संघ का संजय

sanjay of union

एडवोकेट दीपक शंखधर

“संजय” नाम ध्यान में आते ही महाभारत का धर्मयुद्ध याद आ जाता है। जिसमें अपनों से अपनों की लड़ाई है सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि धर्म की स्थापना हेतु पात्रता युक्त व्यक्ति को सिंहासन पर बैठाने की। ऐसे सिंहासन पर जहाँ से व्यक्ति कौरव और पांडव जैसा भेद ना करे। जहां से वह समानता न्याय और अंतिम व्यक्ति के महत्व को उचित स्थान देने का काम करे। धर्म का शासन हो ऐसा विचार व्यावहारिक हो।

संजय धर्मयुद्ध की तीसरी आंख है। तीसरी आंख बहुत महत्वपूर्ण होती है। दिखती नहीं है पर सब देखती है, स्वयं से संवाद करती है कसौटी पर परखती है। अपने की चिंता करती है, असंतुलित को संतुलित करती है। इंद्रियों को भी खींच कर रखती है। इसकी काबिलियत है बिना प्रत्यक्ष हुए सबको अनुशासन में संजो कर रखने की और स्वयं को सबसे जुड़ कर रहने की। फिर चाहे नर हों, इंद्र हो या कोई भी- ये तीसरी आंख सूक्ष्मता से सब का अवलोकन करती है और सबको साधती है। ये शक्ति सबके भीतर है इसलिए संजय भी सबके भीतर है। सबसे जुड़ाव है तीसरी आंख का। कुछ माया में खोए हुए और अहम के वशीभूत लोग इससे बेख़बर हैं। इस प्रकार के अहंकार को वश में करने के लिए तीसरी आंख की जागृति बहुत जरूरी है क्योंकि यही है जो ठीक कर सकती हैं। ये तीसरी आंख ही है जो धृतराष्ट्र को सत्य से अवगत कराती है। पर धृतराष्ट्र को सत्य से अवगत कराने के लिए कौरवों और उनके प्रभाव से दूर करना पड़ेगा। अन्यथा तो धृतराष्ट्र हैं कि मानने को तैयार ही नहीं। इतने ज़िद्दी हैं कि धर्म युद्ध उपरांत भी भीम को भींचकर, बिना सावधान किए उसी की शैली से उसे मारने का प्रयास करते हैं। खैर पर कृष्ण भी हैं जो सचेत करते रहते हैं। संकेतों के माध्यम से जरासंध वध का तरीका बताते हैं। सारथी बनकर गांडीव को सही दिशा देते हैं। कुल मिलाकर जो सही है उसको हारने नहीं देना है।

अब हम अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी बात करें तो समझ पाएंगें कि “संघे शक्ति कलयुगे” को चरितार्थ और यथार्थ में बदलने के लिए धर्म की लड़ाई लड़ने वालों को एक जुट होना पड़ेगा। नर (पांडव) और नारायण (कृष्ण) को एक मंच से युद्ध लड़ना पड़ेगा और संजय को सत्ता के मार्गदर्शक का दायित्व निभाना होगा। अन्यथा धर्म युद्ध जीतने की प्रक्रिया और लड़ने का फल पूर्ण नहीं होगा। कलयुग में धर्म की लड़ाई अनवरत है, और अधिक संघर्षपूर्ण है – इसके लिए पात्र व्यक्ति को पात्रता अनुसार स्थान देना पड़ेगा। कलयुग में संघ कृष्ण के रूप में जिस लड़ाई को लड़ रहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। कृष्ण का अपना महत्व है और संजय का अपना। दोनों खेमे में दोनों महत्वपूर्ण हैं। सत्ता के मार्गदर्शन के लिए संजय की आवश्यकता होती है ताकि सत्ता माया और मद में खो ना जाए। बाकी कृष्ण तो अपना काम सदैव ही करते हैं। सब कृष्ण की माया है।