“सात शव और एक सवाल: हम सब कब जागेंगे?”

"Seven bodies and one question: When will we all wake up?"

सिर्फ़ खबर नहीं थी वो, एक सामूहिक अपराध का दस्तावेज़ थी

“आखिरकार छोड़कर तो सब कुछ यहीं जाना है। ऐसे में यदि किसी जरूरतमंद अपने की सहायता कर दी जाए, तो हम वैसे अपराध से बच सकते हैं जिससे प्रवीण मित्तल के अपने नहीं बच सके।”

प्रियंका सौरभ

पंचकूला में एक ही परिवार के सात सदस्यों ने सामूहिक आत्महत्या कर ली। ये पंक्तियाँ लिखते हुए हाथ काँपते हैं, और मन बार-बार वहीं लौट जाता है — उस बंद दरवाज़े के पीछे, जहाँ हर उम्र की उम्मीद दम तोड़ चुकी थी। उस दृश्य को केवल “सामूहिक आत्महत्या” कह देना एक आसान भागदौड़ है। असल में, यह एक सामूहिक सामाजिक असफलता है, जिसमें हम सब — पड़ोसी, रिश्तेदार, संस्थाएं, सरकारें — कहीं न कहीं सहभागी हैं।

चुप्पियों की चीत्कार

जब कोई आत्महत्या करता है, तो वह सिर्फ़ जीवन नहीं खोता, वह समाज से हार जाता है। वह संकेत देता है कि उसने बहुत पुकारा, बहुत झेला, बहुत सहा — और फिर, थककर ख़ामोशी चुन ली।
प्रवीण मित्तल और उनका परिवार भी शायद चुप नहीं था, बस उनकी आवाज़ों को हमने अनसुना कर दिया।

“उसने क्यों नहीं बताया?”
शायद इसलिए नहीं बताया कि हर बार जब वह टूटा, हम सब अपने-अपने मोबाइलों में व्यस्त थे।
शायद इसलिए नहीं बताया कि गरीबी, कर्ज, और असफलता को अब भी हम शर्म से जोड़ते हैं, सहानुभूति से नहीं।

हम सब थोड़े-थोड़े दोषी हैं

हर आत्महत्या के पीछे कोई एक कारण नहीं होता, बल्कि एक सामाजिक ढांचा होता है — जिसमें व्यक्ति आर्थिक रूप से टूटता है, भावनात्मक रूप से अकेला पड़ता है, और फिर आत्मसम्मान की चादर ओढ़कर चुपचाप चला जाता है।
यह घटना भी वैसी ही थी। एक व्यापारी जो कभी आत्मनिर्भर था, आज बैंक और साहूकारों के बोझ में दबकर ख़त्म हो गया। उसके बच्चे, जो दुनिया देखना चाहते थे, अपने भविष्य को ही दफ़न कर बैठे।

क्या कोई भी पड़ोसी, रिश्तेदार या दोस्त इतना पास नहीं था कि उसकी पीड़ा जान सके?

मौन भी अपराध है

हम अक्सर अपराध को केवल ‘किया हुआ’ समझते हैं — पर सच यह है कि जो समय पर कुछ नहीं करते, वे भी अपराध में सहभागी होते हैं।
अगर एक दोस्त, एक भाई, एक ग्राहक, एक पड़ोसी — समय पर एक बात भी कह देता, “चलो, कुछ करते हैं,” तो शायद इन सात जीवनों को बचाया जा सकता था।

क्या आत्महत्या एक विकल्प है? नहीं, पर कभी-कभी लगती है।

हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य अब भी ‘कमज़ोरी’ माना जाता है। आर्थिक संकट को ‘कर्मों की सज़ा’ समझ लिया जाता है। और मदद माँगना तो जैसे अपराध है।
एक खुद्दार व्यक्ति जब हार मानता है, तो इसका मतलब है कि उसने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि समाज से उम्मीद ही छोड़ दी।

क्या इस परिवार को आत्महत्या से रोका जा सकता था?
हाँ। बिल्कुल हाँ।
अगर सरकारी योजनाएं ठीक से काम कर रही होतीं।
अगर कर्ज़ माफ़ी की प्रक्रिया मानवीय होती।
अगर पड़ोसियों में संवेदना होती।
अगर कोई रिश्ता इतना सजीव होता कि दरवाज़ा खटखटा देता।

हम क्या कर सकते हैं?

