हार के असल कारणों से कतरा कर हो रही है समीक्षा बैठकें

Review meetings are being held while avoiding the real reasons for the defeat

सुशील दीक्षित ‘विचित्र’

बिहार चुनाव के दो हफ्ते से अधिक समय मुट्ठी से सरक जाने के बाद भी कांग्रेस में हार के कारणों पर मंथन जारी है। शायद यह मंथन अगले वर्ष अर्थात पांच राज्यों के होने वाले चुनावों तक चलेगा, लेकिन इस मंथन से कोई नवनीत निकलेगा इसकी संभावना नकारात्मक बताई जा रही है। मंथन के दौरान जिस तरह असल कारणों के आसपास फटकने से भी परहेज किया जा रहा है उसी से स्पष्ट है कि अपनी भारी पराजय से कांग्रेस कोई सबक नहीं ले सकेगी। वह भी तब जबकि हिंदी पट्टी और पूर्वोत्तर भारत में कांग्रेस हासिये से भी बाहर होने की स्थति में आ गई है। अभी भी वह कभी ईवीएम में खोंट बताती है, कभी मतों में हेरफेर का आरोप लगाती है, कभी चुनाव आयोग को अपनी हार का जिम्मेदार ठहराती है। एक आध पदाधिकारी असली कारणों की ओर इशारा करते भी हैं, तो उनकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता।

कांग्रेस की अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, केसी वेणुगोपालन जैसे शीर्ष नेताओं, सत्तर उम्मीदवारों और विधायकों की कई दौर की समीक्षा बैठकें चलीं, जिनमें इन सबने मिलकर, जो हार के कारण ढूंढे उनमें से एक वही कारण था, जिसके सिर पर हार ठींकरा फोड़ने के लिए वोट अधिकार यात्रा निकाली गई थी यानी की एसएआर। एक ऐसी ही मंथन बैठक के बाद किसी वेणुगोपालन ने पत्रकारों को बताया कि बिहार का जनादेश वास्तविक नहीं है, बल्कि बड़े पैमाने पर प्रबंधित और मनगढ़ंत परिणाम है। ऐसा ईवीएम और एसएआर के दुरूपयोग से हुआ। समीक्षा बैठकों से जो ख़बरे छनछन कर आ रही हैं, उनमें से एक यह भी है कि कई वरिष्ठ पदाधिकारियों ने कहा कि महंगाई भ्रष्टाचार, पलायन और स्थानीय मुद्दों की उपेक्षा करके लगभग पूरा ध्यान वोट चोरी और एसएआर जैसे मुद्दों पर दिया गया। मतलब यह बिहार के बड़े नेता समझ रहे हैं कि पार्टी कैसी डूबी, लेकिन पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इसकी अनदेखी कर उन कारणों को तलाश रहा हैस जो अपनी आभा पहले ही खो चुके हैं। चुनाव आयोग में खोंट निकालते-निकालते छह प्रतिशत से कुछ अधिक मत पाकर छह विधायक जिताने वाली कांग्रेस बिहार में अब तक की सबसे बुरी स्थिति में पहुंच गई। शीर्ष नेतृत्व यह समझने के लिए तैयार ही नहीं है कि खोंट चुनाव आयोग या ज्ञानेश कुमार में नहीं था खोंट उनकी खराब रणनीति में थी। बैठक में स्थानीय पदाधिकारियों का मानना था कि जिस जातीय गणना के मुद्दे को राहुल गांधी हथियार मान रहे थे, वह चुनाव में बैकफायर कर गया। जीते सवर्ण प्रत्याशियों की संख्या जनसंख्या में हिस्सेदारी से अधिक है। यही स्थिति ओबीसी कैडर की है। वैशाली के कांग्रेसी प्रत्याशी संजीव सिंह ने बाहरी पत्याशियों को टिकट देने का मुद्दा उठाते हुए साफ-साफ कहा कि जिस तरह सीटों का बंटवारा हुआ पार्टी की हार उसी दिन तय हो गई थी।

यह हार के कारणों का महत्वपूर्ण हिस्सा था। सीटों का गलत बंटवारा और उस गलत बंटवारे में भी देरी होने का भी खराब पड़ा। बैठक में इसकी समीक्षा होनी चाहिए थे, लेकिन संजीव सिंह को डरा धमकाकर चुपकर दिया गया, जबकि बैठक में राहुल गांधी भी थे और खड़गे भी। अब सवाल यह है कि जब असल कारणों की जांच ही नहीं होनी थी, समीक्षा की निर्णय पहले ही तय कर लिए गए हो, तो फिर समीक्षा बैठक का मतलब क्या हुआ? इसका महत्व क्या रहा? क्या यह एक तरह से नूराकुश्ती नहीं हुई, जिसके परिणाम पहले से ही तय होते हैं? बिहार में क्या कांग्रेस और क्या गठबंधन के बांकी दलों के हार के कारणों का किसे नहीं पता? किसे नहीं पता कि 94 चुनाव हार चुकी कांग्रेस बिहार में एक चुनाव हारकर 95 पर कैसे पहुंच गई।

किसी भी दल की नियति दो बिंदुओं से तय होती है। एक उसका नेतृत्व कैसे है और दूसरा उसका जमीनी कार्यकर्ताओं का कैडर कितना मजबूत है। यही दो स्तंभ पार्टी को आगे बढ़ा सकती हैं और पीछे धकेल भी सकती हैं। कमजोर या दिशाहीन नेतृत्व किसी भी पार्टी के किसी भी काम का नहीं। अगर बारीकी से देखें, तो पाएंगे की कांग्रेस के पास दोनों का ही नितांत अभाव है। शीर्ष नेतृत्व में जमीन से जुड़े नेता नहीं है और जिनके हाथ में पार्टी की असल डोर है वह कोई चमत्कार न कर पा रहें हैं और न करने की संभावना लगती है। इसलिए और भी नहीं लगती कि बिहार की हार की समीक्षा बैठक में वैसे ही हर बिंदु गायब हैं, जो हार के असल कारण माने जा रहे हैं। आरोपों की दम पर समझा जा रहा है कि वे जनता को संतुष्ट कर देंगे और जनता मान लेगी कि बिहार का चुनाव ईवीएम और चुनाव आयोग ने हराया। एसएआर ने हराया।

सारे हालातों को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस ने बिहार में असफल हो चुके मुद्दों से परहेज नहीं किया, तो इसी वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसका अस्तित्व और भी अधिक संकट में पड़ सकता। तमिलनाडु में भले ही उसके गठबंधन वाली सरकार हो, लेकिन इससे उसको चुनौतियां किसी भी राज्य में काम नहीं हो जाएंगी। संकट से पार पाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व को नकारात्मक मुद्दों के स्थान पर जनता के मुद्दे उठाने होंगे। राज्यों के स्थानीय मुद्दों पर बात करनी होगी अन्यथा डिजिटल युग में वोट चोरी जैसे मुद्दे यूंही बैकफायर करते रह सकते हैं।