
मुनीष भाटिया
भारत विविधताओं और उत्सवों का देश है। यहाँ सालभर अलग-अलग सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक आयोजन होते रहते हैं—त्योहार, मेले, जुलूस,खेल प्रतियोगिता, सामाजिक रैलियां और सांस्कृतिक उत्सव। इन आयोजनों का उद्देश्य समुदायों को जोड़ना, परंपराओं को जीवित रखना और खुशियाँ बाँटना होता है। लेकिन, जब इन खुशियों के बीच यातायात अव्यवस्था, घंटों का जाम, आपातकालीन सेवाओं का ठप होना और आम आदमी का जीवन अस्त-व्यस्त होना शामिल हो जाता है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है—क्या हमने उत्सव और सुविधा के बीच संतुलन बनाने की आदत खो दी है?
त्योहारों के मौसम में सड़कों का नज़ारा अक्सर बदल जाता है। जैसे ही कोई बड़ा पर्व नज़दीक आता है, कुछ लोग सार्वजनिक मार्गों को अपनी निजी जागीर समझने लगते हैं—बिना यह सोचे कि इन रास्तों पर हर वर्ग और हर क्षेत्र के लोग आवागमन करते हैं। यातायात अव्यवस्था का सारा दोष प्रशासन पर डालना आसान है, लेकिन हकीकत यह है कि समस्या में आमजन का असहयोग और लापरवाही भी उतनी ही जिम्मेदार है। पर्व विशेष से एक दिन पहले ही छोटे नगरों से लेकर राज्य मार्गों तक कई–कई किलोमीटर लंबा जाम लग जाता है, जिसमें लोग घंटों फँसकर परेशान होते हैं। यह स्थिति अब इतनी आम हो गई है कि “त्योहार से पहले का जाम” एक तरह की परंपरा जैसा प्रतीत होने लगी है।
छोटे शहरों और कस्बों में तो अतिक्रमण की पुरानी बीमारी यातायात को पूरी तरह पंगु बना देती है। सड़क किनारे दुकानों का फैलाव, ठेले, अवैध पार्किंग, और अस्थायी ढांचे—ये सब मिलकर सड़कों की चौड़ाई निगल जाते हैं। पैदल चलने वालों के लिए जगह नहीं बचती और वाहन रेंगने लगते हैं।कई बार तो यह अतिक्रमण प्रशासन की नाक के नीचे वर्षों से बना रहता है, क्योंकि राजनीतिक दबाव या स्थानीय वोट-बैंक की मजबूरी के कारण सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती। त्योहारों के दौरान यह समस्या कई गुना बढ़ जाती है, क्योंकि भीड़, सजावट और आयोजन के स्टॉल पहले से जाम ग्रस्त सड़कों पर बोझ डाल देते हैं। दरअसल, यह केवल व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक सोच का हिस्सा है। हम सार्वजनिक संसाधनों को अपनी निजी सुविधा की तरह इस्तेमाल करने के आदी हो चुके हैं। वाहन कहीं भी पार्क कर देना, पैदल यात्रियों के लिए जगह न छोड़ना, ट्रैफ़िक सिग्नल तोड़ना और त्योहार के नाम पर सड़कें घेर लेना—ये सब हमारी मानसिकता का हिस्सा बन चुके हैं। यह भूल जाते हैं कि सड़कें केवल गाड़ियां चलाने की जगह नहीं, बल्कि जीवन रेखा हैं—जिन पर निर्भर है आपातकालीन सेवाओं का समय पर पहुंचना, व्यापारिक गतिविधियों को सुचारू संचालन और लाखों लोगों का दैनिक जीवन। त्योहारों में लोग नियमों को “थोड़े समय का अपवाद” मानकर तोड़ते हैं। लेकिन यह “थोड़ा समय” किसी के लिए जीवन-मरण का सवाल भी बन सकता है—जैसे जाम में फंसी एम्बुलेंस, या समय पर परीक्षा केंद्र न पहुँच पाने वाला छात्र।
