तनवीर जाफ़री
मध्ययुगीन भारत के सर्व समाज के लोकप्रिय शासक छत्रपति शिवाजी महाराज के नाम को लेकर अक्सर कोई न कोई विवाद खड़ा करने की कोशिश की जाती रही है। शिवाजी के नाम का राजनैतिक लाभ तो सभी उठाना चाहते हैं परन्तु उनके शासन करने की शैली,उनकी उदारता,धार्मिनिर्पेक्ष मूल्यों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर सभी पर्दा भी डालना चाहते हैं। इसके बजाये शिवाजी महाराज के जीवन व उनके व्यक्तित्व को अपने अपने राजनैतिक लाभ के मद्देनज़र अनेक नेता व राजनैतिक दल अपने ही तरीक़े से परिभाषित करने की कोशिश करते रहते हैं। शब्दों के हेर फेर से उनके वृहद मक़सद पर पर्दा डालकर कुछ संकीर्ण विचारों वाले संगठन व इनसे जुड़े नेता शिवाजी को भी अपने ‘संकीर्ण’ विचार के फ़्रेम में फ़िट करना चाहते हैं। परन्तु उपलब्ध दस्तावेज़ व इतिहास के स्वर्णिम पन्ने इन संकीर्ण सोच रखने वालों की इन कोशिशों पर हमेशा पानी फेर देते हैं। और तभी यह अतिवादी संकीर्ण लोग इतिहास बदलने की मुहिम चलाने लगते हैं और वास्तविक इतिहास को झुठलाने में लग जाते हैं।
शिवाजी के नाम पर छिड़ा ताज़ा विवाद महाराष्ट्र के राजयपाल व आर एस एस के समर्पित प्रचारक रहे भगत सिंह कोश्यारी द्वारा दिये गये एक बयान को लेकर छिड़ा है जिसमें उन्होंने शिवाजी को ‘पुराना आदर्श ‘ और बाबासाहेब आम्बेडकर व केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी को ‘नया आदर्श’ बताया। इतना ही नहीं बल्कि भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने कथित तौर पर यह भी कहा कि- शिवाजी ने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से पांच बार ‘माफ़ी मांगी’ थी। शिवाजी के अपमान का यह मामला अब मुंबई उच्च न्यायालय तक पहुँच गया है जहाँ एक याचिका दायर कर कोश्यारी को राज्यपाल पद से हटाने की मांग की गई है। साथ ही इसी याचिका में राज्यपाल कोश्यारी व भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी के विरुद्ध एफ़ आई आर दर्ज करने की मांग भी की गई है। शिवाजी के तेरहवें वंशज उदयन राजे भोंसले ने तो यहाँ तक कहा है कि -‘ कोश्यारी एक ‘थर्ड क्लास ‘ व्यक्ति है। इसे राज्यपाल पद से हटाकर राजभवन से बाहर करना चाहिए। क्योंकि वह यहाँ बैठने के क़ाबिल नहीं। इसे राजभवन से निकालकर वृद्धाश्रम भेज देना चाहिये।’
कोश्यारी अथवा किसी अन्य भाजपा अथवा संघ परिवार के नेता द्वारा शिवाजी ही नहीं देश के किसी भी शासक अथवा नेता के उदारवादी व धर्मनिरपेक्ष पक्ष पर पर्दा डालना और उसी घुमा फिरा कर अतिवादी हिंदूवादी बताना इनकी दूरगामी रणनीति का एक हिस्सा है। अन्यथा जिस संघ व भाजपा के लोग पौराणिक कथाओं के महापुरुषों को अनंत काल तक के लिये मानव आदर्श मानते हों उनका मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के महान नायक को पुराना आदर्श बताना आश्चर्य का विषय है। याद कीजिये वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने पाकिस्तान में जिन्ना की मज़ार पर जाने के बाद जिन्ना को ‘धर्म निरपेक्ष ‘ नेता बताकर अपना पूरा राजनैतिक कैरियर समाप्त कर लिया। इतना ही नहीं बल्कि टीपू सुल्तान जैसे देशभक्त,उदारवादी व धर्मनिरपेक्ष शासक को बदनाम करने में भी यह अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं। इनके आदर्श केवल वही हैं जो घोर अतिवादी हिंदुत्व पर विश्वास करने वाले हैं। भले ही वे अंग्रेज़ों के चापलूस ही क्यों न रहे हों।
इतिहासकारों ने सप्रमाण लिखा है कि शिवाजी ने 1645 में पहली बार ‘हिंदवी स्वराज्य’ शब्द का प्रयोग किया था। इस हिंदवी स्वराज्य का अर्थ विदेशी ताक़तों से छुटकारा पाना और अपना यानी हिन्द के लोगों का राज्य स्थापित करना था न कि हिन्दू राष्ट्र बनाना। शिवाजी धर्म की राजनीति में विश्वास नहीं करते थे। वे धर्मनिरपेक्ष थे और उन्होंने अपने राज्य को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया था। शिवाजी का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप इन्हें भला कैसे नज़र आयेगा क्योंकि शिवाजी ने तो अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने महल के ठीक सामने एक भव्य मस्जिद का निर्माण केवल इस मक़सद से करवाया था ताकि उनके मुस्लिम सैनिक,कर्मचारी तथा मुस्लिम रिआया (प्रजा ) को नमाज़ अदा करने में आसानी हो। जबकि अपने इसी महल की दूसरी तरफ़ अपने पूजा पाठ के लिये जगदीश्वर मंदिर का निर्माण कराया था। जब गुजरात में एक चर्च पर आक्रमण हुआ और चर्च क्षतिग्रस्त हुआ उस समय शिवाजी ने ईसाई पादरी फ़ादर अंब्रोज़ की आर्थिक सहायता कर चर्च के पुनरुद्धार में उनकी मदद की। मस्जिदों चर्चों को गिराने व उनपर हमला करने कराने वालों से भला शिवाजी का यह ‘राज धर्म ‘ निभाना कैसे सहन हो सकता है ?
