पीडीए की सियासत करने वाली सपा एम-वाई में उलझी

SP, which does politics of PDA, is entangled in M-Y

संजय सक्सेना

2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सत्ता से बेदखल होने के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव ने अपनी राजनीतिक रणनीति को बार-बार बदलने की कोशिश की है। विभिन्न गठबंधनों और प्रयोगों के जरिए उन्होंने पार्टी की खोई हुई जमीन वापस पाने की कोशिश की, लेकिन हर बार उन्हें नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। 2017 की हार के बाद अखिलेश ने ठाकुर बनाम ब्राह्मण का नैरेटिव बनाने की कोशिश की, मगर यह रणनीति 2019 के लोकसभा चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव में खास सफल नहीं हो पाई। फिर भी, 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूले ने सपा को उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन दिलाया, जिसमें पार्टी ने 37 सीटें जीतीं। इस जीत ने अखिलेश को एक बार फिर सुर्खियों में ला दिया, लेकिन इसके साथ ही उनकी नई रणनीतियों और पुरानी दुविधाओं ने भी सियासी गलियारों में चर्चा बटोरी।

2024 के लोकसभा चुनाव में सपा की जीत का सबसे बड़ा कारण उनका पीडीए फॉर्मूला रहा, जिसने पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदायों को एकजुट करने में कामयाबी हासिल की। इस बार सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया और 2019 के केवल पांच सीटों के मुकाबले 37 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया। अखिलेश ने इस फॉर्मूले को ‘पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक’ के रूप में पेश किया, लेकिन मौके की नजाकत को देखते हुए उन्होंने ‘अगड़ा’ को भी इसमें शामिल करने की कोशिश की। इस रणनीति ने सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को लुभाने की कोशिश तो की, लेकिन इसने उनकी दुविधा को भी उजागर कर दिया। अखिलेश की यह कोशिश थी कि वह अपने कोर वोट बैंक यादव और मुस्लिम समुदाय को नाराज किए बिना सवर्ण वोटरों को भी अपने पाले में लाएं।

हालांकि, अखिलेश की यह रणनीति हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। बीजेपी ने उन पर जातिवादी राजनीति करने का आरोप लगाया और इसे सवर्ण और गैर-ओबीसी विरोधी करार दिया। खासकर हाल के कुछ घटनाक्रमों ने इस नैरेटिव को और हवा दी। मसलन, इटावा में एक कथावाचक के साथ बदसलूकी के मामले को अखिलेश ने ‘यादव बनाम ब्राह्मण’ का रंग देने की कोशिश की। इससे पहले राणा सांगा विवाद और सपा सांसद रामजीलाल सुमन के घर करणी सेना के हमले को उन्होंने ‘दलित बनाम ठाकुर’ के रूप में पेश किया था। इन घटनाओं में अखिलेश ने अपने कोर वोट बैंक के साथ खड़े होने की कोशिश की, लेकिन इसके चलते ठाकुर और ब्राह्मण समुदायों में उनके खिलाफ नाराजगी देखने को मिली।

इस रणनीति की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अखिलेश का कोर वोट बैंक, खासकर यादव समुदाय, उनकी हर रणनीति का आधार रहा है। अगर वह सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों या ठाकुरों का पक्ष लेते हैं, तो उनके यादव वोटर नाराज हो सकते हैं। वहीं, अगर वह अपने कोर वोटरों के साथ मजबूती से खड़े रहते हैं, तो सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को अपने पाले में लाने की उनकी कोशिश कमजोर पड़ सकती है। यह दुविधा उनके 52वें जन्मदिन पर लगे एक पोस्टर में साफ झलकी, जिसमें लिखा था, ‘हम जातिवादी नहीं, पीडीए वादी हैं।’ इस पोस्टर के जरिए अखिलेश ने यह संदेश देने की कोशिश की कि उनकी राजनीति जातिवाद से ऊपर उठकर समावेशी है। लेकिन बीजेपी ने इसका तुरंत जवाब दिया। लखनऊ में बीजेपी युवा मोर्चा के महामंत्री अमित त्रिपाठी ने पोस्टर लगवाए, जिसमें अखिलेश पर गंभीर आरोप लगाए गए। इन पोस्टरों में लिखा गया कि अखिलेश दलितों और पिछड़ों को सिर्फ वोट बैंक समझते हैं, ब्राह्मणों के नाम पर वोट लेते हैं, और उत्तर प्रदेश को अपराध का गढ़ बनाने वाले नेता हैं।

