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प्रफुल्ल पलसुलेदेसाई
उपन्यास की लेखिका डॉ प्रमिला वर्मा के हाथों में औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से प्रकाशित अखबार में प्रकाशित एक छोटी सी समाचार की कतरन हाथ में आती है कि मेजर रॉबर्ट गिल ब्रिटिश सैन्य अधिकारी को अजंता ग्राम की आदिवासी लड़की पारो अपनी बगिया का काला गुलाब दिया करती थी। और यह प्रसंग धीमे-धीमे प्रेम में बदल जाता है। सिर्फ एक छोटी सी सूचना के आधार पर लेखिका ने इसे महत्वपूर्ण मानकर ,वे इस प्रेम की खोज में अजंता की गुफाओं में जा पहुंची। लेखिका अजंता गांव भी गई और वहां के बुजुर्गों के मुंह से सुनी सुनाई कहानियों के बारे में जानकारी इकट्ठी की।
तब यह प्रश्न सामने था कि रॉबर्ट गिल कौन था ?यहां क्यों आया? वह भी 1844 के आसपास जब वहां दुर्गम पगडंडिया और घने जंगल में चीते ,भेड़िए और अन्य जंगली जानवर घूमते थे ।जहां सूर्यास्त होते ही शाम को रात जैसा अंधेरा छा जाता था। इसी क्यों का उत्तर यह उपन्यास है।
यह उपन्यास की कहानी 1824 से शुरू होकर 1879 तक जाती है।
यह उपन्यास का प्रारंभ डायरेक्टर ऑफ कोर्ट के हस्ताक्षर और मोहर लगे पत्र से होता है।
दिसंबर 1849 में रॉबर्ट गिल को डायरेक्टर ऑफ़ कोर्ट की मोहर लगा लिफाफा मिला ।इतने वर्षों बाद उसे मेजर के पद पर पदोन्नति किया गया था। वह 1824 में कैडेट के रूप में लंदन में सेवा में भर्ती हुआ था। उसके बाद 44 वीं मद्रास नेटिव इन्फेंट्री में उसकी पोस्टिंग हुई थी। वह एच्छिक नियुक्ति पर इंडिया आ गया था। सितंबर 1826 में वह लेफ्टिनेंट बना। फिर 6 मई 1840 को कैप्टन।
अब वह मेजर के पद पर था। और साथ ही विशेष अनुरोध पर रॉबर्ट को अजंता में बौद्ध गुफाओं का एक चित्रमय रिकॉर्ड बनाने के लिए नियुक्त किया जाता है। उसे इन गुफाओं के भित्ति चित्र फोटोग्राफी पेंटिंग रेखा चित्र गुफाओं की मैपिंग और उनका रिकॉर्ड रखने एवं कैटलॉगिंग करने और संबंधित गुफाओं के छायाचित्र भी लंदन भेजने के लिए आदेश दिया गया ।इसके लिए रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने उसे कैमरा प्रदान किया ।गुफाओं के रखरखाव की जिम्मेदारी भी उसी की थी। हैदराबाद के निजाम द्वारा अजंता ग्राम स्थित बारादरी में उसके रहने का प्रबंध किया गया। इस काम के लिए उसे 5 वर्षों का समय दिया जाता है । सेना के मेजर पद के वेतन के साथ उसे ₹200 वार्षिक अतिरिक्त राशि भी दी जाएगी । इसके अलावा चार बैटमैन (सेना में कार्यरत नौकर )भी दिए जाएंगे ।जिनके वेतन की जिम्मेदारी हैदराबाद के निजाम की होगी।
यदि अतिरिक्त कर्मचारियों की जरूरत उसे गुफाओं की साफ सफाई हेतु लगेगी तो यह जिम्मेदारी भी हैदराबाद के निजाम की होगी।
वैसे तो इन गुफाओं की खोज सर जॉन स्मिथ ने 1819 में की थी। सर जॉन स्मिथ ने अब तक इस देश में अनेक रॉक कट मंदिर और ऐसे ही गुफाएं देखी थीं ।उनका अध्ययन किया था, खोज की थी। और अपने लेख तैयार करके ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजे थे ।वे समझ गए थे कि वे कई सौ साल पुरानी तराशी गई गुफा के सामने खड़े थे ।
