
मैने माँ को चुपचाप था देखा,
चूल्हे पर रोटी पकाती हुई।
आँखों में हर सपने संभाले हुए,
जीवन में मुस्कान सजाती हुई।
फिर एक वक्त जब संकट आया,
बिखरे थे माँ के सपने सारे।
माँ ने संभाला हर टूटा सपना,
हौसले से भरा वो आँचल प्यारा।
देहरी लांघ जब माँ दुनिया आई,
नौकरी की राह पर कदम बढ़ाई।
घरेलू रंग से माँ आधुनिक बनी,
तब मैने माँ को बदलते देखा।
रिश्ते के अहंकारी जो थे अपने,
माँ की मासूमियत को छलते सारे।
फिर भी माँ ने हिम्मत न हारी,
तब माँ योद्धा बन तलवार उठाई।
माँ ने आँसुओं को पीछे छोड़ा,
हर मुश्किलों ने था उन्हें ललकारा।
चट्टानों सा खड़ी हर फर्ज निभाई,
तब मैने पिता का साया माँ में देखा।
मैने माँ को शक्ति बनते देखा,
संस्कृति-रंग से भी रंग कर,
माँ को आधुनिक बनते देखा।
मैंने माँ में है ईश्वर को देखा।
— अम्बिका कुशवाहा अम्बी