
सुनील कुमार महला
आज हर कहीं प्रदूषण का बोलबाला है और अब केवल धरती ही नहीं, बल्कि अंतरिक्ष भी प्रदूषण की चपेट में आ चुका है। इसे स्पेस डेब्रिस या अंतरिक्ष कचरा कहा जाता है। पाठकों को बताता चलूं कि जब उपग्रह (सैटेलाइट), रॉकेट, अंतरिक्ष यान आदि अपने कार्य पूरे करने के बाद निष्क्रिय हो जाते हैं या टूट-फूट जाते हैं, तो उनके अवशेष अंतरिक्ष में ही तैरते रहते हैं और यही कचरा या मलबा अंतरिक्ष प्रदूषण कहलाता है।सच तो यह है कि निष्क्रिय उपग्रह,जिनका कार्यकाल पूरा हो जाता है, अंतरिक्ष कचरा पैदा करते हैं। अनेक बार उपग्रहों या मलबे की आपसी टक्कर से भी छोटे-छोटे टुकड़े अंतरिक्ष में फैल जाते हैं। ईंधन खत्म होने के बाद भी रॉकेट के टुकड़े अंतरिक्ष में तैरते रहते हैं।अंतरिक्ष मिशनों की असफलता या यूं कहें कि फेल हुए यान और उनके हिस्से भी अंतरिक्ष कचरे का बड़ा कारण बनते हैं। अंतरिक्ष में कचरा फैलने का दुष्परिणाम यह होता है कि इससे जहां एक ओर पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले नए उपग्रहों और स्पेस स्टेशनों के लिए खतरा पैदा हो जाता है, वहीं दूसरी ओर स्पेस मिशनों की लागत और जोखिम भी इससे बढ़ जाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अंतरिक्ष में बन रहे कचरे के बादल जीपीएस, संचार और मौसम के पूर्वानुमान सहित अंतरिक्ष आधारित तकनीकों पर निर्भर उद्योगों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। इतना ही नहीं, पृथ्वी के वातावरण में गिरते मलबे से जन-जीवन को भी खतरा पैदा होता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि जब अंतरिक्ष में मलबा इतना बढ़ जाए कि उपग्रह भेजना असंभव हो जाए, तो इसे ‘केसलर सिंड्रोम’ के नाम जाना जाता है। आज मानव धरती तो धरती, अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने के लिए नित नए शोध, अनुप्रयोग कर रहा है, लेकिन आज दुनिया भर से लॉन्च होने वाले बड़े सैटेलाइट, कम्युनिकेशन सैटेलाइट, रॉकेट और उनके ईंधन धरती के साथ ही अंतरिक्ष को भी लगातार प्रदूषित कर रहे हैं, यह बहुत ही चिंताजनक है।गौरतलब है कि लंदन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हाल ही के अपने अध्ययन में इसका खुलासा किया है और इस पर अपनी चिंताएं जताई है।यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन(यूसीएल) के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफ़ेसर एलोइस मराइस और उनकी टीम ने यह पाया कि वर्ष 2023 में 223 तथा वर्ष 2024 में 259 रॉकेट लॉन्च किए गए, और कुल मिलाकर, इनसे 153,000 टन से अधिक ईंधन जलाया गया है। इसके बड़े पर्यावरणीय प्रभाव पड़े हैं। जानकारी के अनुसार इन लॉन्चों और मेगा-कॉन्स्टेलेशन सैटेलाइट्स जैसे स्टार लिंक,वनवेब तथा थाउजैंड सैल्स से सूट और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में तीन गुना बढ़ोतरी देखी गई है।ये प्रदूषक ऊपरी वायुमंडल में लंबे समय तक रहते हैं और सतही स्रोतों की तुलना में 500 गुना अधिक गर्मी फैलाने की क्षमता रखते हैं। बताया गया है कि भविष्य में अमेज़न कुईपर मिशन द्वारा इस्तेमाल होने वाले ठोस ईंधन से ओज़ोन-ध्वंसक क्लोरीन यौगिक निकलेंगे, जो धरती की सुरक्षा परत कहलाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंचा सकते हैं। विशेषज्ञ इस बात से सहमत है कि इस संकट के हल के लिए तकनीकी नवाचार और सख्त नियम दोनों की जरूरत है। बहरहाल, शोध में यह भी खुलासा हुआ है कि साल 2024 में 2,539 वस्तुएँ वायुमंडल में वापस आकर जल गईं, जिसके कारण 13,500 टन सामग्री वायुमंडल में घुली। इतना ही नहीं, उपग्रह पुनः प्रवेश से रासायनिक प्रदूषण हुआ है। डॉ. कोनोर बार्कर ने पाया कि उपग्रहों और रॉकेट के टुकड़ों के वायुमंडल में जलने से जारी एलुमिनियम और नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा 2020 की 3.3 बिलियन ग्राम से बढ़कर 2022 में 5.6 बिलियन ग्राम हो गई।