दीपक शर्मा
संतोष पटेल हिंदी और भोजपुरी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है । वे देश के विभिन्न सामाजिक राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को बारीकी से देखते और परखते हैं तथा उस पर कविता में कभी प्रत्यक्ष तो कभी बिंबो एवं प्रतीकों के माध्यम से गंभीर टिप्पणी करते हैं। दरअसल उनके पास विषय वस्तुओं पर विश्लेषण करने का अपना नजरिया है, वे टीवी चैनलों के चिल्लम-पो से अलग विभिन्न तथ्यों पर तार्किक ढंग से अपनी बात रखते हैं। संतोष पटेल एक खोजी कवि हैं। वे देश व समाज के मौजूदा हालात पर गहराई से मंथन करते हैं और अपनी कविता में सदैव एक नए विमर्श की तलाश करते हुए दिखाई देते है।
नागार्जुन की तरह उनकी टिप्पणी बेबाक होती है जो सत्ता एवं व्यवस्था में शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति को कांटे की तरह चुभ जाती है तथा कविता में हासिये पर खड़े समाज को अपनी मौजूदगी का एहसास कराती है। वे व्यवस्था को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति को एक अदृश्य पंजे के रूप में देखते हैं जिसके चंगुल में आम जनता आकंठ फंसी है। इस पंजे की पांचों उंगलियां व्यवस्था को इस प्रकार नियंत्रित करती है-
“इस अदृश्य पंजे की कनिष्ठ
नियंत्रण करती है कार्यपालिका को
अनामिका न्यायपालिका को
मध्यमा विधायिका को
तर्जनी करती है मीडिया को
और अंगूठा पूरे कॉरपोरेट को।”
न्यायालयों, विश्वविद्यालयों एवं मंदिरों में शीर्षस्थ कुर्सी पर एक ही पक्ष के लोग आसीन होते हैं। वहां उनके ही बराबर योग्यता रखने वाले बहुजनों की संख्या कम होना या न होना भी एक चिंता का कारण बना हुआ है। वे न्यायाधीशों के चयन प्रक्रिया पर कांटो की तरह चुभने वाले सवाल उठाते हैं। आखिर कॉलेजियम प्रणाली से न्यायाधीश सुनने का अधिकार कुछ विशेष लोगों के पास ही क्यों है? इस पद पर हमेशा एक ही जाति के लोग क्यों आसीन हो जाते हैं? कैसे तय कर लिया जाता है कि उनसे संबंधित लोग ही इस कुर्सी के योग्य हैं?
‘महंत’ और ‘महोदय’ उनकी ऐसी कविता है जिसमें वे विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफेसरों के वास्तविक चरित्र को उजागर करते हैं। जहाँ उनकी अधीनस्थ शोध करने वाले शोधार्थी शोध के दौरान सिर्फ उनका भोंपू बना दिए जाते हैं। ऐसे प्रोफेसरगण अपनी प्रशंसा व ख्याति पाने के लिए अपने शिष्य एवं शोधार्थियों को अपने करीब रखते हैं, जो उनके हर कार्यक्रम में कैमरा और कलम लेकर हाजिर रहते हैं ताकि तस्वीर और उनके वक्तव्य की रिपोर्टिंग ठीक ढंग से हो और वह सोशल मीडिया से लेकर अगले दिन की अखबारों में छपे। ऐसे प्रोफेसर ज्यादातर सत्ता के चापलूस होते हैं और सत्ता के पक्ष में ही गोल-गोल बातें करते हैं ताकि प्रमोशन पाकर विश्वविद्यालय के कुलपति बन सकें। वह उन जिम्मेदार लोगों से सवाल करते हैं कि आप हर जगह पिछड़े होने का मुखौटा पहन लेते हो लेकिन जब भागीदारी की बात आती है तो गायब हो जाते हो।विश्वविद्यालय में पिछड़ों की नियुक्ति की जगह नॉट फाउण्ड सूटेबल और सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण दे देते हो। यहाँ तक कि मंदिरों के संचालन में भी पिछड़े को गायब कर दिया जाता है। लोकतंत्र के प्रतीक के रूप में अशोक के शेर की जगह राजतंत्र की प्रतीक सेगोल की स्थापना कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया बहुजनों के विरुद्ध अन्याय नहीं तो और क्या है?
