7 वर्ष की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में कूदे थे क्रांतिकारी अमर शहीद हेमू कालाणी

Revolutionary Amar Shaheed Hemu Kalani jumped into the freedom struggle at the age of 7

अशोक भाटिया

देश की आजादी में सिंधियों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। विभाजन के बाद, सिंधी समुदाय ने न केवल अपनी पहचान बनाए रखी, बल्कि भारत के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सिंधी समुदाय के कई सदस्यों ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया और देश के लिए बलिदान दिया। आजादी की लड़ाई में भारत के सभी प्रदेशो का योगदान रहा। अंग्रेजो को भारत से भगा कर देश को जिन वन्दनीय वीरो ने आजाद कराया उनमे सबसे कम उम्र के बालक क्रांतिकारी अमर शहीद हेमू कालाणी को भारत देश कभी नही भुला पायेगा। हेमू कालाणी सिन्ध के सख्खर में 23 मार्च सन 1923 में जन्में थे।

उनके पिताजी का नाम पेसूमल कालाणी एवं उनकी मां का नाम जेठी बाई था।हेमू बचपन से साहसी तथा विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहे। हेमू कालाणी जब मात्र 7 वर्ष के थे तब वह तिरंगा लेकर अंग्रेजो की बस्ती में अपने दोस्तों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों का नेतृत्व करते थे। 1942 में 19 वर्षीय किशोर क्रांतिकारी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ नारे के साथ अपनी टोली के साथ सिंध प्रदेश में तहलका मचा दिया था और उसके उत्साह को देखकर प्रत्येक सिंधवासी में जोश आ गया था।

बताया जाता है कि जब वह मात्र सात वर्ष के थे, तभी तिरंगा लेकर अंग्रेजों की बस्ती में चले जाते थे और अपने मित्रों के साथ निर्भीक होकर सभाएं करते थे। वह पढ़ाई-लिखाई में अच्छे होने के अलावा अच्छे तैराक तथा धावक भी थे। वह तैराकी में कई बार पुरस्कृत हुए थे। आठ अगस्त,1942 को गांधी जी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ तथा ‘करो या मरो’ का नारा दिया।

गांधी जी का कहना था कि या तो स्वतंत्रता लेंगे या फिर जान दे देंगे। अंग्रेजों को जाना ही होगा। इससे देश की जनता अंग्रेजों के विरुद्ध उद्वेलित हो गई थी और क्रांतिकारी गतिविधियां तेज हो गई थीं। फलत: ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों का दमन करने लगी। सिंध प्रांत में जब यह आंदोलन तीव्र हुआ तो किशोरों व नवयुवकों के साथ हेमू कालाणी भी ‘स्वराज सेना’ के जरिए मुख्य भूमिका में इससे जुड़ गए।8 अगस्त 1942 को गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत छोडो आन्दोलन तथा करो या मरो का नारा दिया। इससे पूरे देश का वातावरण एकदम गर्म हो गया। गांधी जी का कहना था कि या तो स्वतंत्रता प्राप्त करेंगे या इसके लिए जान दे देंगे। अंग्रेजों को भारत छोड कर जाना ही होगा। जनता तथा ब्रिटिश सरकार के बीच लडाई तेज हो गई। अधिकांश कांग्रेसी नेता पकड पकड कर जेल में डाल दिए गए। इससे छात्रों,किसानों,मजदूरों,आदमी,औरतों व अनेक कर्मचारियों ने आन्दोलन की कमान स्वयं सम्हाल ली।

पुलिस स्टेशन,पोस्ट आफिस,रेलवे स्टेशन आदि पर आक्रमण प्रारंभ हो गए। जगह जगह आगजनी की घटनाएं होने लगी। गोली और गिरफ्तारी के दम पर आंदोलन को काबू में लाने की कोशिश होने लगी। हेमू कालानी सर्वगुण संपन्न व होनहार बालक था,जो जीवन के प्रारंभ से ही पढाई लिखाई के अलावा अच्छा तैराक,तीव्र साईकिल चालक तथा अच्छा धावक भी था। वह तैराकी में कई बार पुरस्कृत हुआ था। सिंध प्रान्त में भी तीव्र आन्दोलन उठ खडा हुआ तो इस वीर युवा ने आंदोलन में बढ चढकर हिस्सा लिया।