प्रोफ़ेसर एलोइस मराइस ने शोध-पत्र में यह दिखाया है कि रॉकेट लॉन्च और अंतरिक्ष कचरा उत्सर्जन ओज़ोन परत की मरम्मत—जिसे मांट्रियल प्रोटोकॉल के तहत हासिल किया गया था—को प्रभावित कर रहे हैं, और वैश्विक जलवायु को भी बदल रहे हैं। पाठकों को यहां बताता चलूं कि मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ओजोन-क्षयकारी पदार्थों के उत्पादन और उपभोग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए 1987 में हस्ताक्षरित एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है, ताकि पृथ्वी की समतापमंडलीय ओजोन परत की रक्षा की जा सके। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि ओजोन परत वायुमंडल के स्ट्रैटोस्फीयर (समताप मंडल) में पाई जाती है, जो धरती की सतह से लगभग 10 से 50 किलोमीटर की ऊँचाई पर फैली हुई है। इसमें ओजोन गैस (O₃) के अणु मौजूद होते हैं। यह सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणें (अल्ट्रावायलेट रेज) जीव-जंतुओं, पौधों और मनुष्यों के लिए हानिकारक होती हैं। ओजोन परत इन किरणों को सोखकर धरती पर पहुँचने से रोकती है। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल एक सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत बहुपक्षीय पर्यावरण समझौता है, जिसका उद्देश्य ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले रसायनों, जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसीज), को नियंत्रित करना है। बहरहाल,यह एक कटु सत्य है कि जैसा कि शोधकर्ता ने भी कहा है कि, रॉकेट और सैटेलाइट से वायुमंडल में पहले से कहीं अधिक प्रदूषण फैल रहा है। भले ही यह उत्सर्जन अन्य उद्योगों से कम हो, लेकिन ऊपरी वायुमंडल में यह 500 गुना अधिक नकारात्मक असर यानि प्रदूषण का कारण बन सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि इससे प्रदूषण रोकने वाली परत को नुकसान पहुंच रहा है।उनका यह कहना है कि रॉकेट और सैटेलाइट से पहले कभी इतना प्रदूषण वायुमंडल की ऊपरी परतों में नहीं छोड़ा गया। यह परत प्रदूषण को लंबे समय तक रोककर रखती है। इंसानों ने वायुमंडल की ऊपरी परतों में इतना प्रदूषण पहले कभी नहीं फैलाया। समय रहते यदि इसे नहीं रोका गया, तो पृथ्वी के वायुमंडल पर इसके गंभीर असर दिख सकते हैं। बहरहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि वर्तमान में दस देशों के अंतरिक्ष में सबसे ज्यादा सैटेलाइट मौजूद हैं। गौरतलब है कि इस साल पृथ्वी के ऑर्बिट में सबसे ज्यादा सैटेलाइट की भीड़ है। वहां मौजूद करीब 12,952 सैटेलाइट में से सबसे ज्यादा अमेरिका के हैं। इसके बाद क्रमशः रूस के 1559, चीन के 906, ब्रिटेन के 763, जापान के 203, भारत के 136,फ्रांस के 100, जर्मनी के 82, इटली के 66 और कनाडा के 64 सैटेलाइट मौजूद हैं। हाल फिलहाल, अंतरिक्ष कचरे को लेकर सवाल यह उठता है कि आखिर इसके पीछे जिम्मेदारी किसकी है ? तो यहां पाठकों को बताता चलूं कि जब अंतरिक्ष मलबा बनता है तो उसे साफ करने या उसकी निगरानी की जिम्मेदारी उस देश की होती है जिसने वस्तु को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया। इस