हमारे पाठ्यक्रमों में ऐसे विषय वस्तुओं की एक सघन संरचना है जिसमें गुरुजी को अपने एजेंडा के अनुसार पढ़ाने में काफी मदद मिलती है। ‘सघन संरचना’ कविता में वे बताते हैं कि गुरुजी वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, गीता आदि के माध्यम से संस्कृत भाषा को सब भाषा की जननी बताते हैं और उसी से हिंदी की उत्पत्ति हुई फिर साबित कर देते हैं कि कैसे हिंदी से हिंदू और हिंदुस्थान बना। अंत में अपने एजेंडे को समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि हमें हिंदुओं के अस्तित्व को बचाने के लिए सतर्क और सावधान हो जाना चाहिए।
वे व्यवस्था को धर्मसत्ता और राजसत्ता दो भागों में विभाजित करते हैं। दोनों आम जनमानस में भय पैदा करने के लिए होता है धर्मसत्ता भूत, प्रेत पिशाच आदि का भय दिखता है तो राजसत्ता अपने दरबारियों, अधिकारियों और जासूसों का सहारा लेता है। धर्म सत्ता अलौकिक और राजसत्ता लौकिक भय दिखाता है। जब धर्म सत्ता और राजसत्ता का आपस में गठजोड़ हो जाता है तो जनता में भय पैदा करना और आसान हो जाता है।
संतोष पटेल प्रशंसा के गीत गाने वाले कवि नहीं है, आमतौर पर वे जनपक्षधरता के कवि हैं। वे नफरत, अमानवीयता, सामंतवाद और पाखंडवाद के खिलाफ आवाज उठाने वाले कवि हैं। जब वे दबे, कुचले और गरीब लोगों के हक, अधिकार व रोजगार के पक्ष में बोलते हैं तो उनके विरोधियों को उनकी बात हजम नहीं होती और वे उन्हें ओवैसी, कुरैशी, लिब्रांडू जैसे शब्दों से कुठाराघात करते हैं। वे उन चरित्रहीन, असामाजिक तत्वों को हमेशा कोसते रहते हैं जो हर क्षण नफरत के जहर का बीज बो रहे हैं और आपसी सौहार्द के ताने-बाने को उधेड़ते हुए समाज को अपने तरीके से गुमराह कर रहे होते हैं –
लूट रहे हैं आबरू
निरीह जनों का
दे रहे हैं प्रमाण
अपनी चरित्रहीनता का
बांट रहे हैं अविश्वास का फल समाज में
उधेड़ रहे हैं सौहार्द के ताने-बाने को
घोल रहे हैं जहर आपसी मोहब्बत में
धकेल रहे हैं समाज को
बिखराव की दलदल में
आखिर कौन हैं वो
जो बो रहे हैं ऐसा जहरीला बीज?
संतोष पटेल की कविता में संवेदना के बाद आँसू नहीं प्रतिरोध दिखाई देता है। समाज में कहीं-कहीं बाहुबलियों, जमीदारों, और मठाधीशों का आम जनता पर खौफ बना हुआ है। वे संविधान को संदूक में रखकर गाँवों में अपने नियमानुसार शासन और न्याय करते हैं। उनका सत्ता से गहरा रिश्ता होता है, वे कानून, पुलिस, मीडिया सबको वश में करके राष्ट्र बदलने का आह्वान करते हैं। ऐसे लोगों पर बात करते हुए कवि का इशारा तथाकथित ऊँची जाति के लोगों की तरफ है। जातीयता को लेकर उनकी राय स्पष्ट है। वे सवाल करते हैं कि जो खुद को बड़ी जाति मानते हैं उन्हें जाति जनगणना से आपत्ति क्यों है? उन्हें ईडब्ल्यूएस की जरूर क्यों पड़ गई? कॉलेजियम सिस्टम से बार-बार उनसे संबंधित लोग ही न्यायाधीश की कुर्सी पर क्यों बैठते हैं! साथ ही वे उन लोगों को चुनौती देते हैं कि अब तुम बहुजनों को दबा नहीं सकते हो, अब हम बाढ़ की पानी की तरह तटबंध तोड़कर आगे निकल जाने की ताकत इकट्ठा कर लिए हैं क्योंकि अब यहां कोई मुगल, अंग्रेज नहीं, जनता के पास संविधान की ताकत है-
अब कोई मुगल नहीं यहां
जिसको बनाकर अपना
कर दोगे बंद आवाज बहुजनों की
अब कोई अंग्रेज भी नहीं
जिसकी चाटुकारिता कर
चढ़वा दोगे फांसी हमें
अब संविधान है हमारे पास