हेमू ने ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ नारे के साथ सिंधवासी में जोश और स्वाभिमान भर दिया। वे विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार एवं स्वदेशी अपनाने का स्वावलंबन सूत्र भी देशवासियों को दे रहे थे। विदेशी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेकर वह स्वतंत्रता आंदोलन की सक्रिय गतिविधियों में शामिल हो गए। हेमू समस्त विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने के लिए लोगो से अनुरोध किया करते थे। शीघ्र ही सक्रिय क्रान्तिकारी गतिविधियों में शामिल होकर उन्होंने हुकुमत को उखाड़ फेंकने के संकल्प के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रियाकलापों में भाग लेना शूरू कर दिया। अत्याचारी फिरंगी सरकार के खिलाफ छापामार गतिविधियों एवं उनके वाहनों को जलाने में हेमू सदा अपने साथियों का नेतृत्व करते थे।

एक दिन गोपनीय सूत्रों से सिंध के क्रांतिकारियों को जानकारी मिली कि बलूचिस्तान में चल रहे उग्र आंदोलन को कुचलने के लिए 23 अक्टूबर,1942 की रात अंग्रेज सैनिकों, हथियारों व बारूद से भरी रेलगाड़ी सिंध के रोहिणी स्टेशन से रवाना होकर सक्खर शहर से गुजरती हुई बलूचिस्तान के क्वेटा नगर जाएगी। यह समाचार सुनकर सक्खर के 19 वर्षीय छात्र हेमू कालाणी ने रेलगाड़ी को गिराने का दायित्व अपने ऊपर लिया,जिसमें उनके साथ दो सहयोगी नंद और किशन भी थे। रेलगाड़ी गुजरने से पहले ही तीनों नवयुवक एक सुनसान स्थल पर पहुंचे।

हेमू कालाणी ने रिंच और हथौड़े की सहायता से रेल की पटरियों की फिशप्लेटों को उखाड़ना शुरू कर दिया। अन्य दो साथी निगरानी कर रहे थे। रात की निस्तब्धता में हथौड़ा चलाने की आवाजें दूर तक जा रही थीं। उसे सुनकर दूर गश्त कर रहे सिपाही दौड़कर आए। नंद और किशन तो वहां से भाग कर छिप गए,मगर हेमू कालाणी को उन्होंने पकड़ लिया। जेल में लाकर उन पर कोड़े बरसाए गए और उनसे दो सहयोगियों का नाम पूछा गया।

हेमू का हर बार यही उत्तर होता था, ‘मेरे दो साथी थे—रिंच और हथौड़ा।’ सक्खर की मार्शल ला कोर्ट ने देशद्रोह के अपराध में 19 वर्ष कुछ माह होने के कारण हेमू कालाणी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। अनुमोदन के लिए निर्णय हैदराबाद (सिंध) स्थित सेना मुख्यालय के प्रमुख अधिकारी कर्नल रिचर्डसन के पास भेजा गया। ब्रिटिशराज का खतरनाक शत्रु करार देते हुए कर्नल रिचर्डसन ने हेमू कालाणी की सजा को फांसी में बदल दिया। फाँसी के दिन, हेमू से पूछा गया कि क्या उनकी कोई आखिरी इच्छा है, तो उन्होंने जवाब दिया कि वे नारे लगाते हुए फाँसी की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहते हैं और चाहते हैं कि वहाँ मौजूद सरकारी अधिकारी भी इन नारों का जवाब ज़ोर से दें। हेमू के भाई के अनुसार, हेमू ने फाँसी के फंदे की ओर बढ़ते हुए “इंकलाब ज़िंदाबाद”, “यूनियन जैक मुर्दाबाद” और “वंदे मातरम” के नारे लगाए। 21 जनवरी, 1943 को प्रात: सात बजकर 55 मिनट पर हेमू कालाणी को फांसी पर लटकाया गया था ।बताया जाता है कि हेमू ने ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हुए खुद अपने हाथों से फंदा गले में डाला,मानो फूलों की माला पहन रहे हों। मात्र 19 वर्ष की आयु में अमर शहीद हेमू कालाणी का प्राणोत्सर्ग सदैव याद रखा जाएगा।