क्रम में अंतरिक्ष मलबे पर पहला जुर्माना 2023 में यूएस फेडरल कम्युनिकेशंस कमीशन द्वारा डिश नेटवर्क को जारी किया गया था। पाठकों को यहां यह भी बताता चलूं कि पिछले कुछ दिनों में केन्या समेत अन्य जगहों पर अंतरिक्ष से मलबा गिरने की खबर मिली थी। बहरहाल, जो भी हो, आज तकनीक और नवाचार के इस युग में अंतरिक्ष मलबा एक बड़ा खतरा बनता चला जा रहा है। इसके हमारे वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष मलबे की सफाई के निवारक उपाय अपनाने होंगे। मसलन,इस क्रम में हमें नए उपग्रह और रॉकेट ‘एंड आफ लाइफ प्लान’ के साथ लॉन्च करना होगा। जैसे ईंधन बचाकर अंत में उन्हें ‘ग्रेवयार्ड ओर्बिट’ या वायुमंडल में जलाने भेजना होगा। इतना ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाने होंगे, ताकि हर स्पेस एजेंसी लॉन्च से पहले मलबा प्रबंधन का रोडमैप दे। छोटे, टिकाऊ और पुन: प्रयोग योग्य रॉकेट तकनीक अपनाई जा सकती है। सक्रिय सफाई तकनीक इस क्रम में काफी उपयोगी साबित हो सकती है।रोबोटिक आर्म / नेट टेक्नोलॉजी-मलबे को पकड़कर पृथ्वी के वायुमंडल में गिराकर जलाना होगा। लेज़र तकनीक भी एक शानदार कदम इस दिशा में साबित हो सकता है। इस तकनीक के अंतर्गत धरती या अंतरिक्ष से शक्तिशाली लेज़र किरणों द्वारा छोटे मलबे की गति बदलकर उसे वायुमंडल में जलाया जाता है।’हरपून सिस्टम’ के अंतर्गत बड़े मलबे को पकड़कर खींचकर नीचे लाया जा सकता है। मैग्नेटिक कैचर यानी कि धातु आधारित मलबे को चुंबकीय बल से खींचकर नष्ट किया जा सकता है। हाल फिलहाल, यदि हम यहां पर अंतरिक्ष प्रदूषण को लेकर नए शोध और भविष्य की योजनाओं को लेकर बात करें तो ‘क्लियर स्पेस-1(ईएसए प्रोजेक्ट, 2026) यूरोपियन स्पेस एजेंसी पहला मिशन लॉन्च करेगी जो स्पेस मलबे को पकड़कर नष्ट करेगी। एस्ट्रो स्केल (जापान) अंतरिक्ष से सक्रिय मलबा हटाने की तकनीक पर काम कर रही है। इतना ही नहीं,एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा और भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो भविष्य में सहयोग करके ‘स्पेस ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम विकसित करना चाहते हैं। अंतरिक्ष मलबे को कम करने के लिए उपग्रहों का पुन: उपयोग(पुराने सैटेलाइट के पार्ट्स को नए मिशन में उपयोग करना) और रिसाइक्लिंग पर भी ध्यान देना होगा। भविष्य में कक्षा में मौजूद धातुओं को इकट्ठा करके स्पेस रिसाइक्लिंग फैक्ट्रीज बनाई जा सकती हैं। संक्षेप में कहें तो, अंतरिक्ष मलबे की सफाई तीन स्तंभों पर निर्भर है –नया मलबा बनने से रोकना, मौजूदा मलबा हटाना, और रिसाइक्लिंग को बढ़ावा देना। अंत में, यही कहूंगा कि अगर समय रहते अंतरिक्ष में बढ़ते कचरे और मलबे पर नियंत्रण किया जाए तो यह मानवता और धरती दोनों के लिए लाभकारी होगा। इससे हमारे उपग्रहों, अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा होगी। अगर अंतरिक्ष साफ रहेगा तो नई स्पेस मिशन, शोध कार्य और तकनीकी प्रयोग सुरक्षित और कम लागत में हो सकेंगे। आर्थिक बचत और पृथ्वी की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि जब अंतरिक्ष सुरक्षित होगा, तो अंतरिक्ष पर्यटन और भविष्य में बसाहट (जैसे चाँद या मंगल पर जीवन) के प्रयास आसान और सुरक्षित होंगे। कुल मिलाकर यह बात कही जा सकती है कि अंतरिक्ष प्रदूषण से बचाव मानव जीवन, प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था और भविष्य की अंतरिक्ष खोज, हम सभी के लिए अत्यंत लाभकारी है।