जो दे रहा है ताकत तुमसे दो-दो हाथ करने का
संतोष पटेल वर्तमान राजनीति के सूत्रधार बने हुए राजनेताओं के ऊपर कई तरह के व्यंग्य और कटाक्ष करते हैं। उनके लिए हर जगह प्रोटोकॉल होता है जिसमें पुरी की पूरी व्यवस्था है नतमस्तक हो जाती है। वे उनके चाल-चरित्र और चेहरे की पहचान कभी गिरगिट तो कभी बहुरूपियों के रूप में करते हैं जो हर बरस अपना वेश बदलकर अपने खूनी हाथों से अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के मूर्ति पर फूल चढ़ा आते हैं और चुनाव में इसे भूनाने की कोशिश करते हैं। जबकि महात्मा गांधी के साथ उनका कोई सरोकार नहीं होता है। यही काम वे 14 अप्रैल को डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती पर करते हुए दिखाई देते हैं। उनके दोहरे चरित्र होते हैं जो दिखावे के लिए चुनाव के समय दलितों के घर भोजन करने व फोटो खिंचवाने पहुँच जाते हैं लेकिन उनका भीतर का प्रेम अति छिछला होता है, यह महज एक चुनावी राजनीति का जाल होता है। वे उनको हिदायत देते हैं कि यदि वास्तव में आपको दलितों से प्रेम है तो उन्हें अपने घर बुलाकर अपने बीवी बच्चों के साथ मिलाओ, अपने सोफे पर अपने बराबर बैठाकर अपने परिवार के साथ अपनी थाली में भोजन खिलाओ, उनका सत्कार करो।
‘रंगा सियार’ भी इसी भाव की कविता है, जिसमें वे लोग अपनी असली रूप बदलकर सत्ता पर काबिज हो जाते है और जन हितैषी बन बैठते हैं। वे अपने अनुसार अपने आस-पास अधिकारियों को बैठा देते हैं। अंधभक्त लोग उनके असली रूप को न पहचान पाने के कारण उनके भाषण और कार्य शैली पर खुश होते हैं।
संतोष पटेल की ‘बाज’ एक बेहतरीन कविता है जिसमें वे वर्तमान राजनीतिक हालात को समझने के लिए शिकारी तोता, बाज, खरगोश, गिलहरी और चूहा का सहारा लेते हैं। जिसमें शिकारी सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ है। वह पहले तोता यानी अपनी प्रशंसा में गीत गाने वाले को आश्रम देता था लेकिन अब वह बाज यानी कि कुछ ऐसे गुर्गों को पाल लिया है जो उनके लिए समर्पित भाव से शिकार करते हैं। उनके एक इशारे में किसी कमजोर व्यक्ति को उठा लाते हैं, अनुभवी लोगों को ठिकाने लगा देते हैं तथा जो उनके रास्ते में अड़चनें डालें, उनको लापता करवा देते हैं। अब उनकी पूरी कवायत है कि मोर की जगह बाज को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया जाए।
आजकल के विषम हालात पर उनकी पैनी नजर है। मनुष्य की भावना साइकिल के ट्यूब की तरह हो गई है। वह कब भड़क जाए और उसका विस्फोट कहां तक चला जाए कोई ठिकाना नहीं है। इसी तरह समाज में कुछ व्यक्ति ज्वालामुखी की तरह होते हैं जिनके भीतर मैग्मा लावा, धूल, मवाद तमाम चीज़े भारी होती है। जरा-सा दबाव पड़ते ही मुँह से अनर्गल प्रलाप, गालियां, नफरत, घृणास्पद शब्द उगलने लगते हैं।
संतोष पटेल ब्राह्मणवाद के विरोध में खुलकर लिखते हैं, जिनके नियमानुसार शुद्र के द्वारा कोई चीज छू लेने मात्र से अशुद्ध हो जाती है तो वे मंत्र पढ़कर या गंगाजल छिड़ककर उसे शुद्ध कर लेते हैं। शुद्धिकरण की इस प्रक्रिया पर सवाल करते हैं कि जब राजस्थान में इंद्र मेघवाल द्वारा सवर्ण हेडमास्टर के घड़े का पानी पी लेने मात्र से उसे पीट-पीट कर मार दिया गया। क्या उस घड़े को मंत्र पढ़कर, गंगाजल छिड़क कर या हवन इत्यादि कराकर शुद्ध नहीं किया जा सकता था?