सर्वप्रथम उनकी नजर जिस केव के ऊपर गई थी ।वह वहीं से वापिस लौटने लगे।
अब वे आज उसी केव के समक्ष खड़े थे। वह उन्हीं की खोज के परिणाम स्वरूप केव नंबर 10 थी।
उन्होंने इस गुफा के सामने वाले स्तंभ पर अपने शिकारी चाकू से ख़रोंच कर लिखा 28 अप्रैल 1819 ‘जॉन स्मिथ’।( 28th April Cavalry1819) उन्होंने दूर तक देख लिया था कि यहां अनेक केव्स हैं और बगैर रास्ता बनाए साफ सफाई करवाए आगे बढ़ पाना मुश्किल है।
जॉन स्मिथ नहीं जानते थे कि इस फॉरेस्ट के बीच में दूसरी से छठवीं शताब्दी के प्राचीन भारतीय कला के मूर्त रूप की खोज एक इतिहास बन जाएगा।
अपना संपूर्ण लेख तैयार करके और केव्स से खरोंचे गए टुकड़े को उन्होंने Sir james alexandraको भिजवाए। जो पुरातत्ववेत्ता थे। और लगातार इसी दिशा में कार्यरत रहे। खबर मिलते ही Sir james alexandra अपनी टीम के साथ यहां आ गए तब तक जॉन स्मिथ मद्रास लौट चुके थे।
1824 में मिलिट्री ऑफिसर और इन्हीं पुरातत्व शोध के लेखक मिस्टर स्कॉटिव यहां आए। उन्हें रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ने सर्वेक्षण के लिए यहां भेजा था। वह पहले पुरातत्ववेत्ता और लेखक थे जिन्होंने अजंता केव्स की पेंटिंग के बारे में प्रकाशित करवाया था। और इसकी सूचना दी थी ।यह आर्टिकल 1829 में transactions of the royal Asiatic society of Great Britain and Ireland में प्रकाशित हुआ।
उनकी इस खोज को उस दौरान एक्सीडेंटल रिसर्च कहकर हंसी भी उड़ाई थी। लेकिन अजंता की खोज का श्रेय सिर्फ जाॅन स्मिथ को ही जाता है।
उपन्यास में सभी केव्स का विस्तृत वर्णन है। उपन्यास में कहानी जब फ्लैशबैक में जाती है उस समय का चित्रण रॉबर्ट के जन्म, उसकी पढ़ाई और सेना में भर्ती होना।लंदन के रहन-सहन आदि का विस्तृत वर्णन है ।
महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रॉबर्ट वहां की बारादरी में रहता है।
अजंता केव्स की चित्रकारी और पेंटिंग के समय Ajintha विलेज की पारो नाम की आदिवासी लड़की से उसका प्रेम हो जाता है। जो आज विश्व प्रसिद्ध प्रेम कहानी में आता है।
मराठी कल्चर (1852)का लेखिका ने बहुत सुंदर वर्णन किया है यह उनके रिसर्च का परिणाम है।
इस अनोखे प्रेम की दास्तान इतिहास में दर्ज हो चुकी है।
लंबे समय तक पेंटिंग करने के बाद जेम्स फर्ग्यूसन उसकी पेंटिंग्स को लंदन लेकर गए।एनी ने उसकी पेंटिंग्स लंदन के इंडियन कोर्ट पैलेस sydenham 1851में एग्जीबिशन लगाई गई तो वहां उसकी पेंटिंग्स में आग लग गई और सिर्फ 6 पेंटिंग बचीं। जो विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय में अभी भी रखी है।
पारो की मृत्यु के पश्चात रॉबर्ट की जिंदगी में एनी आई और उसने रॉबर्ट को इस डिप्रेशन से बाहर निकाला।
रॉबर्ट की कब्र पर भुसावल (महाराष्ट्र) में आज भी हर साल उसकी डेथ एनिवर्सरी मनाई जाती है।
यह एक महत्वपूर्ण उपन्यास है ।जो अंग्रेजी रूल के दौरान इंडिया की स्थिति का विस्तृत वर्णन करता है। और रॉबर्ट की जिंदगी का अभूतपूर्व वर्णन सामने आता है।