अजय कुमार
अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पूर्व समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच दलित-मुस्लिम वोटों को लेकर रार बढ़ने लगी है,जिस तरह से दोनों दलों के नेता एक-दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश में लगे हैं,उससे तो यही लगता है कि अब शायद ही सपा-बसपा प्रमुख एक साथ 2019 की तरह लोकसभा चुनाव लड़ना तो दूर एक मंच पर भी खड़े नजर नहीं आएंगे। बसपा प्रमुख मायावती समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक में तो समाजवादी प्रमुख बसपा के गैर जाटव दलितों पर नजर जमाये हुए हैं। दरअसल,बसपा सुप्रीमों मायावती दलितों में जाटव बिरादरी से आती हैं तो सपा प्रमुख अखिलेश की सबसे मजबूत पकड़ यादव वोटरों पर हैं। बसपा के गैर जाटव और सपा के गैर यादव वोटर अक्सर ही पार्टी से झिटक कर इधर-उधर चले जाते हैं। इस बार भी ऐसे वोटरों पर सपा और बसपा दोनों की नजर है। वहीं मुस्लिम वोटरों के लिए भी सपा-सपा में ताल ठोंकी जा रही है,जो हालात नजर आ रहे हैं उससे तो यही लगता है कि यह दोनों नेता बीजेपी को रोकने से पहले स्वयं एक-दूसरे को निपटा देने को आतुर हैं।
सपा-बसपा की सियासी जंग में भाजपा तीसरा कोण बनी हुई है। उसकी भी नजर गैर जाटव दलितों और गैर यादव पिछड़ों दोनों पर लगी हुई है। दलितों में जाटव की आबादी अधिक होने के साथ समाज में सबसे प्रभावशाली भी है। इसी लिए सपा गैर-जाटव दलित वोट बैंक को लुभाने की कोशिश में लगी हुई है। इस वोट बैंक पर भाजपा की भी नजर है। साथ ही सपा मायावती को सीधे निशाना साधने से बच रही है। हालांकि वह यह संदेश देने की कोशिश जरूर कर रही है कि मायावती परोक्ष रूप से भाजपा को फायदा पहुंचा रही हैं। सपा के इस दोहरे रवैये से बसपा सुप्रीमों का पारा चढ़ा हुआ है। उस पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा का कांशीराम जयंती मनाने ने आग में घी डालने का काम किया।अखिलेश यादव के दांव से तिलमिलाई मायावती ने उनके खिलाफ गेस्ट हाउस कांड वाला इमोशनल कार्ड चला है। 03 अप्रैल को लखनऊ में उन्होंने बीएसपी के नेताओं की मीटिंग बुलाई थी। इसमें उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी दलित विरोधी है। अगर इनके मन में हमारे लिए कोई सम्मान होता तो फिर गेस्ट हाउस की घटना नहीं होती।
कांशीराम के नाम पर और बाबा साहेब अंबेडकर के मान सम्मान के बहाने अखिलेश की नज़र दलित वोट पर है। पिछले तीस-पैंतीस सालों से ये वोट बैंक लगातार बीएसपी के साथ रहा है। पहले कांशीराम और फिर मायावती के एक इशारे पर वोट करता रहा। अखिलेश यादव की तैयारी एक नए सोशल इंजीनियरिंग की है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष की कोशिश दलितों को जोड़ने की है। पहले यही प्रयास वे मायावती के साथ पिछले लोकसभा चुनाव में कर चुके हैं,जिसे अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव अपने बल पर दोहराना चाहते हैं।यूपी में लोकसभा की 80 सीटें दांव पर हैं।
वैसे बता दें जाटव समाज तो अभी भी मायावती के साथ है। पर पासी, वाल्मीकि, धोबी और सोनकर जैसे दलित जाति के लोग कहीं समाजवादी पार्टी के कहीं बीजेपी के साथ हैं। अखिलेश ये साबित करने में जुटे हैं कि बीजेपी को हराने के लिए दलित अब मायावती नहीं उनका समर्थन करें। इसीलिए अखिलेश कभी कहते हैं कि मैं शूद्र है. फिर आगे वे कहते हैं कि बीएसपी के उम्मीदवारों की लिस्ट तो बीजेपी ऑफिस से आती है।अखिलेश अब मायावती को बीजेपी की बी-टीम बताने में लगे हैं। अगर इसमें वे कामयाब रहे तो फिर एंटी बीजेपी दलित वोट उनके साथ जुड़ सकता है।वैसे अखिलेश यादव ने यही प्रयोग 2019 के लोकसभा चुनाव में किया था। बीएसपी के साथ गठबंधन कर उन्होंने बड़ा दांव चला था। इससे समाजवादी पार्टी को तो कोई फ़ायदा नहीं हुआ। लोकसभा में उनके सांसदों की संख्या 5 ही रही। पर मायावती को इसका फ़ायदा मिल गया। 2014 के चुनाव में बीएसपी का तो खाता तक नहीं खुला था। पर समाजवादी पार्टी के गठबंधन में उसने 10 सीटें जीत लीं थीं।
