
सुनील कुमार महला
वर्तमान में सावन का महीना चल रहा है और सावन के महीने में ‘पैदल कांवड़ यात्रा’ का बहुत महत्व है।सावन के महीने में कांवड़िए पूरे मार्ग में उपवास, नियम, और भक्ति के साथ यात्रा करते हैं तथा पैदल चलते हुए कठिन से अति कठिन रास्तों को पार करते हैं। इस प्रक्रिया को शिव भक्ति का प्रतीक माना जाता है, जिसमें भक्ति, तपस्या और समर्पण का भाव प्रमुख होता है। पाठक जानते हैं कि भगवान शिव का सबसे प्रिय महीना सावन है, जिसकी शुरुआत 11 जुलाई 2025 से हो चुकी है और ये महीना 9 अगस्त 2025 को समाप्त होगा। सावन शुरु होते ही सड़कों पर ‘बम बम भोले’ और ‘हर हर महादेव’ की गूंज उठती है, जब भगवान शिव के भक्त एक साथ कांवड़ लेकर निकल पड़ते हैं। यहां पाठकों को बताता चलूं कि कांवड़ भी कई प्रकार के होते हैं जैसे झूला कांवड़, खड़ी कांवड़, डाक कांवड़, जिसमें से सबसे प्रचलित झूला कांवड़ है। वास्तव में, कांवड़ यात्रा आस्था और धर्म का एक पावन(पवित्र) पर्व है। श्रद्धालु, भक्तगण प्राचीन काल से ही यह हिन्दू तीर्थ यात्रा करते रहें हैं, जिसमें श्रद्धालु/भक्तगण गंगाजल लेकर भगवान शिव का जल अभिषेक करने के लिए यह यात्रा करते हैं। हमारे देश में हर साल सावन में जगह-जगह पर हमें कांवड़ियों की भीड़ देखने को मिलती है। पाठकों को बताता चलूं कि कांवड़ यात्रा के संदर्भ में हमारे यहां की कहानियां, किस्से और मान्यताएं प्रचलित हैं। कहते हैं कि भगवान शिव के भक्त परशुराम जी ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर बागपत स्थित पुरा महादेव मंदिर में शिव का अभिषेक (जलाभिषेक) किया था। कई लोग इसे ही ‘पहली कांवड़ यात्रा’ कहते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार कुछ लोग भगवान राम को पहले कांवड़िए के रूप में देखते हैं। इस मान्यता के अनुसार भगवान राम ने देवघर में शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। जानकारी के अनुसार भगवान राम ने बिहार के सुल्तानगंज से गंगाजल भरकर देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।कुछ मान्यताओं में कांवड़ की कहानी श्रवण कुमार से जुड़ी बताते हैं, जिन्होंने त्रेता युग में अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ पर बिठाकर हरिद्वार तक का सफर पूरा किया था। इसे भी ‘कांवड़ की प्रथम यात्रा’ के रूप में देखा जाता है। कहते हैं श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता-पिता को हरिद्वार में गंगा स्नान कराया था तथा साथ ही वह अपने साथ गंगाजल भी लेकर आए थे।एक अन्य मान्यता के अनुसार कांवड़ को रावण और समुंद्र मंथन की कहानी से भी जोड़ा जाता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार , समुद्र मंथन से निकलने के बाद भगवान शिव ने विष को पीया था जिससे उनका कंठ नीला हो गया था। तब रावण ने कांवड़ में जल भरकर ‘पुरा महादेव’ पहुंचें थे और भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। उसी समय से कांवड़ यात्रा की परंपरा शुरू हुई। यह भी मान्यता है कि जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकलकर विष पिया था, तो देवताओं ने शिव जी के ताप को शांत करने के लिए पवित्र नदियों का जल उन पर चढ़ाया था और उसी समय से कांवड़ यात्रा शुरू हुई थी। पाठकों को बताता चलूं कि कांवड़ को कंधे पर रखा जाता है। वास्तव में कांवड़ को कंधे पर रखना एक परंपरा मात्र नहीं है,यह श्रद्धा, सेवा और समर्पण का प्रतीक माना जाता है।श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कांवड़ में बिठाकर अपने कंधे पर उठाया था, जो सेवा भाव का प्रतीक है और इसी प्रकार से भगवान श्री राम ने गंगाजल से अपने पिता दशरथ की मोक्ष के लिए कांवड़ उठाई थी। माना जाता है कि कांवड़ को कंधे पर उठाकर चलना अपने अहंकार को त्यागने का प्रतीक है।धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कंधे पर कांवड़ रखकर गंगाजल लाने से सारे पाप खत्म हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।यह भी माना जाता है कि जो श्रद्धालु पूरे विधि-विधान और सच्ची निष्ठा और श्रद्धा से कांवड़ यात्रा करते हैं, तो उनकी हर मनोकामनाएं पूरी होती हैं। हमारे देश में हर साल सावन माह में करोड़ों की तादाद में कांवड़िये सुदूर स्थानों से आकर आकर गंगा नदी से विभिन्न पात्रों में जल भरते हैं और उससे अपने मन्नत वाले शिवालय में शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख, ऋषिकेश जैसे पवित्र स्थानों से श्रद्धालु भक्त गंगाजल भरकर अपने-अपने क्षेत्रों के शिव मंदिरों में ले जाते हैं और शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। कई लोग तो अपने नजदीक की पवित्र नदियों से भी जल लेकर अपने गांव-देहात के शिव मंदिरों तक की भी यात्रा करते हैं। पाठकों को बताता चलूं कि कांवड़ यात्रा मुख्य रूप से उत्तर भारत में ही प्रसिद्ध है और सोमवार के दिन का इसमें विशेष महत्व है। कांवड़ यात्रा में श्रद्धालुओं के बीच किसी किस्म का ऊंच-नीच का भेद नहीं होता। कांवड़ यात्रा केवल जल लाने की यात्रा नहीं है, बल्कि यह भक्ति, श्रद्धा और तपस्या की अनूठी व नायाब प्रतीक है। शिवभक्तों के लिए यह यात्रा अपने मन को शुद्ध करने और ईश्वर के प्रति अपनी निष्ठा जताने का माध्यम है। कांवड़ यात्रा का आयोजन बहुत ही अच्छी बात है, लेकिन भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए इस आयोजन में भागीदारी करने वालों को(कांवड़ यात्रा करने वालों को) इसकी महत्ता भी समझनी होगी। प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश इतना भर है कि आप जीवनदायिनी नदियों के लोटे भर जल से जिस भगवान शिव का अभिषेक कर रहे हैं , वे शिव वास्तव में सृष्टि का ही दूसरा रूप हैं। धार्मिक आस्थाओं के साथ सामाजिक सरोकारों से रची कांवड़ यात्रा वास्तव में जल संचय की अहमियत को उजागर करती है। वास्तव में कांवड़ यात्रा की सार्थकता तभी है, जब हम जल का संचय करें,उसे पशु-पक्षियों को उपलब्ध कराएं। सिंचाई के काम में लें।तभी वास्तव में भगवान शिव प्रसन्न होंगे, कांवड़ यात्रा का सही मायनों में यही संदेश है, लेकिन इस दौरान प्रायः यह देखा जाता है कि कई कांवड़िये जहां तहां उत्पात मचाते हैं। मारपीट, तोड़-फोड़,हिंसा की घटनाएं सामने आती हैं, सड़कों पर अतिक्रमण किया जाता है, जिससे अन्य लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है,यह सब ठीक नहीं है। वास्तव में कांवड़ियों में खुद जिम्मेदारी का बोध होना चाहिए और उन्हें याद रखना चाहिए कि वे देश के नागरिक भी हैं। उन्हें कांवड़ यात्रा के दौरान स्थानीय प्रशासन के साथ सहयोग करना चाहिए। कांवड़ यात्रा के समय अनुशासन व जिम्मेदारी का पालन करना चाहिए। वास्तव में, धर्म और आस्था नितांत निजी विषय हैं। इनकी श्रेष्ठता तभी स्थापित हो सकती है, जब इनका पालन करते हुए हम किसी दूसरों का मन न दुखाएं। कांवड़ियों को शुद्धता, पवित्रता, अनुशासन का पालन करते हुए कांवड़ यात्रा करनी चाहिए। कांवड़ यात्रा के दौरान संयम, मर्यादा में रहना बहुत जरूरी है। भाईचारे की भावना, सहयोग, सद्भावना ही कांवड़ यात्रा का मूलमंत्र है। किसी का दिल दुखाकर, किसी को व्यथित करके, किसी को आहत करके हम कभी भी सुखी व संपन्न नहीं हो सकते हैं। हमें यह चाहिए कि हम कांवड़ यात्रा के माध्यम से लोगों में प्यार, अपनत्व की भावना, सद्भावना , लोगों के भीतर अपने धर्म के लिए प्रशंसा और आकर्षण का भाव पैदा करें, तभी वास्तव में कांवड़ यात्रा की सार्थकता सिद्ध होगी।