जल संकट का समाधान: परंपरागत ज्ञान और आधुनिक तकनीक का संगम

Solution to water crisis: A confluence of traditional knowledge and modern technology

जल संरक्षण एक सामूहिक जिम्मेदारी है। पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीकों को मिलाकर जल संकट से बचा जा सकता है। भारत में जल संरक्षण का एक समृद्ध इतिहास रहा है। हमारे पूर्वजों ने भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों के अनुसार जल संरक्षण की अनेक प्रणालियाँ विकसित की थीं, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

  • डॉ. सत्यवान सौरभ

जल संकट आज की दुनिया के सबसे गंभीर मुद्दों में से एक है। बढ़ती जनसंख्या, अनियंत्रित औद्योगीकरण, और जलवायु परिवर्तन ने पानी की उपलब्धता पर गंभीर प्रभाव डाला है। इस संकट से निपटने के लिए हमें परंपरागत जल संरक्षण तकनीकों और आधुनिक विज्ञान व तकनीक के समन्वय की आवश्यकता है।जल संरक्षण का अर्थ है पानी के स्रोतों का समझदारी से प्रबंधन करना ताकि भविष्य में पानी की कमी न हो। भारत के पास दुनिया का केवल 4% मीठा पानी है, लेकिन इसकी 18% आबादी जल संकट से जूझ रही है। इस समस्या को हल करने के लिए सरकार और समुदायों की भागीदारी जरूरी है। आंध्र प्रदेश में जल शक्ति अभियान और नीरू-चेट्टू जैसी योजनाओं ने पानी की उपलब्धता बढ़ाने में मदद की है।

स्थानीय समुदाय अपने पारंपरिक ज्ञान और नए तकनीकी उपायों को अपनाकर पानी का बेहतर उपयोग कर सकते हैं। महाराष्ट्र का हिवरे बाजार मॉडल: इस गाँव में पारंपरिक और आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके भूजल स्तर बढ़ाया गया। वर्षा जल संचयन और कुओं की सफाई से यहाँ जल उपलब्धता बढ़ी। राजस्थान की जोहड़ प्रणाली: छोटे-छोटे तालाबों (जोहड़) के निर्माण से भूजल स्तर सुधरा और सूखे की समस्या कम हुई। उत्तराखंड की चाल-खाल प्रणाली: ये छोटे जलाशय वर्षा जल को संग्रहीत कर भूजल पुनर्भरण में मदद करते हैं। पानी के कुशल उपयोग के लिए पारंपरिक तरीकों और नई तकनीकों को अपनाना जरूरी हैं। नागालैंड की ज़ाबो कृषि पद्धति: यह विधि बारिश के पानी को इकट्ठा कर खेती के लिए उपयोग करती है, जिससे सूखे की मार कम होती है। राजस्थान के टांके वर्षा जल संग्रहण के लिए बनाए गए छोटे जल भंडार हैं, जिनमें अब आधुनिक निस्पंदन तकनीक भी जोड़ी जा रही है। तमिलनाडु में एरियों (तालाब) प्रणाली: यह प्रणाली वर्षा जल को संग्रहित कर सिंचाई और पेयजल आपूर्ति में मदद करती है।

जल संरक्षण के लिए जंगल, नदी, तालाब और मिट्टी को संतुलित बनाए रखना जरूरी है। राजस्थान में ओरण (पवित्र वन) क्षेत्रों में जल स्रोतों और जैव विविधता की सुरक्षा होती है, जिससे मरुस्थलीकरण को रोका जाता है। मेघालय की झरना पुनरुद्धार परियोजना के तहत वनों और जलग्रहण क्षेत्रों को पुनर्जीवित किया जा रहा है, जिससे जल स्रोत संरक्षित हो रहे हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा सेवा यात्रा पहल का उद्देश्य नर्मदा नदी के किनारे पेड़ लगाकर जल संरक्षण और पर्यावरण सुधार को बढ़ावा देना है। महाराष्ट्र की पानी पंचायतें और झारखंड की ग्राम सभाएँ जल संसाधनों के न्यायसंगत उपयोग को सुनिश्चित कर रही हैं।