इसी प्रकार उन्होंने ‘कृषि के क्षेत्र में नई खोज’ कविता में प्याज और लहसुन की उत्पत्ति पर करारा व्यंग्य किया है। भारत में प्याज और लहसुन की खोज पर विश्व भर के कृषि वैज्ञानिक हैरान है क्योंकि यहां कथावाचक बताते हैं कि प्याज और लहसुन गंदगी और मल से उत्पन्न हुआ है। कोई इसकी उत्पत्ति कुत्ते के अंडकोष से तो कोई गौ माता की हड्डी और मांस से बताता है तथा इसकी एक और उत्पत्ति समुद्र मंथन में राक्षस द्वारा पी लिए गए अमृत से भी बताया जाता है।
अमीबा समाज के उस वर्ग का प्रतीक है जिनके भीतर तमाम प्रकार के विकार, मक्कार, छल, कपट भरा हुआ है जो जन्म से परजीवी, संवेदनहीन हृदय विहीन आत्मकेंद्रित, महीन, आत्मजीवी, शातिर और चालाक हैं। जिन्हें सिर्फ अपने हित की चिंता होती है। वे खुद को देवता मान बैठे हैं। ऐसे अमीबा लोग समाज में हर जगह मौजूद है –
अमीबा!
तू जन्मजात है परजीवी
आत्मकेंद्रित, महीन, आत्मजीवी
संवेदनहीन, हृदय विहीन और रंगहीन
जिस रंग में ढलता डालना चाहते हो
ढल ही जाते हैं
क्या दाहिना क्या बायां
मिलते अपना निवाला
सीधा निगल जाते हो
संतोष पटेल तलवार को हिंसा, नफरत, शोषण और जातीय अहंकार का प्रतीक मानते हैं तो महात्मा बुद्ध को अहिंसा, प्रेम, पोषक, शांति और मानवता का इसलिए उनकी आस्था न ईश्वर में है, न ही अल्लाह में।
वे बुद्ध की राह पर चलने की बात करते हैं । अपनी कविता में वे तमाम नफरत की बातों को नकारते हुए प्रेम पर जोर देते हैं। यह नफरत तंत्र, साहित्य, समाज और विश्वविद्यालय तक जाल की तरह बुना हुआ है।
इसे कम करने का सिर्फ एक माध्यम है, वह है प्रेम । जहां मनुष्य को अपने हृदय के बंजरपन मिटाकर और तमाम प्रकार के भेदभाव की पाषाणता से मुक्त होकर उसे उपजाऊ बनाकर प्रेम रूपी वृक्ष लगाने की जरुरत है ताकि उसमें प्रेम रूपी पुष्प खिल सके —
अब जब तुम प्रेम बढ़ाने की बात
हर मंच से कर ही रहे हो
तो हृदय तल में जमे बंजरपन को मिटाओ
हर प्रकार के भेदभाव की पाषाणता से हो मुक्त
उसको बना दो उपजाऊं
जहां उग ना सके किसी प्रकार के भेदभाव रूपी
कटीले पेड़ पौधे
बनी रहे तरलता हृदय में
ताकि उगे प्रेम रूपी वृक्ष
और खिल सके प्रेम-पुष्प
संतोष पटेल मानवीयता के कवि हैं। वे मानवीय पहलुओं को समझने के लिए प्रकृति का सहारा लेते हैं और बताते हैं कि मनुष्य को पहाड़ और समंदर की तरह नहीं होना चाहिए। पहाड़ अपने ऊंचा होने के अहंकार में समतल को हमेशा औकात दिखाता रहता है जबकि समतल लोगों को अनाज, पानी, आवास सब कुछ देता है और सहनशील है। इसी प्रकार समुद्र आकार में भले ही बहुत बड़ा होता है लेकिन उसका पानी उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। उसकी नदियों का पानी मीठा होता है और वह मनुष्य को तृप्त करती है। पेड़ फल आ जाने पर डालियैं को झुका लेते हैं।