शिवाजी की सेना में न केवल बड़ी संख्या में मुसलमान शामिल थे बल्कि उनके अफ़सरों और कमांडरों में भी बहुत सारे लोग मुसलमान थे। शिवाजी के सबसे विश्वासपात्र सहयोगी एवं उनके निजी सचिव का नाम मुल्ला हैदर था। शिवाजी के सारे गुप्त दस्तावेज़ मुल्ला हैदर की सुपुर्दगी में ही रहा करते थे तथा शिवाजी का सारा पत्र व्यवहार भी उन्हीं के ज़िम्मे था। मुल्ला हैदर शिवाजी की मृत्यु होने तक उन्हीं के साथ रहे। ‘पूना महज़र’ जिसमें शिवाजी के दरबार की कार्रवाईयां दर्ज हैं उसमें 1657 ई में शिवाजी द्वारा अफ़सरों और जजों की नियुक्ति किए जाने का भी उल्लेख किया गया है। शिवाजी की सरकार में जिन मुस्लिम क़ाज़ियों और नायब क़ाज़ियों को नियुक्त किया गया था उनके नामों का ज़िक्र भी ‘पूना महज़र’ में मिलता है। जब शिवाजी के दरबार में मुस्लिम प्रजा के मुक़द्दमे सुनवाई के लिए आते थे तो शिवाजी मुस्लिम क़ाज़ियों से सलाह लेने के बाद ही फ़ैसला देते थे।
मुसलमानों से नफ़रत करने वाले कुछ लोग उस समय शिवाजी की सेना में भी थे जिन्हें शिवाजी का मुसलमानों पर भरोसा करना रास नहीं आता था। वे उनके विरुद्ध साज़िशें भी रचते रहते थे। ऐसी ही एक घटना का दस्तावेज़ी सुबूत आज भी मौजूद है। दरअसल शिवाजी के वफ़ादार नेवल कमाण्डरों में दौलत ख़ान और दरिया ख़ान सहरंग नाम के दो मुसलमान कमाण्डर प्रमुख थे। जब यह लोग पदम् दुर्ग की रक्षा में व्यस्त थे उसी समय एक मुसलमान सुल्तान, सिद्दी की फ़ौज ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। शिवाजी ने अपने एक ब्राह्मण सूबेदार जिवाजी विनायक को यह निर्देश दिया कि दौलत ख़ान और दरिया ख़ान को रसद और रुपये पैसे फ़ौरन रवाना कर दिए जाएं। परन्तु सूबेदार विनायक ने जानबूझ कर समय पर यह कुमुक (सहायता) नहीं भेजी। शिवाजी को जब यह पता चला तो इस बात से नाराज़ होकर शिवाजी ने सूबेदार विनायक को उसके पद से हटाने तथा उसे क़ैद में डालने का हुक्म दिया। अपने आदेश में शिवाजी ने लिखा कि- ‘तुम समझते हो कि तुम ब्राह्मण हो, इसलिए मैं तुम्हें तुम्हारी ‘दग़ाबाज़ी ‘ के लिए माफ़ कर दूंगा? तुम ब्राह्मण होते हुए भी कितने दग़ाबाज़ हो, कि तुमने सिद्दी से रिश्वत ले ली। लेकिन मेरे मुसलमान नेवल कमाण्डर कितने वफ़ादार निकले, कि अपनी जान पर खेल कर भी एक मुसलमान सुल्तान के विरुद्घ उन्होंने मेरे लिए बहादुराना लड़ाई लड़ी।’
शिवाजी के जीवन से जुड़ी ऐसी सैकड़ों घटनायें हैं जो उनके धर्म निरपेक्ष व वास्तविक राजधर्म निभाने वाले महान शासक होने का प्रमाण देती हैं। और उनका यही उदारवादी पक्ष विघटनवादी राजनीति करने वालों से के विचारों से मेल नहीं खाता। इसलिये संकीर्ण लोगों को शिवाजी की उदारता नहीं भाती और आज वह इन्हें ‘पुराना आदर्श ‘ नज़र आते हैं।