हेमू कालाणी को भारत सरकार ने शहीद का दर्जा दिया और 1983 में उनके 60वें जन्मदिन और फांसी के 40 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया। गर्व की बात है कि अमर शहीद हेमू कालाणी की याद में भारत सरकार की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1984 में डाक टिकट जारी की। उन्हें “सिंध का भगत सिंह” भी कहा जाता है । डाक टिकट के अनावरण समारोह में, हेमू की माँ जेठी बाई, भगत सिंह की माँ के साथ बैठी थीं, जो दो क्रांतिकारियों की माताओं के बीच एक बेहद मार्मिक बातचीत साबित हुई। भारत के अखबारों ने दोनों महिलाओं की एक तस्वीर प्रकाशित की, जिसका शीर्षक था, “सिंध माता और पंजाब माता।” सूमरो की हेमू के भाई से हुई बातचीत के अनुसार, भगत सिंह की माँ ने जेठी बाई से कहा, “आपका बेटा मेरे बेटे से भी महान है क्योंकि उसने अपनी कोमल जवानी मातृभूमि के लिए कुर्बान कर दी।”

21 अगस्त 2003 में सिंधी काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सुरेश केसवानी के अथक प्रयास से भारत के संसद भवन में हेमू कालाणी की आदम कद की प्रतिमा का तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह खुराना, लोकसभा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ राजनेताओं की उपस्थिति में स्थापित की गई। देश की सडकों का नामकरण, धर्मशालाएं, कालोनियां, स्कूल आदि हेमू कालाणी के नाम पर रखे गए। दिल्ली में हेमू कलानी यादगार मंडल की स्थापना की गई और आज यह महिलाओं के लिए एक महाविद्यालय के रूप में कार्य करता है। इसके अतिरिक्त, उल्हासनगर में व मुंबई के चेम्बूर में एक सार्वजनिक चौक का नाम हेमू के नाम पर रखा गया है और भारत के विभिन्न शहरों में एक दर्जन से ज़्यादा सड़कें और शैक्षणिक संस्थान उनके नाम पर हैं।

1943 में, जब नेहरू कराची आए थे , तो उन्होंने विशेष रूप से सुक्कुर का दौरा किया और हेमू की माँ से मिलकर उन्हें सांत्वना दी। सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज के कैप्टन गुरबख्श सिंह ढिल्लों ने जेठी बाई को उनके बेटे के बलिदान के सम्मान में एक स्वर्ण पदक प्रदान किया । लेकिन अफसोस अपने ही जन्मस्थान सुक्कुर ( अब पाकिस्तान ) में उन्हें सार्वजनिक मान्यता नहीं मिल पाई है।अपनी धरती का इतिहास पढ़ते समय, पाकिस्तानियों को हेमू कलानी के कारनामों और सिंध में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतिरोध आंदोलन में उनके योगदान के बारे में नहीं पढ़ाया जाता। यह ऐतिहासिक बहिष्कार हमारे सामूहिक अतीत के कुछ तत्वों को मिटाने की उत्सुकता को भी दर्शाता है। यह प्रवृत्ति हाल ही में पूरी तरह से स्पष्ट हुई जब सुक्कुर में सिंधु नदी के तट पर स्थित हेमू कलानी पार्क का नाम बदलकर अरब विजेता के नाम पर मुहम्मद बिन कासिम पार्क कर दिया गया।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार