
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
वीर भूमि बुन्देलखण्ड में रिमझिम के तराने लेकर आने बाले सावन का स्वागत
आल्हा गायन के साथ होता है। सावन सारी सोनवा पहिरे,
चैड़ा भदई गंग नहाइ।
चढ़ी जवानी ब्रहा्रा जूझे
बेलवा लेइ के सती होइ जाइ।
(सावन में सोना साड़ी पहनती थी, चैड़ा भादों मंे गंगा नहाता था। चढ़ती जवानी
में ब्रहा्रा जूझ जाता है और उसे लेकर बेलवा सती हो जाती है।)
बुंदेलखंड में सावन के त्योहार का महत्व महाराष्ट्र के गणेश उत्सव ,
पंजाब के बैसाखी, बंगाल के दुर्गा पूजन और केरल के पोंगल से कम नहीं है।
श्रावणोत्सव त्यौहार का पहला पर्व नागपंचमी है। रक्षाबंधन कजलिया आदि ऐसे
त्यौहार है जिनका बुन्देली लोकमन में धार्मिक महत्व के साथ सामाजिक तथा
सांस्कृतिक महत्व अनुपम है। आपसी सौहार्द अपने प्रदर्शन और उत्साह एवं
में डूबे रहते हैं समाज को एक सूत्र में बांधने और आपसी मनोमालिन्य दूर
करने के अचूक अवसर है। रक्षाबंधन तो एक दूसरे की रक्षा का संकल्प का
त्योहार है यही कारण है कि यहां के निवासी निरन्तर आपदा और घटते
प्राकृतिक जल संसाधनों के बीच जीवन के हर सुख दुख में सामूहिक भागीदारी
की भावना से रहते है। बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों वर्गहीन समाज की झलक
देखने को मिलती है वैसी अन्य अंचलों में बहुत कम पाई जाती है यहां धन
दौलत या पद की अपेक्षा उम्र और व्यवहार को अधिक सम्मान दिया जाता है।
बुंदेली समाज में चमार को चैधरी काछी को पटेल या माते यादव को मुखिया
जैसे सम्मानजनक शब्दों से पुकारा जाता है। उनकी सामाजिक स्वीकृति का
परिचायक है सांस्कृतिक विशेषताएं यहां के त्यौहार को अधिक आनंददायक बनाती
है।लोकभाषाश्बुन्देली में यहां के लोग अगली पीढी से कहते है
भैया-बिन्न्ना हरौ जित्तो बने उत्तो मजबूत बनायें रइयौ ई साउन मइना बतकाऔ
भए चाइयै। ई सें अपने असफेरई खों पतौ चलैं।
नाग पंचमी
सावन के त्योहारों में सबसे पहला धार्मिक त्योहार नाग पंचमी का होता है
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन मनाया जाता है। इस दिन लोग
घरों में नाग देवता की पूजा करते हैं। इस दिन बुन्देलखण्ड में परंपरा
अनुसार घरो में चूले पर तवा नहीं चढ़ाया जाता ताकि घरों में रोटी नहीं बने
अपितु खीर पूड़ियां बनाई जाती है। सपेरे जिंदा नाग को लेकर गांव-गांव
द्वार- द्वार घूमकर लोगों को नाग देवता के दर्शन करते हैं ।सपेरे की बीन
पर नाग देव निर्तन करते हैं लोग उन्हें दूध पिलाते हैं दान और दक्षिणा भी
देते हैं कुछ लोग सपनों से अपने छोटे बच्चों के गले में नाग देवता का हार
भी पहिनवाते हैं उनका विश्वास है कि नागदेव के स्पर्श से फिर कभी जीवन
में सर्प दंश का भय नहीं रहता । बुंदेलखंड के ग्रमीण क्षेत्रों में से
नागपंचमी के दिन कुश्ती तथा मल विद्या का प्रदर्शन किया जाता है।गौरतलब
है कि बुंदेलखंड के प्रत्येक गांव में एक छोटा, बड़ा अखड़ा रहता है। अखाड़ों
में गुरु या उस्ताद गांव के कसरत प्रिय युवकों को भारतीय पद्धति के
व्यायाम दंड बैठक आसन मलखम मुगदल लेजियम तथा कुश्ती के दांव पेच वर्ष पर
सिखाते हैं पट्टा बनेठी तलवार आदि शास्त्र संचालन की शिक्षा प्रशिक्षण भी
दिया जाता विभिन्न आकार और वजन के पत्थर की नाले में भी रहती है जोकि
वेटलिफ्टिंग के काम आते है अखाड़े में आने वाले प्रत्येक युवक को चाहे
छोटे या बड़े परिवार से वह साफ सफाई मिट्टी को मुलायम बनाने का कार्य
आवश्यक रूप से करता है नाग पंचमी के दिन इन्हीं अखाड़ों के युवकों का
सार्वजनिक प्रदर्शन होता है कुश्ती लड़ी जाती है मलखंब पर कलाबाजी होती है
पटा बनेगी और तलवारबाजी के करतब दिखाए जाते हैं मुकदर घुमाई जाती है ।
ग्राम प्रधान या सरपंच उन्हें पारितोषिक देकर प्रोत्साहित करते हैं।
सावन के झूले
बुंदेलखंड की एक अन्य विशेषता सावन के झूल है।े सावन में मंगल पर झूला
डालना बुंदेलखंड की एक अन्य विशेषता है 16 शताब्दी पुष्टिमार्गीय
संप्रदाय के प्रश्न के बस में भगवान श्रीकृष्ण का मानवीकरण कर सेवा करने
का प्रचलन बढ़ा तभी से श्री कृष्ण की मूर्ति को सही मानकर दशक्रिया
व्यवहार मंदिरों में और निजी उपासना पद्धति में शामिल हो गई है जो
व्यवहारिक जीवन में होते हैं जैसे जागरण स्नान भोजन विश्राम सेना 30
सितंबर महीने में भगवान की मूर्ति को सुलाने की परंपरा परंपरा है मंदिरों
के अतिरिक्त श्रावण मास में बंद रखने गांव में पेड़ों पर बड़े-बड़े जुड़े
डालने की प्रथा है इन पर युवक युवतियां जुलकर अपने उमंग उत्साह का
प्रदर्शन करते हैं उतना लोकगीत की लाइव पर झूलती है आपस में हंसी ठिठोली
करती है युवक को इस बात की होड़ लगी रहती है क्या कौन कितने ऊंचे तक झूले
की पर चलाता है रिमझिम बरसता पानी और चारों और फैली हरियाली के बीच गांव
की लड़ाई में पड़े झूले पर झूलते मनोहारी दृश्य उपस्थित करते हैं
राखी
राखी भाई बहनों की आशीष ने देश के अन्य भागों की तरह यहां भी रक्षाबंधन
भाई बहनों के आपसी स्नेह के प्रतीक के रूप में उल्लास पूर्वक मनाया जाता
है भाई की कलाई पर बहन के द्वारा बांधी गई राखी की कच्ची डोरी भाई द्वारा
उसकी रक्षा की कवच के रुप में डालती है पर यहां रक्षाबंधन को चंद्र
परंपराएं में जो समाज के कमजोर वर्ग के लोगों की रक्षा का संकल्प जो
राज्य बुंदेलखंड के हर गांव में एक ना एक मंदिर रहता है रक्षाबंधन के दिन
इस मंदिर का पुजारी ने जीवों को राखी बांधकर उनकी रक्षा करता है
कजलियां
कजलियां जिन्हें कहीं-कहीं भुजरियां भी कहा जाता है इसे राखी के दूसरे
दिन मनाए जाने वाला महत्वपूर्ण पावन त्यौहार है। रिश्ते सहेजने का पर्व
कजलियां – भुजरियां आपसी भाईचारे और सामाजिक समानता को प्रस्तुत करने का
अवसर प्रदान करता है। हरे कोमल बिरवों भुजरियां को आदर और सम्मान के साथ
भेंट करने मन का मलिनता दूर करते है। कजलियां नाग पंचमी के बाद सप्तमी
अष्टमी को बोई जाती हैं गांव की नई लड़कियां छोयले ( ढाक ) के पत्तों के
दोनों में खेतों की काली मिट्टी भर कर उनमें गेहूं के दाने भरकर पूजा के
कमरे में अंध्ेारे में रखा जाता है लगभग एक सप्ताह में दोनों में रखे
गेहूं के अंकुर 5-6 इंच लंबे उग आते हैं। कजलियां के दिन शाम को इन दोनों
को बांस की टोकरी में रखकर महिलाऐं और बालिकायें लोक गीत गाती हुई गांव
के पास के तालाब पर दोनों से गेहूं के अंकुरों निकालती हैं यही अंकुर
कजलियां भुजरियां कही जाती है। कजलियाँ सबको आदमी-औरतों-बच्चों को बाँटी
जातीं हैं और वे सब आदर से सर-माथै पै लगाती है। गेहूं की कोमल कजलियों
को लड़कियों द्वारा परिवार के सदस्यों के कानों के ऊपर खोसकर टीका लगाती
हैं।कान में कजलियां लगवाने वाले पुरुष वर्ग को कजलियां लगाने वाली
कन्याओं की सगुन के तौर पर रुपए पैसे देते हैं। बुन्देली लोक संस्कृृति
में लोकगायन लोकनृत्य की अपनी परम्परा है। ग्वाल लोकनृत्य के रूप में
पहचाने जाने बाला सैरा लोकनृत्य कृषक समाज के युवा भुजरियां पर्व पर खुषी
का इजहार करने के लिए करते है।
ज्योतिर्विद जनार्दन शुक्ल के अनुसार कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और
खुशहाली से जुड़ा है। इसका प्रचलन राजा आल्हा ऊदल के समय से है। आल्हा की
बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियों ने
कजलियों से उनका स्वागत किया था।
ये भी है कहानी
महोबा के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरता आज भी उनके वीर रस से
परिपूर्ण गाथाएँ बुंदेलखंड की धरती पर बड़े चाव से सुनी व समझी जाती है।
महोबे के राजा के राजा परमाल, उनकी बिटिया राजकुमारी चन्द्रावलि का अपहरण
करने के लिए दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने महोबे पै चढ़ाई कर दि
थी।राजकुमारी उस समय तालाब में कजली सिराने अपनी सखी-सहेलियन के साथ गई
थी। राजकुमारी कौ पृथ्वीराज हाथ न लगाने पावे इसके लिए राज्य के
बीर-बाँकुर (महोबा) के सिंह सपूतों आल्हा-ऊदल-मलखान की वीरतापूर्ण पराकरम
दिखलाया था। इन दो बीरों के साथ में चन्द्रावलि का ममेरा भाई अभई भी उरई
से जा पहुँचे।कीरत सागर ताल के पास में होने वाली ये लड़ाई में अभई बीरगति
को प्यारा हुआ, राजा परमाल को एक बेटा रंजीत शहीद हुआ। बाद में आल्हा,
ऊदल, लाखन, ताल्हन, सैयद राजा परमाल का लड़का ब्रह्मा, जैसें बीर ने
पृथ्वीराज की सेना को वहां से हरा के भगा दिया। महोबे की जीत के बाद से
राजकुमारी चन्द्रवलि और सभी लोगों अपनी-अपनी कजिलयन को खोंटने लगी। इस
घटना के बाद सें महोबे के साथ पूरे बुन्देलखण्ड में कजलियां का त्यौहार
विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा है।
गाड़ी बारे मसक दै बेल,
अबै पुरबइया के बादर ऊंचे
कौन बदरिया ऊनई रसिया
कौन बरस गये मेयर ।
2
सांउन के गीत
एक चना दो देउलीं माई साउन आये।।
कौना सीं बिटिंया सासरैं , माई साउन आये ।
गौरा सी बिटिंया सासरैं,माई साउन आये ।
को जो लुआउन जाएं री, माई साउन आये ।
3
आसों के सावना राजा घर करौं, पर के करियो विदेस।
रहौ तौर पैरों हरी चूनरी, जाओ तौ दक्खिनी चीर ।
रहौ तौ रांधौं रस खीर री, जाओ तौ रूखौ भात।