंद्रीय नेतृत्व ने भी कराना चाहिए, ताकि प्रदेश की जनता का हाल क्या है, यह जाना जा सके। वैसे किसी भी राज्य सरकार के कामकाज की समीक्षा का कोई निश्चित और निर्धारित पैमाना नहीं है। राजनीति के लिहाज से तो सरकार के कामकाज की समीक्षा करना बहुत ही कठिन है, याने आप सत्ताधारी दल में है तो आपको आपकी सरकार के हर कार्य की तारीफ करना ही है। फिर चाहे उस कार्य या योजना से जनता को लाभ मिल रहा है या नहीं, इसके उलट आप विपक्षी दल है तो आपको आलोचनाओं का सहारा लेना होता है। सरकार के अच्छे कार्यों को जो जनता के लिए लाभकारी है, या प्रदेश की खुशहाली और बेहतरी में सहायक है तब भी आलोचना ही करना पड़ती है। आजकल राजनीति के कारखाने में ऐसे नेताओं का निर्माण बंद हो गया जो अपनी ही सरकार की आलोचना कर दे या जो विपक्ष में रहते हुए भी सरकार के कामकाज की तारीफ कर सके। कुलमिलाकर राज्य सरकारों के कामकाज की समीक्षा का हाल टीवी पर चलती पार्टी प्रवक्ताओं की अंतहीन और बेनतीजा बहस की तरह ही दिखाई पड़ता है। सरकार के कामकाज की असली समीक्षक राज्य की जनता है। जो चुनाव के माध्यम से राज्य सरकार के कामकाज पर अपनी मोहर लगाती है। महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति की प्रचंड विजयी राज्य की सत्ताधारी सरकार के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के कामकाज पर जनता की मोहर है। झारखंड राज्य में हेमंत सोरेन की वापसी राज्य की जनता का मुख्यमंत्री के कामकाज को आशीर्वाद प्रदान करना ही माना जाएगा। सरकार के कामकाज की असली समीक्षक प्रदेश की जनता है। इस लिहाज से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के कामकाज की समीक्षा को एमपी के दो विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचनाव के परिणामों से जोड़कर देखा जा रहा है। वैसे इतने बड़े प्रदेश में जहां 230 विधानसभा की सीटें हो महज दो विधानसभाओं के नतीजे को सरकार के मूल्यांकन का आधार बनाना न्यायसंगत तो नहीं माना जा सकता किन्तु एक नजरिया तो पेश किया ही जा सकता है। मध्यप्रदेश में दो विधानसभा में उपचुनाव हुआ एक बुधनी जो प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, वर्तमान में केंदीय कृषि मंत्री, राष्ट्रीय राजनीति में मध्यप्रदेश का प्रमुख चेहरा शिवराजसिंह चौहान के सांसद बन जाने से खाली हुई। दूसरी रामनिवास रावत के कांग्रेस से भाजपा में शामिल होने से रिक्त हुई विजयपुर विधानसभा जिन्हें भाजपा में शामिल होने पर सरकार में वन मंत्री बनाया गया। इन दो सीटों पर हुआ चुनाव भाजपा की प्रदेश सरकार के कामकाज पर जनता की मोहर है। पहले बुधनी की बात कर लेते है। यह विधानसभा भाजपा का गढ़ कही जाती है। अब तक 17 चुनावों में 11 बार भाजपा तो मात्र 6 बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की है। 13 नवंबर 2024 को हुए उपचुनाव में यहां भाजपा के रमाकांत भार्गव और कांग्रेस के राजकुमार पटेल के मध्य मुकाबले में भाजपा ने इस सीट पर 13848 मतों के अंतर से जीत दर्ज की है। यह अंतर विधानसभा चुनाव 2023 के मुकाबले काफी कम है। बुधनी से शिवराज चौहान ने एक लाख से अधिक मतों से विजय दर्ज की थी। उसके मुकाबले यह विजय बेहद कमजोर है। बुधनी में सरकार के कामकाज से जनता की नाखुशी जाहिर होती दिख रही है।