बीजेपी की यह रणनीति कोई नई नहीं है। 2017 और 2022 के चुनावों में भी उसने सपा को ‘मुस्लिम-यादव’ (माय) गठजोड़ की पार्टी बताकर सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को अपने पक्ष में किया था। इस बार भी बीजेपी यही नैरेटिव सेट करने की कोशिश कर रही है कि सपा सवर्ण और गैर-ओबीसी समुदायों की उपेक्षा करती है। यह रणनीति 2027 के विधानसभा चुनाव में सपा के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है। अखिलेश ने 2027 के लिए ‘मिशन 300’ का लक्ष्य रखा है, जिसमें वह विधानसभा में 300 से ज्यादा सीटें जीतने की योजना बना रहे हैं। लेकिन सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों की नाराजगी उनकी राह में रोड़ा बन सकती है।

2024 की जीत ने सपा को निश्चित रूप से मजबूती दी है। पीडीए फॉर्मूले की सफलता ने अखिलेश को उत्तर प्रदेश की सियासत में एक मजबूत खिलाड़ी के रूप में स्थापित किया। इस फॉर्मूले ने न केवल यादव और मुस्लिम वोटरों को एकजुट किया, बल्कि दलित और अन्य पिछड़े वर्गों को भी सपा के साथ जोड़ा। खासकर दलित वोटरों का एक हिस्सा, जो पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के साथ था, इस बार सपा की ओर खिसका। इसका एक बड़ा कारण था बसपा का कमजोर प्रदर्शन और सपा-कांग्रेस गठबंधन की मजबूत रणनीति। लेकिन इस जीत के बावजूद, अखिलेश की राह आसान नहीं है।

उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपने कोर वोट बैंक को बनाए रखते हुए सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को अपने पाले में लाना। अगर वह सवर्णों को लुभाने के लिए बहुत ज्यादा कोशिश करते हैं, तो उनका कोर वोट बैंक खिसक सकता है। वहीं, अगर वह सिर्फ यादव और मुस्लिम वोटरों पर निर्भर रहते हैं, तो बीजेपी के लिए उन्हें सवर्ण विरोधी साबित करना आसान हो जाएगा। यह दुविधा उनकी रणनीति को और जटिल बनाती है।

इटावा कथावाचक विवाद ने इस दुविधा को और गहरा दिया है। इस मामले में सपा ने अपने कोर वोटरों के साथ खड़े होने का फैसला किया, लेकिन इससे ब्राह्मण समुदाय में नाराजगी बढ़ी है। बीजेपी इस मौके का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। वह बार-बार यह नैरेटिव सेट कर रही है कि सपा केवल यादव और मुस्लिम वोटरों की पार्टी है और सवर्णों की उपेक्षा करती है। यह रणनीति 2017 और 2022 में बीजेपी के लिए कारगर रही थी, और वह 2027 में भी इसे दोहराने की कोशिश कर रही है।
अखिलेश की एक और चुनौती है उनकी पार्टी की छवि। बीजेपी ने सपा को गुंडों और माफियाओं की पार्टी बताकर उसकी छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है। खासकर अखिलेश के जन्मदिन पर लगे बीजेपी के पोस्टरों ने इस नैरेटिव को और मजबूत करने की कोशिश की। इन पोस्टरों में सपा को अपराध और अराजकता से जोड़ा गया, जो सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को प्रभावित करने की रणनीति का हिस्सा है।

2024 की जीत ने सपा को एक नई ऊर्जा दी है, लेकिन अखिलेश के सामने 2027 का रास्ता चुनौतियों से भरा है। पीडीए फॉर्मूले ने उन्हें मजबूती दी, लेकिन सवर्ण और गैर-ओबीसी वोटरों को अपने साथ जोड़ना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। अगर वह इस दुविधा को सुलझा पाए और एक समावेशी छवि बना पाए, तो 2027 में सपा के लिए सत्ता की राह आसान हो सकती है। लेकिन अगर वह अपनी पुरानी रणनीति पर ही निर्भर रहे, तो बीजेपी की सवर्ण और गैर-ओबीसी केंद्रित रणनीति उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है। कुल मिलाकर अखिलेश यादव मुसलमानों(एम) और यादवों(वाई) को खुश करने के चक्कर में पीडीए को नाराज करते जा रहे हैं।पिछड़ों(पी) में अखिलेश के पास यादव वोटरों के अलावा कुछ नहीं बचा है।दलितों(डी)को साथ लेने की अखिलेश की कोशिशें वैसे भी अभी परवान नहीं चढ़ पाई हैं,बस बचे हैं तो मुसलमान जिनके सहारे समाजवादी लम्बी सियासी जंग छेड़ने में लगे हैं।