पिंकी सिंघल
आज के मेरे इस आलेख का मुख्य प्रश्न यह है कि औरतों का सिंगार करना महज़ सुंदर दिखने के लिए होता है या चूड़ी, बिंदी ,सिंदूर ,मंगलसूत्र सच में सौभाग्य की निशानी होती हैं और क्या इन सब से पति के भाग्य पर असर होता है?
इन प्रश्नों के जवाब में मेरा तर्क केवल और केवल यही है कि जिस रिश्ते में प्यार और सम्मान होता है उस रिश्ते के लिए आप कुछ भी कर गुजरने के लिए सदैव तैयार रहते हैं चाहे फिर वह पत्नी का पति के लिए सजना सवरना, मंगलसूत्र पहनना, चूड़ियां पहनना ,नथनी और मांग टीका धारण करना और अपनी मांग को उसके नाम के सिंदूर से सजाना आदि आदि। यहां मैंने मांग का सिंदूर पति के नाम का इसलिए लिखा है क्योंकि हमारे धर्मों में विवाहित स्त्रियां ही सिंदूर लगा सकती हैं।
निसंदेह सजी संवरी दुल्हन की तरह दिखने वाली स्त्री पुरुषों को अपनी ओर आकर्षित करती है और यदि यह पुरुष और स्त्री रिश्ते में पति-पत्नी होते हैं तो यह आकर्षण सामाजिक मान्यता भी प्राप्त कर लेता है अर्थात पति पत्नी का एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होना और इस आकर्षण को एक मुकाम तक ले कर जाना सामाजिक दायरे के भीतर माना जाता है जो सही भी है।
अब बात आती है कि इन सब क्रियाकलापों सजने सवरने का क्या एक पति के भाग्य पर भी असर होता है तो यहां मेरा मत यह है कि यदि किसी महिला के विवाह के कुछ समय पश्चात ही उसके पति की असामयिक मृत्यु हो जाती है तो यह तर्क अपने आप ही आधारहीन हो जाता है।पति पत्नी का रिश्ता वह रिश्ता होता है जिसमें दोनों में से कोई भी एक दूसरे को खोने की इच्छा तो क्या कल्पना तक नहीं करना चाहता। एक दूसरे की लंबी आयु की कामना करते हुए वे अपना जीवन बिता देते हैं। परंतु यदि पत्नी के सजने सवरने और सोलह सिंगार करने के बाद भी दुर्घटना हो जाती है तो इसका संबंध अब किस चीज से जोड़ा जाए यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है महिला ने तो सज संवर कर सोलह सिंगार कर कर अपनी जिम्मेदारी निभाई उसके बाद भी वह अपने पति को मौत से नहीं बचा पाई तो अब समाज के उन तथाकथित ठेकेदारों का इस विषय पर क्या तर्क होगा जो यह कहते फिरते हैं कि महिलाओं के सिंगार करने से उसके पति का भाग्य भी संवरता लगता है और उसकी आयु लंबी होती है।
सजना सवरना सभी को अच्छा लगता है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष खुद को मेंटेन रखना और आकर्षित दिखना हर किसी की चाह होती है परंतु इस सब को एक दूसरे के भाग्य के साथ जोड़कर देखना तर्क ही है। माना कि हमारे धर्म में सजने सवरने और सोलह सिंगार का अपना एक विशेष महत्व है यहां मेरा तात्पर्य किसी भी धर्म संबंधी भावनाओं को ठेस पहुंचाना अथवा उन पर प्रश्नचिन्ह लगाना नहीं है अपितु यह मेरा व्यक्तिगत मानना है कि यदि ऐसा होता की पत्नी के सजने सवरने और चूड़ी बिंदी ,कजरा ,गजरा और मंगलसूत्र या सिंदूर लगाने से उसके जीवन साथी की आयु लंबी होती है और उसके भाग्य के सितारे बुलंद हो जाते हैं तो शायद ही इस दुनिया में आज कोई स्त्री अकेलेपन का बोझ ढोती हुई विधवा कहलाती। केवल सिंगार करने से ही सब कुछ ठीक-ठाक रहता तो कोई पत्नी पति की इतनी देखभाल ना करती अपने मन में उसके प्रति सम्मान और आधा भाव रखने की फिर क्या जरूरत रह जाती वह तो केवल सिंगार करके बैठ जाती और सदा सुहागन ही कहलाती। माफ कीजिएगा ,लेकिन ,इस प्रकार के मत से व्यक्तिगत तौर पर मैं सरोकार नहीं रखती।
यदि यह मान भी लिया जाए कि जीवनसाथी का आपस में ऐसा संबंध होता है कि एक के किसी एक क्रियाकलाप से दूसरे का भाग्य सवाने लगता है तो यहां केवल महिलाएं ही इस दौड़ में आगे क्यों आए ,?क्या पुरुषों को नहीं लगता कि उन्हें भी अपनी पत्नियों के लिए कुछ ऐसा खास करना चाहिए जिससे उनके उस प्रण से उनकी पत्नियों की आयु लंबी हो और उनके भाग्य के सितारे भी बुलंद हो।
आजकल देखा गया है कि बहुत से पति इस प्रकार का प्रण लेते हैं जैसे बहुत से पति करवा चौथ पर पत्नी के साथ व्रत रखते हैं और चांद देखकर ही अपना व्रत खोलते हैं अपनी बात करूं तो मुझे यह सब बहुत अच्छा लगता है ।एक दूसरे के लिए भूखे रहने का कोई वैज्ञानिक आधार तो नहीं है ,किंतु हां, एक दूसरे के प्रति प्यार और केयर दिखाने का इससे अच्छा तरीका मुझे नहीं लगता, खैर यहां सबका अपना अपना मत होता है।
अंत में मैं तो सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगी कि किसी व्यक्ति का भाग्य किसी दूसरे के क्रियाकलापों से नहीं अपितु उसके अपने कर्मों से जुड़ा होता है जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना होता है फिर चाहे वह स्त्री अथवा पुरुष; पति हो अथवा पत्नी ,कहा भी तो गया है कि “जिसका जितना है आंचल यहां पर उसको सौगात उतनी मिलेगी। जैसे बुखार होने की स्थिति में उससे होने वाला कष्ट केवल वही व्यक्ति भोगता है जिसे बुखार हुआ है ,बाकी दूसरे व्यक्ति उस दुख से दुखी जरूर हो सकते हैं किंतु उस पीड़ा का अनुभव केवल और केवल बीमार व्यक्ति को ही होता है।।”
एक बात और ,इन सोलह सिंगार और सजने सवरने को मैं ढकोसले का नाम नहीं देना चाहूंगी क्योंकि यदि कोई स्त्री इन्हें अपने पूरे मन और श्रद्धा के साथ निभाना चाहती है ,तो यह उसका व्यक्तिगत मामला है।आत्म संतुष्टि आखिर हर चीज से बढ़कर होती है। हां, यदि यह सब चीजें उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह उठने लगे और उसे बंदिशें जान पपड़ें,तो मुझे नहीं लगता कि किसी भी स्त्री को इन परंपराओं का दबकर पालन करना चाहिए ।जीने का हक जितना पुरुष को है उतना ही स्त्री को भी मिलना चाहिए। दोनों को खुले माहौल में सांस लेने का अधिकार है। अनुशासन का महत्व दोनों के लिए यह बराबर है इसलिए अपने चरित्र को मजबूत करते हुए स्त्री और पुरुष दोनों को ही एक दूसरे को पूरे मन से अपनाना चाहिए और मन से ही उन सभी रीति-रिवाजों को निभाना चाहिए जिन्हें वे खुद अपनी मर्जी और पूरे दिल से निभाना चाहते हैं, न कि किसी अंधविश्वास और रूढ़िवादिता को अपना धर्म मानकर।