  1. संवेदनशील बने रहें – अगली बार जब कोई चुप हो, तो उसका हाल ज़रूर पूछें।
  2. मदद करें – यह ज़रूरी नहीं कि आप लाखों रुपये दे सकें, पर एक कंधा, एक बात, एक रास्ता बहुत बड़ा सहारा हो सकता है।
  3. संकट में अपनों को न छोड़ें – जब कोई तकलीफ़ में हो, तो उससे दूरी न बनाएं। यही वो समय होता है जब सबसे ज़्यादा साथ की ज़रूरत होती है।
  4. सरकार और प्रशासन से माँग करें – आत्महत्या की घटनाओं की सिर्फ़ जाँच न हो, उनसे सबक लेकर सामाजिक सुरक्षा ढाँचा और मज़बूत किया जाए।
  5. अपने बच्चों को सिखाएँ कि हार इंसान को नहीं, इंसान हार को बदल सकता है।

मीडिया की भूमिका: सहानुभूति या सनसनी?

इस घटना को मीडिया ने खूब चलाया। हर चैनल पर हेडलाइन थी –
“सात लोगों की सामूहिक आत्महत्या से हड़कंप!”
“सुसाइड नोट में लिखी दर्दनाक बातें!”

पर सवाल है — क्या मीडिया ने इसे एक मानवीय संकट की तरह देखा, या TRP का मौका?

इस परिघटना को सनसनीखेज बनाना बहुत आसान है,
पर यह समझना जरूरी है कि किसी की मौत को खबर बनाना नहीं,
किसी की जिंदगी को बचाना ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

मीडिया को चाहिए कि वह ऐसी घटनाओं को नीतिगत बदलाव, सामाजिक सुधार, और मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता की दिशा में ले जाए, न कि केवल एक रोचक सामग्री की तरह पेश करे।

हर आत्महत्या के बाद एक सवाल हमारे सामने होता है – अब क्या?

अब रोने से कुछ नहीं बदलेगा। अब अफ़सोस से आत्मग्लानि मिटेगी नहीं।
अब समय है कि हम अपने-अपने जीवन के छोटे-छोटे दायरों में सजीव संवेदनशीलता को वापस लाएँ।
हर पड़ोसी, हर दोस्त, हर रिश्तेदार — अब एक वचन लें:
“मैं किसी अपने को यूँ अकेला नहीं मरने दूँगा।”

अंतिम बात: चुप रहना अब अपराध है

आज, जब हम इस त्रासदी के बाद दुःखी हैं, एक सवाल हमारे सामने खड़ा है —
“क्या हम अगली प्रवीण मित्तल कहानी को होने से रोक पाएँगे?”

शायद हाँ —
अगर हम अपने जीवन में थोड़ा ठहराव लाएँ,
अगर हम रिश्तों को केवल औपचारिकता नहीं, संवेदना का माध्यम मानें,
अगर हम यह मान लें कि चुप रहना भी एक किस्म का अपराध है।

इस बार मोमबत्तियाँ नहीं जलाइए,
एक संकल्प लीजिए —

“मैं किसी अपने को इस कदर टूटने नहीं दूँगा कि वो मरना चुने, जीना नहीं।”

अंत में, प्रार्थना नहीं — प्रतिज्ञा चाहिए।

इस बार मोमबत्तियाँ न जलाइए, संकल्प कीजिए।
कि अगली बार कोई प्रवीण मित्तल न मरे।
कोई बच्चा ज़हर न खाए।
कोई माँ अपनी आँखों से अपने सपनों को फांसी पर झूलते न देखे।
और अगर फिर भी कुछ न कर सकें,
तो कम से कम इतना ज़रूर करें —
चुप न रहें।