संजय सक्सेना
एक तरफ जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मोदी सरकार के बीच दूरियां नजर आ रही हैं,वहीं उसी समय सरसंघचालक मोहन भागवत आज 12 जून को पांच दिवसीय यात्रा पर गोरखपुर पहुंच गये हैं। भागवत यहां संघ के चल रहे कार्यकर्ता विकास वर्ग में वह स्वयंसेवकों को विकास की टिप्स देने का कार्य करेंगे।माना जा रहा है कि इस दौरान मोहन भागवत लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में मिली करारी हार को लेकर भी मंथन कर सकते हैं. हालांकि, अभी ऐसा कोई कार्यक्रम तय नहीं हैं. भागवत 16 जून तक यहां वास करेंगे और कार्यकर्ता विकास कार्यक्रम के अलावा, गोरखपुर के किसी अन्य कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेंगे. 17 जून की सुबह को वह गोरखपुर से रवाना हो जाएंगे। 13 जून दिन गुरुवार को उनका विकास वर्ग में स्वयंसेवकों के बीच संबोधन होगा। संघ के प्रचार अभियान से जुड़े सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार मोहन भागवत कार्यकर्ता विकास वर्ग में, पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में आयोजित हो रहे स्वयंसेवक कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं. यह संघ के ऐसे कार्यकर्ताओं का विकास वर्ग है जिनके ऊपर संघ का कोई दायित्व है।इस दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी संघ प्रमुख से मुलाकात कर सकते हैं।
गोरखपुर में आयोजित आरएसएस विकास का वर्ग कार्यक्रम में पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र के कानपुर, गोरक्ष प्रांत, अवध और काशी प्रांत के कार्यकर्ता शामिल हैं, जिसमें करीब 280 लोग प्रतिभागी कर रहे हैं। सभी प्रतिभागियों का पूरी तरह से यहां ही प्रवास रहेगा। इस दौरान यह किसी से संपर्क में नहीं आ सकते। सरसंघचालक मोहन भागवत अपने 5 दिन के प्रवास के दौरान संघ के पदाधिकारी को संगठन के आगामी कार्य योजनाओं से भी अवगत कराएंगे और उसके संचालन की रणनीति बताएंगे.संघ प्रमुख बनने के बाद मोहन भागवत गोरखपुर में छठवीं बार पधार रहे हैं. पहली बार वह कार्यकारी मंडल की बैठक में गोरखपुर हिस्सा लेने के लिए आए थे. जिसमें देशभर के संघ के पदाधिकारी गोरखपुर में इकट्ठा हुए थे. इसके पहले और पिछली बार उनका 20 मार्च 2022 को गोरक्ष प्रांत के स्वयंसेवकों की बैठक को, संबोधित करने के लिए तीन दिन के लिए गोरखपुर में आना हुआ था. उनका यह ताजा दौरा स्वयंसेवकों को सक्रियता के जरिए संगठन को मजबूती पर लाने का है. इस कार्यक्रम में संघ के क्षेत्र प्रचारक अनिल, प्रांत प्रचारक रमेश और क्षेत्र कार्यवाह वीरेंद्र जायसवाल की भी उपस्थित रहेगी.भागवत का यह दौरा तब हो रहा है जब आरएसएस और बीजेपी एवं मोदी सरकार के बीच कुछ दूरियां नजर आ रही हैं।
गौरतलब हो, लोकसभा चुनाव में करीब आधी सीटों तक सिमटने वाली भाजपा की हार के भले ही कई कारण गिनाए जा रहे हों, पर संघ से दूरी भी एक बड़ी वजह है। संभवतः यह पहला चुनाव है जिसमें भाजपा ने प्रत्याशियों के चयन से लेकर चुनावी रणनीति तैयार करने तक में भी संघ से परामर्श नहीं लिया। लिहाजा संघ ने भी खुद को अपने वैचारिक कार्यक्रमों तक ही समेटे रखा। इसका भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा। यह पहला चुनाव था जिसमें चुनावी प्रबंधन में संघ परिवार और भाजपा में दूरी दिखी। भाजपा ने किसी भी फैसले में उससे परामर्श करने तक की भी जरूरत नहीं समझी। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मौन साध रखा था। आमतौर पर चुनाव में जमीनी प्रबंधन में सहयोग करने वाले संघ के स्वयंसेवक इस चुनाव में शायद ही कहीं दिखे हों। जिलों में न तो संघ और भाजपा की समन्वय समितियां दिखीं और न ही डैमेज कंट्रोल के लिए छोटे-छोटे स्तर पर अमूमन होने वाली संघ परिवार की बैठकें होती नजर आईं। कम मतदान पर लोगों को घर से निकालने वाले समूह भी इस चुनाव में कहीं नहीं दिखे।
सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो संघ ने चुनाव से किनारा कर लिया। संघ से जुड़े कुछ वर्तमान, पूर्व पदाधिकारियों व प्रचारकों के अनुसार इसकी मुख्य वजह भाजपा के एकांगी निर्णय और संघ परिवार के संगठनों के साथ संवादहीनता रही। माना जाता है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के बयान कि भाजपा अब पहले की तुलना में काफी मजबूत हो गई है। इसलिए उसे अब संघ के समर्थन की जरूरत नहीं है, ने भी स्वयंसेवकों उदासीन कर दिया। संघ के एक पूर्व वरिष्ठ पदाधिकारी बताते हैं कि संघ अचानक तटस्थ होकर नहीं बैठा था। संघ से जुड़े सूत्रों के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले परिणामों के बाद आत्ममुग्धता से लबरेज भाजपा ने अपने सियासी फैसलों में संघ परिवार को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था।
