निर्मल रानी
उत्तर भारत का एक बड़ा क्षेत्र इन दिनों ‘स्मॉग ‘ यानी ज़हरीले धुयें युक्त कोहरे जिसे धूम कोहरा भी कहा जाता है, की चपेट में है। यह कोई पहला अवसर नहीं है जबकि ‘स्मॉग ‘ यानी ज़हरीले धुयें की ख़बरें मीडिया में सुर्ख़ियां बटोर रही हों। बल्कि लगभग दो दशक से यह स्थित प्रत्येक वर्ष पैदा हो रही है। हाँ इतना ज़रूर है कि प्रदूषण दिन प्रतिदिन और भी न केवल बढ़ता जा रहा है बल्कि और भी ज़हरीला भी होता जा रहा है। इसका घोर प्रदूषण युक्त वातावरण का ख़ामियाज़ा हमें तरह तरह से भुगतना पड़ रहा है। कहीं विमानों की उड़ानें प्रभावित हो रही हैं तो कहीं ट्रेंस परिचालन में बाधा आने के चलते रेल गाड़ियां लेट हो रही हैं। गत दिनों ख़राब मौसम के कारण ही दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर 15 विमानों का मार्ग बदला गया जबकि 100 से अधिक उड़ानों में देरी हुई। सड़कों पर दुर्घटनाओं में इज़ाफ़ा होने लगा है। स्वास्थ्य कारणों से बच्चों के स्कूल बंद कर दिए जाते हैं तो अस्पतालों में सांस और दमा के मरीज़ों की संख्या बढ़ जाती है। यहाँ तक कि एक स्वस्थ व्यक्ति भी ऐसे वातावरण में सांस लेने में दिक़्क़त महसूस करने लगता है। लोगों को खुजली हो रही है और आंखों में जलन व आँखों से पानी आने की शिकायतें आ रही हैं। मास्क लगाना या न लगाना दोनों ही स्थिति में लोगों को सांस लेने में परेशानी हो रही है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी बढ़ते प्रदूषण की वजह से हालात गंभीर बने हुए हैं। पिछले दिनों पाकिस्तान के लाहौर में स्मॉग यानी ज़हरीले धुएं की इतनी मोटी चादर बिछ गई जो अंतरिक्ष से भी दिखाई देने लगी। अब ख़बर तो यहां तक है कि स्मॉग यानी ज़हरीले धुएं से पैदा होने वाले इस प्रदूषण को कम करने के लिए वहां लॉकडाउन लगाने तक की योजना बन रही है।
सवाल यह है कि गत लगभग 2 दशक से निरंतर प्रदूषित होते जा रहे इस ज़हरीले धुएं युक्त वातावरण और अनेक माध्यमों से इनसे होने वाले आर्थिक नुक़्सान व स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के लिये ज़िम्मेदार कौन है। सर्दियों की शुरुआत में हमेशा टी वी व अख़बारों में यह सुर्ख़ियां बनती हैं कि प्रदूषण का स्तर क्या है। विशेषज्ञों के अनुसार स्वच्छ हवा वाले वातावरण के लिये 50 तक AQI होना चाहिये। 50 से कम AQI (एयर क्वालिटी इंडेक्स ) स्वास्थ्य के लिये ठीक रहता है। जबकि दिल्ली राजधानी क्षेत्र (एन सी आर ) से लेकर केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ तक का एयर क्वालिटी इंडेक्स पिछले दिनों 500 के क़रीब पहुँच गया। सरकार से लेकर जनता तक इस अति प्रदूषित वातावरण से निजात पाने के लिये केवल प्रकृति के भरोसे बैठी हुई है कि या तो बारिश हो तो इस ज़हरीली हवा से निजात मिले या फिर तेज़ हवा इस वातावरण से निजात दिलाये। जबकि प्रदूषण से त्राहि त्राहि करती यही जनता या जनता द्वारा चुनी उसकी सरकार इस समस्या से निपटने का कोई भी कारगर उपाय ढूंढ नहीं पाती।