पलायन की समस्या पर वे गंभीर चिंतन करते हैं। उनके अनुसार पलायन सिर्फ मेहनतकश लोग ही नहीं करते थे, वे भी करते हैं जो खाए, पिये, अघाये लोग हैं। अंतर यह है कि मजदूरकश लोग अपनी रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करते हैं और वे अपने सुख-समृद्धि को दुगुनी करने के लिए। कवि संतोष ने शिवकुमार के रूप में गिरमिटिया मजदूर पर एक खास विमर्श करते हैं, जिस प्रकार ब्रिटिशर्स, डचेन और फ्रांसीसी लोग हमारे भोले भाले गरीब लोगों को दास बनकर मारीच देश ले जाकर अपनी सेवा करवाते थे, उसी प्रकार आजादी के बाद हमारे देश की अधिकारी लोग भी अपनी सेवा के लिए हजारों मजदूरों को एक राज्य से दूसरे राज्य जहां-जहां उनकी पोस्टिंग होती ले जाते रहे और उनका जीवन साहब की सेवा में ही गुजर जाता है।
कवि के भीतर स्त्री संवेदना की गहन अनुभूति है। वे समाज में सबके सुख-दुख, दर्द तकलीफ, हंसी खुशी में शामिल रहने वाली लालपरिया माई पर अद्भुत कविता लिखते हैं। लालपरिया गाँव में हासिए के समाज से आई हुई एक गरीब स्त्री है। जो सब के काज-परोजन में घर की स्त्रियों की तरह शामिल होती थी। एक दिन रोपनी करते हुए बीमार होकर मर जाती है लेकिन गाँव के पुरुष लोग उसके अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी तक नहीं जुटा पाते और उसे नदी में प्रवाहित कर देते हैं।
संतोष पटेल लोक और शिष्ट में लोक को ज्यादा महत्व देते हैं। उनका मानना है कि शिष्ट में लिखी गई कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र में हमारी बातें नहीं हो सकती है क्योंकि हमारा लोक कलम चलाना नहीं जानता है जबकि लोक के पास जीवन के काफी गहरे अनुभव हैं। अब लोक खुलकर सामने आ रहा है। वे बड़े और छोटे कवि को बड़े और झोलाछाप डॉक्टर से तुलना करते हैं। जिस प्रकार बड़े डॉक्टर में आत्मीयता कम और लोभ ज्यादा होता है और झोलाछाप डॉक्टर आत्मीय और कम पैसे लेने वाले होते हैं। यही दशा कवियों के यहाँ भी है।
दरअसल ‘चर्चा का समीकरण’ इस तरह हो गया है कि जिसमें न कोई अपने विरुद्ध सुनना चाहता है, न ही किसी ऐसे साहित्यकार को मंच देना चाहता है जो अपने विचारधारा से इतर हो। वे सिर्फ प्रशंसा के गीत गाने सुनना चाहते है। कवि संतोष तथाकथित बड़े पत्रकारों, कहानीकारों, प्रकाशकों और आलोचकों के दुख को परखते हुए उन्हें महीन पीसते हैं। ऐसे रचनाकार जो छोटे रचनाकारों की अच्छी सी अच्छी रचनाओं को ख़ारिज़ कर देते हैं और बड़े रचनाकार की घटिया से घटिया रचना पर बात करना होता है तो उन्हें किसी प्रकार का दुख नहीं होता है।
संतोष पटेल अपनी कविता में नई चीजों की तलाश करते हैं इसी क्रम में टेलीफोन की जगह मोबाइल की खोज को आम जनता के हित में उपयुक्त मानते हैं । वे सड़े, गले, पुराने मानकों पर टिके नहीं रहना चाहते हैं। वे नई खोज के साथ परिवर्तन करना चाहते हैं। यहां तक की कविता में भी। रेत के महल की तरह कविता के पुराने मानक भी ढह रहे हैं। हर कवि की अपनी सोच, चिंतन व चिंताएं होती है। पानी की तरह इसके रूप में परिवर्तन स्वाभाविक होता है