प्रो. नीलम महाजन सिंह
भारत की आज़ादी के 78 वर्ष उपरांत भी महिला सशक्तिकरण, बालक-बालिकाओं की सुरक्षा दयनीय स्थिति में है। यह स्पष्ट है कि कानूनों की तो कमी नहीं है, परंतु उनका धरातल पर अनुसरण नहीं किया जाता। यह बात पुलिस, न्याधीश व अन्य संस्थाओं पर भी लागू है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 अगस्त, 2024 को नई दिल्ली में, ‘जिला न्यायपालिका के राष्ट्रीय सम्मेलन’ के उद्घाटन के दौरान, भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ के साथ सभी को आह्वान किया, कि नारी का सम्मान और बाल सुरक्षा गहन चिंता का विषय है। वैसे तो महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते हुए व अनगिनत दुराचारों की संख्या में गहन वृद्धि हुई है। पीएम मोदी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि महिलाओं के ख़िलाफ अपराधों से जुड़े मामलों में जितनी जल्दी फैसले होंगें, देश की आधी आबादी: महिलाओं को उतना ही अधिक आश्वासन मिलेगा। प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी हाल ही में कोलकाता के आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में, रात्रि ड्यूटी पर तैनात एक प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ हुए क्रूर बलात्कार व हत्या के बाद देशभर में हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद आई है। इस विषय पर मुख्य न्यायाधीश ने स्वयंभू नोटिस लिया तथा अस्पताल व बंगाल सरकार को पार्टी बनाया। बहुत शर्म की बात है कि वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कुछ पैसों के लिए, ममता बनर्जी सरकार का प्रतिनिधित्व किया। पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा कि महिलाओं की सुरक्षा व उन्हें न्याय दिलाने के लिए सख्त क़ानून पहले से ही मौजूद हैं और सरकार ने 2019 में फास्ट-ट्रैक कोर्ट की योजना बनाई है। महत्वपूर्ण गवाहों को बिना किसी डर के, गवाही देने के लिए ब्यान केंद्रों और ऐसे संवेदनशील मामलों में कार्रवाई के समन्वय के लिए जिला न्यायाधीश, जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक के साथ जिला समितियों पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। भारतीय न्याय संहिता सहित नए आपराधिक कानूनों की भावना, “नागरिक प्रथम, सम्मान प्रथम व न्याय प्रथम’ होनी चाहिए । न्याय संहिता के पीछे का विचार सिर्फ नागरिकों को दंडित करना नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा वा सुधार करना है। सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में डाक टिकट और सिक्के का अनावरण किया गया। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि जिला न्यायपालिका, न्याय की तलाश में किसी भी नागरिक के लिए पहला संपर्क बिंदु है व यह “न्यायपालिका की रीढ़ की हड्डी है”। वैसे इन ऊंचे मुहावरों का प्रयोग करने से पहले उन्हें दिल्ली ही नहीं, राज्यों की किसी भी ज़िला न्यायालय का दौरा कर, आम जनता का हाल देखना चाहिए। “तारीख़ पे तारीख तो मिलती है पर माइ लॉर्ड न्याय नहीं मिलता,”। इस संबंध में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू पहले ही कह चुकी हैं कि, हमारे देश की न्यायिक व्यव्स्था में सुधार की आवश्यकता है। आम नागरिक कोर्ट-कचहरी जा-जा कर अपना घर, धन दौलत सब कुछ खो बैठता है। इस विषय पर महामहिम राष्ट्रपति ने जस्टिस चंद्रचूड़ को सुधार लाने का आग्रह किया है। अभी तक सर्वोच्च न्यायालय ने क्या किया है? “हमें जिला न्यायपालिका को ‘अधीनस्थ’ न्यायपालिका कहना बंद कर देना चाहिए,” मुख्य न्यायाधीश कहते हैं। आज़ादी के 78 साल बाद, अब समय आ गया है कि हम ब्रिटिश काल की एक और निशानी को दफना दें – अधीनता की औपनिवेशिक मानसिकता, सीजेआई डॉ. धनंजय यशवंत चंद्रचूड ने कहा। यह तो वे अपनी ही न्यायिक प्रणाली के संबंध