भाजपा ने जब संघ परिवार की सलाह की अनदेखी कर एक के बाद एक कई ऐसे फैसले कर डाले, जिनसे संगठन की साख और सरोकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ना लाजिमी था, इसलिए संघ ने भी अपनी भूमिका समेट ली। अयोध्या में श्रीरामलला के प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर भी कुछ मतभेद उभरे।
बात सियासत की कि जाये तो बताया जाता है कि संघ ने उत्तर प्रदेश की कौशांबी, सीतापुर, रायबरेली, कानपुर, बस्ती, अंबेडकरनगर, जौनपुर, प्रतापगढ़ सहित प्रदेश की लगभग 25 सीटों के उम्मीदवारों पर असहमति जताई थी। साथ ही बड़े पैमाने पर दूसरे दलों के लोगों को भाजपा में शामिल करने पर भी नाराजगी वयक्त की थी। जानकारी के मुताबिक, संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने भाजपा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से कहा था कि दूसरे दलों के दागी और अलोकप्रिय चेहरों को शामिल करना उचित नहीं है। इससे गुटबाजी बढ़ रही है। साथ ही संगठन की साख पर भी सवाल उठ रहा है। पर, उसकी सलाह नहीं मानी गई। लिहाजा संघ उदासीन हो गया। संघ से जुड़े सूत्रों का यह भी कहना है कि चुनाव से पहले प्रदेश भाजपा ने कई क्षेत्रीय अध्यक्षों के साथ ही जिलाध्यक्षों की नियुक्ति की थी। इसमें भी संघ परिवार के फीडबैक की अनदेखी की गई। खासतौर से गोरक्ष प्रांत और काशी के क्षेत्रीय अध्यक्ष और कुछ पदाधिकारियों की नियुक्ति को लेकर संघ ने नाराजगी व्यक्त की थी। वाराणसी समेत कई लोकसभा क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत में भारी कमी आने के पीछे पदाधिकारियों की मनमानी नियुक्ति को भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है।
यही नहीं, इस बार के चुनाव भाजपा ने हर लोकसभा क्षेत्र के लिए प्रभारी नियुक्त किया था, जो कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए। इसकी वजह यह बताई जा रही है कि ज्यादातर लोकसभा क्षेत्रों में बाहरी नेताओं को प्रभारी बनाया गया था, जिन्हें न तो संबंधित लोकसभा क्षेत्र की भौगोलिक जानकारी थी और न ही जातीय समीकरण व मुद्दों की। मतदाताओं के बीच भी बाहरी प्रभारियों की कोई पकड़ नहीं थी। लिहाजा तमाम प्रभारियों ने जमीन पर काम करने के बजाय सिर्फ क्षेत्रों में होने वाले बड़े नेताओं के सभाओं में चेहरा दिखाने तक ही खुद को सीमित रखा।
जानकारों का कहना है कि इस बार भाजपा का चुनाव प्रबंधन सिर्फ कागजों पर नजर आया था। संघ भी उदासीन हुआ तो ज्यादातर स्थानों पर न तो भाजपा के वोटरों को निकालने वाले दिखे और न उन्हें समझाने वाले। ज्यादातर मतदान केंद्रों पर 2014, 2019, 2017 और 2022 वाला प्रबंधन नहीं दिखा।यह दूरियां तब बढ़ी हैं जबकि चुनाव की घोषणा के एक साल पहले ही संघ परिवार ने अपने वैचारिक कार्यक्रम के तहत जनता से संवाद शुरू कर दिया था। घोषणा होने तक हर लोकसभा क्षेत्रों में एक-एक लाख बैठकें हो चुकी थीं।संघ के जमीनी कार्यकर्ता 10-20 परिवारों के साथ बैठकें करके मतदाताओं को मतदान के लिए जागरूक करने, सांस्कृतिक और राष्ट्रवाद के एजेंडे पर हुए कार्यों की चर्चा कर माहौल बनाया था, लेकिन भाजपा, संघ के इस कवायद का भी फायदा नहीं उठा पाई। संघ से दूरी बनाने का दुष्परिणाम यह भी रहा कि जमीनी स्तर पर काम करने वाला भाजपा का संगठन भी पूरी तरह से सक्रिय नहीं रहा। माना जा रहा है कि संघ से बेहतर समन्वय नहीं बनने की वजह से भाजपा की अधिकांश बूथ कमेटियां व पन्ना प्रमुख भी निष्क्रिय बैठे रहे। वहीं संघ के स्थानीय कार्यकर्ता निरंतर जनता के बीच काम करते हैं और संगठन से जनता को जोड़ने में उनकी प्रमुख भूमिका होती है। समन्वय नहीं होने की वजह से दोनों तरफ के कार्यकर्ता उदासीन रहे। नतीजा यह हुआ कि तमाम घरों पर परिवारों तक पर्चियां तक नहीं पहुंच पाई।आरएसएस के स्वयं सेवक दबी जुबान से इस बात पर संतोष भी व्यक्त करते हैं कि जिस तरह से बीजेपी और मोदी सरकार ने मनमानी की उसमें ऐसे नजीजे आना स्वभाविक ही था।अब देखना है कि बीजेपी और मोदी सरकार क्या आरएसएस से संबंध सुधारने के लिये कोई बड़ा कदम उठाती है या फिर आत्ममुग्ध रहेगी।