त्योहारों के दौरान यातायात प्रबंधन की योजना अक्सर अधूरी रहती है। ट्रैफिक डायवर्जन की अग्रिम योजना, भीड़ प्रबंधन, वैकल्पिक मार्गों की जानकारी और समय पर पब्लिक अनाउंसमेंट—ये सब कागज़ पर तो होते हैं, पर जमीनी हकीकत में बहुत कम लागू होते हैं। कई बार तो तैयारी तभी शुरू होती है, जब जाम लग चुका होता है।यह लापरवाही केवल असुविधा तक सीमित नहीं रहती—यह आर्थिक और सामाजिक नुकसान भी करती है। उदाहरण के लिए, लंबा जाम व्यापारियों के लिए बिक्री का नुकसान, दिहाड़ी मजदूर के लिए पूरी कमाई का नुकसान और परिवहन सेवाओं के लिए ईंधन व समय का नुकसान है। साथ ही, आपातकालीन सेवाओं में देरी से गंभीर हादसे या मौत भी हो सकती है।
त्योहार और यातायात के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए केवल एक पक्ष के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं; इसके लिए प्रशासन, आयोजकों और नागरिकों—तीनों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। प्रशासन को चाहिए कि त्योहारों से पहले ट्रैफ़िक प्लानिंग को प्राथमिकता दे, वैकल्पिक मार्ग, डायवर्सन और आपातकालीन वाहनों के लिए ग्रीन कॉरिडोर पहले से तय करे, आयोजन स्थलों के आस-पास से अतिक्रमण हटाए और पार्किंग की स्पष्ट व्यवस्था सुनिश्चित करें, साथ ही भीड़ प्रबंधन के लिए पर्याप्त पुलिस बल और वालंटियर तैनात करे। दूसरी ओर, आयोजकों को अपने आयोजन का रूट, समय और भीड़ का अनुमान प्रशासन के साथ साझा करना चाहिए, जुलूस या शोभायात्रा के लिए उसी समय-सीमा तय करनी चाहिए जो आमजन के यातायात को कम से कम प्रभावित करे, और आयोजन स्थल तक आने-जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए। वहीं नागरिकों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे यातायात नियमों का पालन करें, त्योहार के उत्साह में भीड़भाड़ और अव्यवस्था न फैलाएँ, अपने वाहन केवल निर्धारित स्थानों पर पार्क करें, पैदल यात्रियों और आपातकालीन वाहनों के लिए रास्ता खुला रखें, और दूसरों की सुविधा को अपनी खुशी का अभिन्न हिस्सा मानें।
कई देशों में बड़े-बड़े त्योहार और परेड होते हैं, लेकिन वहाँ पहले से महीनों की योजना बनाई जाती है। उदाहरण के लिए, जापान में किसी भी सार्वजनिक आयोजन से पहले वैकल्पिक मार्गों के नक्शे जनता को उपलब्ध करा दिए जाते हैं और ट्रैफ़िक नियमों का पालन सख्ती से करवाया जाता है। सिंगापुर में, आयोजन स्थलों के पास निजी वाहनों के प्रवेश पर रोक लगाकर केवल सार्वजनिक परिवहन चलाया जाता है। इन देशों में यह मान लिया गया है कि उत्सव का अर्थ सुविधा और अनुशासन के साथ मिलकर ही है।भारत में भी यह संभव है—यदि हम त्योहारों को केवल भावनाओं का नहीं, बल्कि अनुशासन का भी उत्सव मानें। हमें यह समझना होगा कि अगर किसी आयोजन से हजारों लोगों की असुविधा हो रही है, तो उसकी खुशी अधूरी है। त्योहार केवल अपने समुदाय के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए होते हैं, और समाज तभी खुश होता है जब उसमें हर व्यक्ति की सुविधा का ध्यान रखा जाए।
त्योहार हमारी संस्कृति और समाज की धड़कन हैं। ये हमें एक-दूसरे से जोड़ते हैं, रिश्तों को मजबूत करते हैं और जीवन में उल्लास भरते हैं। लेकिन अगर इन खुशियों के साथ यातायात अव्यवस्था, तनाव और असुविधा जुड़ जाए, तो इसका उद्देश्य ही कमजोर पड़ जाता है। समय आ गया है कि हम “उत्सव की आज़ादी” और “दूसरों के अधिकार” के बीच संतुलन बनाना सीखें—वरना ट्रैफ़िक जाम हमारी खुशियों को भी जकड़ लेगा।