में कह रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय को निष्कासितजज बी. के. मिश्रा (राउज़ एवेन्यू कोर्ट) जैसे अनगिनत जजों के बारे मे भी कुछ कहना चाहिए। फ़िर पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट की जज निर्मल यादव द्वारा ₹80 लाख की घूस कांड केसे में उन्हें दोषी पाया गया। परंतु वे मात्र गौहाटी उच्च न्यायालय में ट्रांसफ़र कर दीं गईं। क्या यह न्यायपालिका के विषय में यह सही संकेत है? ऐसे अनेक उदाहरण है, माई लॉर्ड! पीएम मोदी के स्वतंत्रता दिवस भाषण में भी ‘महिलाओं के खिलाफ अपराधों की तेज़ी से जांच होनी चाहिए’ का आह्वान हुआ है। “हमें ज़िला न्यायपालिका को ‘अधीनस्थ’ न्यायपालिका कहना बंद कर देना चाहिए। आज़ाद के 78 साल बाद, अब समय आ गया है कि हम ब्रिटिश काल की एक और निशानी को दफना दें – अधीनता की औपनिवेशिक मानसिकता,” मुख्य न्यायाधीश ने कहा। ख़ैर, यह देखना चहिये कि निचली अदालतों में कितने लोगों को न्याय मिलता है? ज़िला न्यायपालिका में अब अनेकों महिलाऐं शामिल हो रहीं हैं। केरल में हुई भर्ती में कुल न्यायिक अधिकारियों में से 72% महिलाएँ हैं। अधिवक्ता कपिल सिब्बल, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन अध्यक्ष ने गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि “ट्रायल कोर्ट और ज़िला अदालतें कुछ महत्वपूर्ण मामलों में ज़मानत देने से कतराती हैं, जो अपने आप में उस बीमारी का लक्षण है जो फैल गई है।” उन्होंने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों पर प्रकाश डाला, जिसमें इस सिद्धांत को बरकरार रखा गया था कि ‘जमानत नियम है व जेल अपवाद है’। वैसे तो हमारे ट्रायल कोर्ट, ज़िला व सत्र न्यायालयों को बिना किसी भय या जोश के न्याय देने के लिए सशक्त बनाने की आवश्यकता है। वे न्याय वितरण प्रणाली की रीढ़ है। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, देश भर के न्यायिक अधिकारी व सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन के अध्यक्ष अधिवक्ता विपिन नायर और अन्य पदाधिकारी मौजूद थे। जस्टिस संजीव खन्ना, जो नवंबर 2024 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनेंगें, ने महत्वपूर्ण और सार्थक बात कही कि हर पौढ़ी पर जज का कार्य न्याय देना है। अधिक से अधिक अवधि में प्रार्थियों को न्याय मिलना चाहिए। सारांशार्थ ये सत्य है कि संसद द्वारा पारित महिलाओं व बच्चों की सुरक्षा के अनेक कानून हैं। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के अश्रु पूर्ण आह्वान, जिसमें न्यायलय में आम जान-मानस को तेज़ी से न्याय मिलने को कहा, को कार्यान्वित नहीं किया गया। न्यायधीशों को महिलाओं व वरिष्ठ नागरिकों पर ऊंचा बोलना, धमकाना या डराना बहुत निंदनीय है। जजों को अपने पर बहुत-बहुत अभिमान होता है। कितनी बार तो अनाप-शनप ऑर्डर पास कर दिए जाते हैं। न्यायपालिका को अपनी गरेबान में झाँक कर देखना चाहिए कि वे वास्तव में कितना समय लगाकर, ‘आरंभिक रीलिफ’ (interim relief) तक भी नहीं देते? ‘कोर्ट की अवमानना’ जैसे काले कानूनों को स्वाह करने का समय आ गया है। फ़िर पीएम नरेंद्र मोदी भी बार-बर कह रहें हैं, कि महिलाओं को सुरक्षा प्रदान की जाए परंतु क्या यह हो रहा है? जस्टिस डा. धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, जिन्हें अँग्रेज़ी मिडिया का ‘नार्थ स्टार’ कहा जाता है, परंतु उनके द्वारा दिए निर्देशों की खुले आम धज्जियां उड़ाई जा रहीं हैं। समय आ गया है कि हर जज साहबन आत्म समीक्ष्य हो कि क्या महिलाओं को वे न्याय दे रहें हैं? आम नागरिक क्यों डरता है, कोर्ट-कचहरी से, यही उसका प्रमाण है कि न्यायपालिका से जनमानस त्रस्त है। ज़रा सोचिए!
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, न्याय शिक्षाविद, सालिसिटर फार ह्यूमन राइट्स व परोपकारक)