बहरहाल,उत्तर प्रदेश की राजनीति में यूं तो यादव और गैर यादव ओबीसी की अहमियत हमेशा रही है, लेकिन कुछ वर्षो पूर्व तक ओबीसी को इस तरह अलग-अलग करके नहीं देखा जाता था। भाजपा ने सबसे पहली बार यूपी में कुर्मी जाति के नेता कल्याण सिंह को आगे करके पिछड़ों में यादव के राजनैतिक वर्चस्व को तोड़ने का काम किया था, तभी वह 1991 में सत्तारूढ़ हुई तो कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था। इसी के बाद समय-समय पर गैर यादव ओबीसी भाजपा की तरफ लामबंद होता रहा। कुर्मी वोट बैंक के सहहारे ही कल्याण सिंह दो बार यूपी के सीएम रहे। भाजपा ने इसके बाद राजनाथ सिंह और फिर राम प्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया। भाजपा के लोग खुद मानते हैं कि कल्याण सिंह के बाद बीजेपी आलाकमान द्वारा किसी और ओबीसी के बड़े चेहरे को सामने न लाने से उसे काफी सियसासी नुकसान हुआ था। उसे 14 साल तक सरकार में आने का मौका नहीं मिला।
2014 में लोकसभा चुनाव पिछड़ी जाति के नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया और इसके बाद 2017 में भाजपा ने फिर गैर यादव ओबीसी को अपनी तरफ लामबंद किया। 2017 में अति पिछड़ी जाति के केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भाजपा विधानसभा चुनाव में उतरी और सहयोगी दलों के साथ 325 सीटें जीत गई। दूसरे दलों से ओबीसी नेता भी इस चुनाव से पहले बीजेपी में शामिल हुए हैं,लेकिन जब सीएम बनने की बारी आई तो योगी आदित्यनाथ बाजी मार ले गए।यह और बात है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा केशव प्रसाद मौर्या को हमेशा इस बात का अहसास कराया जाता रहा कि वह पार्टी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं,जबकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव भाजपा के इस दिग्गज नेता पर डोरे डालने और ताने मारने का का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं।
खैर, यहां इस बात पर भी गौर किया जाना जरूरी है कि जब 1993 में मुलायम सिंह और कांशीराम ने मिलकर दलितों-ओबीसी को लामबंद किया था। इसमें यादव और गैर यादव ओबीसी एक साथ आए। यही वजह है कि राम मंदिर की लहर के बावजूद बीजेपी को सत्ता से बाहर होना पड़ा। दोनों ने मिलकर सरकार बनाई और मुलायम सिंह दूसरी बार 1993 में मुख्यमंत्री बन गए,लेकिन यह कोशिश बहुत लम्बी नहीं चल पाई। इसी बीच स्टेट गेस्ट हाउस कांड हो गया,जिसमें मायावती को जान के लाले पड़ गए और भाजपा नेताओं ने उन्हें बचाने का काम किया था। इसके 26 वर्षो बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ था,जो कुछ माह बाद ही टूट गया था। आज स्थिति यह है कि यूपी में बसपा सुप्रीमों मायावती और सपा प्रमुख अखिलश यादव का ध्यान मोदी के रथ को रोकने से अधिक अपनी आपसी दुश्मनी निपटाने पर ज्यादा है, जिसका फायदा बीजेपी उठाने का शायद ही कोई मौका छोड़ेगी।
उधर,उत्तर प्रदेश में बीजेपी के उभार के बाद 2017 के विधान सभा चुनाव से पूर्व कई गैर जाटव दलित-ओबीसी नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली,लेकिन 2022 आते-आते इसमें से कई ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया और सपा में चले गए। समावजादी पार्टी ने 2022 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी के उसी फॉर्म्युले को लागू किया था। सपा ने आरएलडी के साथ गठबंधन किया और ओम प्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान जैसे नेता जो 2017 के विधान सभा चुनाव के समय भाजपा के साथ थे, 2022 में वह सपा के साथ आ गए थे। इसके अलावा बसपा छोड़कर आए लालजी वर्मा, राम अचल राजभर भी सपा में हैं। सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल भी गैर यादव ओबीसी चेहरा हैं, जो सपा के लिए प्रत्येक चुनाव में अहम भूमिका निभाते रहे है। 2022 के विधान सभा चुनाव के समय भाजपा से कई बड़े गैर यादव ओबीसी नेता सपा में चले गए थे,लेकिन वह बीजेपी को सत्ता से दूर नहीं कर पाए। इसकी बड़ी वजह यह थी कि बीजेपी छोड़ने वाले ज्यादातर नेताओं ने जनता का विश्वास खो दिया था,वहीं इन नेताओं के बीजेपी छोड़ने के बाद भी पिछड़ा वर्ग के चेहरा समझे जाने वाले नेताओं की कोई खास कमी नहीं आई थी। बीजेपी के पास उसके कैडर बेस नेता थे। इनके जरिए बीजेपी गैर यादव वोटरों को लुभाने में सफल रही थी। पीएम नरेंद्र मोदी खुद एक बड़ा चेहरा हैं। इसके अलावा उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार, संजीव बालियान, अनिल राजभर, मुकुट बिहारी वर्मा और लक्ष्मी नारायण चौधरी समेत कई ओबीसी नेता हैं।