जलवायु परिवर्तन और अनियमित बारिश जल संकट को बढ़ा सकते हैं। ऐसे में परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियाँ मददगार साबित हो सकती हैं। बुंदेलखंड में सूखा राहत कार्य: तालाबों के पुनर्निर्माण और वर्षा जल संचयन से इस क्षेत्र में पानी की समस्या कम हो रही है। लद्दाख में सर्दियों में कृत्रिम हिमनद बनाए जाते हैं, ताकि गर्मियों में इनसे पानी मिलता रहे। हालांकि, बढ़ते तापमान से यह विधि चुनौतियों का सामना कर रही है। गुजरात में वाडी प्रणाली में जल संरक्षण के लिए टपक सिंचाई और बहुफसलीय खेती अपनाई जाती है। जलवायु परिवर्तन, औद्योगिक प्रदूषण, असमान जल वितरण और सरकारी योजनाओं में पारंपरिक प्रणालियों की अनदेखी प्रमुख बाधाएँ हैं।

समुदायों को जल संसाधनों के प्रबंधन में अधिकार मिलना चाहिए ताकि वे जल को संधारणीय रूप से उपयोग कर सकें। महाराष्ट्र की पानी पंचायतें: इन पंचायतों के माध्यम से किसानों को पानी का न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित किया जाता है। झारखंड में ग्राम सभा अधिनियम के तहत गाँव की सभाएँ छोटे जलाशयों का प्रबंधन कर रही हैं। ओडिशा में पाणी पंचायत: यह योजना सामुदायिक भागीदारी से जल प्रबंधन को बढ़ावा देती है। शहरों को अधिक पानी दिया जाता है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में कमी हो जाती है। उदाहरण के लिए, चेन्नई के लिए आसपास के गाँवों से पानी लिया जाता है, जिससे किसानों को परेशानी होती है। हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे गंगा जैसी नदियों का प्रवाह कम हो रहा है और जल संकट बढ़ रहा है।
पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को सरकारी योजनाओं में ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। कई उद्योग अपशिष्ट जल को नदियों और तालाबों में छोड़ देते हैं, जिससे जल स्रोत दूषित हो जाते हैं।

परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियों को कानूनी दर्जा मिलना चाहिए। वैज्ञानिक संस्थानों, सरकारी एजेंसियों और स्थानीय समुदायों के बीच साझेदारी को मजबूत करना चाहिए। IIT मद्रास ग्रामीण इलाकों में वर्षा जल संचयन के लिए तकनीकी सहायता दे रहा है। जल प्रबंधन योजनाओं में स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ानी चाहिए। जल, जंगल और भूमि को एक साथ जोड़कर संरक्षण योजनाएँ बनानी चाहिए। आधुनिक तकनीकों और पारंपरिक ज्ञान को मिलाकर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की रणनीति बनाई जानी चाहिए। शहरी जल पुनर्चक्रण: शहरों में अपशिष्ट जल को पुनः उपयोग में लाने की प्रणाली विकसित करनी चाहिए।

जल संरक्षण केवल सरकारी प्रयासों से संभव नहीं है, बल्कि इसमें समुदायों की भागीदारी भी बहुत जरूरी है। पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक को मिलाकर जल संसाधनों का कुशल प्रबंधन किया जा सकता है। जल शक्ति अभियान और मनरेगा जैसी योजनाओं के साथ AI आधारित निगरानी प्रणाली को जोड़कर जल संरक्षण को और प्रभावी बनाया जा सकता है। इससे जल संकट से निपटने में मदद मिलेगी और भविष्य के लिए जल सुरक्षा सुनिश्चित होगी। कानूनी मान्यता, वैज्ञानिक सहयोग, स्थानीय भागीदारी, जल पुनर्चक्रण और जलवायु अनुकूलन उपायों को अपनाकर जल संरक्षण को प्रभावी बनाया जा सकता है।

जल संकट से निपटने के लिए हमें अतीत की सीख और भविष्य की तकनीकों के बीच संतुलन बनाना होगा। परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियाँ हमें स्थिरता और स्थानीय अनुकूलन का ज्ञान देती हैं, जबकि आधुनिक तकनीकें जल संसाधनों के कुशल प्रबंधन में सहायता कर सकती हैं। यदि हम दोनों का संगम करके कार्य करें, तो जल संकट का स्थायी समाधान प्राप्त किया जा सकता है।

“बूँद-बूँद से घड़ा भरता है” – जल संरक्षण की दिशा में एक छोटा प्रयास भी भविष्य में बड़ा बदलाव ला सकता है।