राज्य सरकार बनाम राज्यपाल: विधेयकों पर विलम्ब

प्रो. नीलम महाजन सिंह

समय-समय पर राज्यों के राजपाल व प्रजातांत्रिक सरकारों में ठन जाती है, क्योंकि ‘राज्यपाल केंद्र सरकारों के कार्यकर्ता बन जाते हैं’। यह असमंजस संविधान निर्माताओं ने शायद कभी सोचा भी नहीं था! भारतीय संविधान का अनुच्छेद 163 (1), अनिवार्य रूप से राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति को केवल उन मामलों तक सीमित करता है जहाँ संविधान स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट हो। राज्यपाल को अपने विवेक पर कार्य करना चाहिये व इसे स्वतंत्र रूप से लागू करना चाहिये। हालाँकि राज्यपाल, मंत्रिपरिषद की सहायता व सलाह पर कार्य करते हैं लेकिन उस पर अपने सुझाव देने पर उन पर कोई रोक नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 175 – 176 में, राज्य सरकार द्वारा तैयार किया गया भाषण है, जिसमें उनकी उपलब्धियाँ व एजेंडे शामिल होते हैं। हाल ही में तमिलनाडु के गवर्नर टी.एन.रवि ने, सरकारी भाषण के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया था। तमिलनाडु विधानसभा में राज्यपाल आर.एन. रवि का संबोधन, संविधान के अनुच्छेद 175 और 176 में है। केरल में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने दो बार सरकार द्वारा तैयार किए गए भाषण के कुछ हिस्सों को छोड़ने का प्रयास किया था। पंजाब व पश्चिम बंगाल में भी इसी तरह के उदाहरण सामने आए हैं। तमिलनाडु राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा अपना भाषण पढ़ने से पहले ही इसे विफल करने की कोशिश की गई। उन्हें शर्मिंदा करने के लिए विधानसभा के ‘वेल’ में नारेबाज़ी हुई व कुछ सदस्यों ने वॉकआउट किया। हालाँकि सरकार ने हंगामे में भाग नहीं लिया, लेकिन वह मूकदर्शक थी।

राज्यपाल रवि सरकार के समर्थन के बिना भाषण पढ़ते रहे।उन्होंने कुछ हिस्सों को छोड़ना ही चुना व कुछ वाक्यांश जोड़े, जो सरकार द्वारा तैयार किए गए मूल भाषण का हिस्सा नहीं थे। हालाँकि यह समझा जाता है कि राज्यपाल को सरकार द्वारा तैयार किया गया भाषण पढ़ना होता है, लेकिन वैध कारणों से कुछ हिस्सों को छोड़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता है। केरल राज्य निवेश आकर्षित करने में ‘नंबर वन बनने के करीब है’; जिसे राज्यपाल के भाषण से निकाल दिया गया। यह सरकार की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए लिखा गया था। तथाकथित ‘द्रविड़ियन मॉडल’ न तो शासन न ही अर्थव्यवस्था का एक ‘सिद्ध मॉडल’ है व न ही इसे संवैधानिक समर्थन प्राप्त है। जिस प्रकार राज्यपाल का दायित्व है कि वह सरकार द्वारा तैयार किये गये भाषण को पढ़े, उसी प्रकार सरकार का दायित्व है कि वह राज्यपाल के समक्ष सही तथ्य प्रस्तुत करे। राज्यपाल द्वारा इस्तेमाल किया गया शब्द ‘तमिझागम’ दुनिया भर के तमिलों के बड़े भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है व इसे राज्य के खिलाफ नहीं माना जा सकता है।

सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड ने केरल के राज्यपाल, आरिफ मोहम्मद खान के कार्यालय से अदालत के नवीनतम फैसले को पढ़ने के लिए कहा, जिसमें राज्यपालों को सहमति के लिए पेश किए गए विधेयकों पर गैर-मौजूद वीटो शक्ति का इस्तेमाल किए बिना राज्य विधानमंडल के भीतर कार्य करने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। पंजाब द्वारा राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के ख़िलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में स्पष्ट किया गया कि ‘राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयकों पर नहीं बैठे रह सकते’। रोके जाने की स्थिति में, राज्यपाल को अपनी असहमति का कारण बताने वाले संदेश के साथ यथाशीघ्र विधेयक सदन को लौटा देना चाहिए। फैसले में कहा गया कि यदि सदन संशोधन के साथ या बिना संशोधन के विधेयक को दोबारा पारित कर देता है तो राज्यपाल उसे पारित करने के लिए बाध्य होंगें। वरिष्ठ वकील के. वेणुगोपाल ने केरल की ओर से पेश, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली पीठ में अपना पक्ष प्रस्तुत किया। “राज्यपाल के सचिव को फैसले को देखना चाहिए और देख कर उन्हें क्या कहना है, यह बताना चाहिए।” विधेयकों पर सहमति में देरी करना कुछ राज्यों के राज्यपालों के बीच एक ‘स्थानिक समस्या’ बन गई है। विधेयक 8 से 23 महीने तक लंबित पड़े रहते हैं। अनुच्छेद 168 के तहत राज्यपाल व राज्य विधानमंडल का हिस्सा हैं। राज्यपाल ऐसे तरीके से कार्य नहीं कर सकते जो लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों की इच्छाओं के विपरीत हो। अनुच्छेद 168 में कहा गया है कि “प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमंडल होगा जिसमें राज्यपाल व दो सदन होंगे जिन्हें क्रमशः विधान परिषद व विधान सभा के रूप में जाना जाएगा”। केरल की पिन्नारी विजयन सरकार ने राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान पर आरोप लगाया है कि वे महत्वपूर्ण विधेयकों, खासकर कोविड के बाद सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को संबोधित करने वाले विधेयकों पर अनिश्चित काल तक बैठ कर राज्य के ‘लोगों के अधिकारों का हनन’ करने की कोशिश कर रहे हैं। राज्यपाल द्वारा तात्कालिकता की कमी का मनमाना प्रदर्शन केरल के लोगों के जीवन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। आठ प्रमुख विधेयक वर्तमान में केरल राज्यपाल के पास लंबित हैं। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार व केंद्र सरकार में भी गहरी रस्साकशी चल रही है। कई विधेयकों में अत्यधिक सार्वजनिक हित शामिल होते हैं। दिल्ली शीर्ष अधिकारी विवाद पर, मुख्य न्यायाधीश ने पूछा, “मुख्यमंत्री व उपराज्यपाल बातचीत क्यों नहीं करते?” दिल्ली सरकार व एल.जी. के बीच विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से पांच नामों की सूची मांगी है। यह चुनौती उस विवादास्पद अध्यादेश की पृष्ठभूमि में थी जिसने केंद्र को नौकरशाहों की पोस्टिंग पर नियंत्रण दिया था व दिल्ली सरकार ने तर्क दिया कि ऐसी नियुक्तियाँ उसके परामर्श के बिना नहीं की जा सकतीं। वरिष्ठ वकील मनु अभिषेक सिंघवी ने कहा, “हमेशा दिल्ली सरकार ही नियुक्ति करती है। अब एक सामान्य अध्यादेश है; जिस पर मैं आपत्ति जता रहा हूं व यह एल.जी. का एकतरफा फैसला है”। केंद्र से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि वास्तव में, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली सेवा विधेयक का ज़िक्र करते हुए “आक्षेपित संशोधन से पहले भी ये नियुक्तियां की थीं”। निष्कर्ष में ये कहना उचित है कि ब्रिटेन के उपनिवेशक साम्राज्यवाद का परिणाम, ‘राज्यपाल का ऑफिस है’। राज्यपाल व उपराज्यपाल संविधानिक पद हैं, परंतु इनका दुरुपयोग निर्वाचित सरकारों को उखाड़ने के लिए किया जाता है। महाराष्ट्र में पूर्व गवर्नर
भगत सिंह केशरी ने ‘आगाणी सरकार’ को उखाड़ने का प्रयास किया, जम्मू कश्मीर में सतपाल मालिक ने भी ओमर अब्दुल्ला के साथ ‘ट्विटर युद्ध’ किया, ओ.पी. धनखड़ ने ममता बैनर्जी संग रस्साकशी की, दिल्ली के उपराज्यपाल विनय कुमार सकसेना व केजरीवाल सरकार भी उच्चतम न्यायालय में हैं, पंजाब, नॉर्थ ईस्ट राज्यों के राज्यपाल तो केंद्र सरकार के चौकीदार बन कर रह गए हैं! अच्छा होगा अगर राज्यपाल व उपराज्यपाल के पदों को समाप्त कर ‘लोकायुक्त’ को सरकारों व केंद्र मध्यस्थता का माध्यम बनाया जाए। अन्यथा राजनीतिक स्वार्थ, जनहित पर अप्रिय साबित हो सकते हैं।

प्रो. नीलम महाजन सिंह
(वरिष्ठ पत्रकार, संविधान विशेषज्ञ, राजनीतिक समीक्षक व परोपकारक)