उपचुनाव श्योपुर जिले की विजयपुर विधानसभा में भी हुआ जहां के परिणाम ने प्रदेश की सरकार और मुखिया मोहन यादव के कामकाज से नाराजी व्यक्त की है। यहां हुए चुनाव में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए रामनिवास रावत को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया था। कांग्रेस ने मुकेश मल्होत्रा पर दांव खेला था। रामनिवास रावत जो भाजपा की सरकार में मंत्री बना दिए गए थै। चुनावी रण में कांग्रेस उम्मीदवार से 7000 मतों से पराजित हो गए। आमतौर पर माना जाता है कि उपचुनाव में सत्ताधारी दल के विजय रहने की संभावना बहुत अधिक रहती है। विजयपुर में भाजपा का पराजित होना सरकार की नीतियों योजनाओं से क्षेत्र की नाराजी के तौर पर देखा जा रहा है। विजयपुर में भाजपा की हार और बुधनी में जीत के अंतर का कम होने का अर्थ सरकार के कामकाज से नाराजगी के रूप में देखा जा रहा है। 2023 में मध्यप्रदेश में प्रचंड जीत के बाद केंद्रीय नेतृत्व ने प्रदेश के मुखिया के रूप में शिवराज सिंह चौहान को बदलकर नए चेहरे के रूप में मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया भाजपा का यह प्रयोग प्रदेश की जनता को भी अचंभित करने वाला माना गया था। अब जबकि प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर मोहन यादव को एक वर्ष का समय होने जा रहा है। एक सरकार के लिए सालभर का समय यूं तो कम है। उपचुनाव में प्राप्त मिलीजुली सफलता को सरकार के मुखिया के कामकाज के मूल्यांकन का आधार माना जा सकता है। किन्तु यह भी तो माना जाएगा कि मोहन यादव के नेतृत्व हुए लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में भाजपा ने क्लीन स्विप करते हुए 29 लोकसभा सीट पर जीत का परचम लहराया था। अपने वर्षभर के कार्यकाल में बतौर मुख्यमंत्री मोहन यादव ने सक्रियता दिखाई है। उनके मुखिया रहते ही धार्मिक स्थलों से बजने वाले तेज साउंड को रोकने का दृढ़ फैसला लिया गया। इस निर्णय को लागू भी कराया गया। उनका यह निर्णय जनसामान्य को राहत देने वाला माना गया है। प्रदेश की सीमाओं पर परिवहन जांच चौकियों को बंद किए जाने का निर्णय भी बढ़ते भ्रष्टाचार को रोकने का कारगर उपाय माना जा रहा है। मुख्यमंत्री के तौर पर मोहन यादव की सालभर गणना के अनेकों आधार हो सकते है। उपचुनाव में भाजपा को विजयपुर में मिली असफलता और बुधनी में पूर्व के अंतर को कायम न रख पाना विधानसभा की अंदरूनी राजनीति का परिणाम भी माना जा सकता है। एक मुख्यमंत्री के तौर पर अब तक अच्छे प्रशासक सिद्ध हुए है। आगे आने वाले समय में उन्हें प्रशासनिक कसावट लाने की आवश्यकता है। प्रदेश में बढ़ती बेरोजगारी चिंता का सबब है। आयुष्मान योजना में निजी चिकित्सालयों में पनप रहा भ्रष्टाचार जनता की परेशानी बढ़ाने वाला है। खनन, शराब और राशन माफियाओं पर सख्ती की आवश्यकता है। सरकारी कर्मियों की जनता तक पहुंच कम हुई है। एक मुखिया के तौर पर मोहन यादव की शिवराज से तुलना करना न्यायसंगत नहीं होगा। शिवराज लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के बाद जनता के चहेते बन पाए थै। कुछ कमी के बावजूद भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के कामकाज को संतुष्टिपूर्ण कहा जा सकता है।