कभी स्कूल्स में छुट्टी कर,कभी निर्माण कार्य रूकवाकर तो कभी सम-विषम नंबर के अनुसार वाहन चलने का निर्देश देकर ऐसी समस्याओं से निजात के उपाय तलाशे जाते हैं। जबकि प्रदूषण फैलाने के ज़िम्मेदार वाहनों की संख्या प्रतिदिन लाखों की तादाद में बढ़ती जा रही है। उद्योगों से प्रदूषित धुआं निरंतर निकलता रहता है। पूरे देश की सड़कें धुल मिटटी से पटी पड़ी हैं। खेतों में फ़सलों के अवशेष बेरोकटोक जलाये जा रहे हैं। जगह जगह आम लोग कूड़े के ढेर में बेख़ौफ़ होकर आग लगाते हैं जिनमें रबड़,पॉलीथिन,प्लास्टिक आदि सब कुछ जलाया जाता है। इसी तरह आतिशबाज़ी चलाने के लिये चाहे अदालतें मना करें या सरकारें, कोई भी मानने को तैयार नहीं। बल्कि हर साल आतिशबाज़ी का चलन व इनकी खपत बढ़ती ही जा रही है। यदि आप दीपावली पर आतिशबाज़ी चलाने को लेकर ‘ज्ञान’ देने लगे तो समझो आप को सनातन विरोधी होने का प्रमाण पत्र तो उसी क्षण मिल जायेगा। गुरपूरव पर होने वाली आतिशबाज़ी पर सवाल उठाया तो दीपावली का सवाल खड़ा होगा। इसी तरह शब् बरात हो या नया साल,रोज़ होने वाले शादी ब्याह कोई भी आयोजन आतिशबाज़ी से अछूता नहीं है। और ज़ाहिर है ऐसी आतिशबाज़ीयों का एक ही परिणाम है, ज़हरीला धुआं,जान लेवा प्रदूषण,स्मॉग यानी ज़हरीले धुयें युक्त कोहरे की चादर और अंततः बदलता मौसम व ग्लोबल वार्मिंग।
जिसतरह बारिश के दिनों में शहरों में समुचित जल निकासी का प्रबंध न होने के चलते शहरों व क़स्बों में बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है और इससे संबंधित ख़बरें लेख व परिचर्चाएं वर्षा ऋतू के दौरान पढ़ने सुनने को मिलती हैं। परन्तु बारिश ख़त्म होते ही जनता व सरकार सभी हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं और अगले साल की बारिश व इससे होने वाली तबाही की प्रतीक्षा करने लगते हैं। ठीक उसी तरह हर साल दीपावली के बाद और सर्दियों के आग़ाज़ में हर वर्ष यही प्रदूषण व ज़हरीले धुएं की चर्चा सुर्ख़ियों में आ जाती है। इस विषय को लेकर हमारे समाज की जागरूकता व समझ का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न तो कोई अतिशबाज़ियों से परहेज़ के लिए तैयार है न ही यह मानने के लिये तैयार है कि पराली या खेतों में फ़सलों के अवशेष जलने से प्रदूषण फैलता है। धनाढ्य या नव धनाढ्य लोग मात्र एक सवारी के साथ सड़कों पर कारें दौड़ाते फिरते हैं। सड़कों पर बे रोकटोक धुंआ करना तो गोया लोगों के मौलिक अधिकारों में शामिल हो गया है। यहाँ तक कि रोज़ाना कई जगह ख़ुद नगर पालिका के कर्मचारी झाड़ू देने के बाद जगह जगह इकठ्ठा किये गये कूड़े के ढेर में अपने ही हाथों से माचिस लगा देते हैं। गोया पढ़ा लिखा हो या अनपढ़,ग़रीब हो या अमीर,वैश्विक स्तर पर प्रदूषण बढ़ने के लिये सभी ज़िम्मेदार हैं। इसलिये भले ही सतही उपाय कितने ही क्यों न कर लिये जाएँ परन्तु हक़ीक़त तो यही है कि ‘स्मॉग प्रदूषण ‘ अब एक लाईलाज संकट बन चुका है।