ऋतुपर्ण दवे
अगर हम अपने आदर्शों को आतंकवादी कहेंगे तो फिर राष्ट्रवादी कौन होगा? यह सवाल इन दिनों देश में बड़ी गंभीरता से लोगों को परेशान और हतप्रभ कर रहा है। माना कि ऐसे सवालों की जद में राजनीति होती है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के लिए प्राणों की आहुति देने वालों उसमें भी खासकर देश भक्ति की अनूठी मिशाल पेश करने वालों पर स्वतंत्रता या इससे जुड़े आन्दोलनों या कोशिशों के इतने लंबे अरसे बाद केवल सियासत चमकाने के लिए सवाल उठाना न केवल हैरान और परेशान करता है बल्कि भावनाओं को आहत भी करता है। लगता नहीं कि ऐसे सवालों को अब और खासकर तब जब देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाने की तैयारी में पूरे उत्साह, जोश और जोर-शोर से जुटा है उठाना किसी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा हो सकता है? पंजाब की संगरूर सीट से नए नवेले सांसद सिमरनजीत सिंह मान का भगत सिंह के बलिदान पर सवाल उठाना एक तो बकवास और दूसरा गैर जरूरी है। यकीनन हर उपचुनाव के नतीजों के खास मायने होते हैं लेकिन मुख्यमंत्री भगवत सिंह मान की पंजाब में एक मात्र संसदीय सीट खाली करने से हुए उपचुनाव में शिरोमणि अकाली दल, अमृतसर(शिअदअ) के सिमरनजीत सिंह मान का जीतना और जीतते ही विवादित बोलों से सभी ध्यान खींचना अब आहत करने जैसा लगने लगा है।
ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि अपने तौर तरीकों से सुर्खियों में बने रहने वाले मान देश के हक में अपनी बातें कह रहे हैं। दशकों बाद पंजाब में खालिस्तान समर्थक आवाजें फिर सुनाई देना, ऑपरेशन ब्लू स्टार की इस बरसी पर खालिस्तान जिंदाबाद के नारे, हिमाचल विधानसभा की दीवार पर खालिस्तानी झंडे लगाना, जनरैल सिंह भिण्डरावाले को शहीद संत कहना तथा और ऐसे ही तमाम दूसरे वाकये लोकतंत्र के हिमायती के मुंह से अच्छे नहीं लगते। उनके अतीत को देखते हुए भी लगता है कि कहीं न कहीं पंजाब को वो भूली, बिसरी बातें याद दिला रहे हैं जिसको छोड़ राज्य बहुत आगे निकल चुका है बल्कि वहाँ नई पीढ़ी नई सोच और नए रास्ते पर चल चुकी है जिसमें राष्ट्रवाद अहम है। पंजाबी दुनिया में भारत का परचम लहराते हुए अपनी पगड़ी, कृपाण, भांगड़ा और खास लहजे से देश प्रेम की अनूठी मिशाल से लबरेज दिखते हैं। प्रधानमंत्री के हर विदेश दौरे के दौरान भारतीय समुदाय में सबसे अलग और दूर से पहचाने जाने वाले वो पंजाबी बिरादरी ही है जो विदेशों में भारत की भीड़ में अलग पहचान है। ऐसे में सिमरनजीत सिंह मान की मंशा पर पूरे देश में सवाल उठना ही चाहिए और उठ भी रहे हैं।
इतना तो समझ आने लगा है कि मान खालिस्तानी विचारधारा को संसद में रखने की कोशिश तो करेंगे लेकिन कितने कामियाब होंगे वक्त पर छोड़ना होगा। उनका बयान जिसमें वो किसान आन्दोलन के दौरान दंगे भड़काने के आरोपी दीप सिद्धू की सड़क हादसे में हुई मौत और जाने-माने पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला की हत्या को शहादत बता उससे पूरी दुनिया में सिख कौम को फायदा हुआ बता क्या कहना चाहते हैं? किसी की मौत या हत्या में फायदा ढ़ूंढ़ना राजनीति का कौना सा हिस्सा है वही जानें लेकिन भारत में इसे समुदाय विशेष से जोड़कर खुले आम बयान देना नफरत को बढ़ावा देना ही कहा जाएगा।
ऑपरेशन ब्लू स्टार के खिलाफ 18 जून 1984 को भारतीय पुलिस सेवा से इस्तीफा दे दिया। 1967 में आईपीएस बने और पंजाब कैडर एलॉट हुआ। एएसपी लुधियाना, एसएसपी फिरोजपुर, एसएसपी फरीदकोट, एआईजी जीआरपी पंजाब-पटियाला, सतर्कता ब्यूरो चंडीगढ़ के उप निदेशक, कमांडेंट पंजाब सशस्त्र पुलिस रहकर आखिर में बॉम्बे में सीआईएसएफ के ग्रुप कमांडेंट बने। इस्तीफे के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह विडंबना नहीं तो और क्या है जिसे मान ने खुद माना कि 80 के दशक में उन्होंने भिंडरावाले और उसके समर्थकों को हथियारों की सप्लाई की थी! सिमरनजीत मान के सोशल मीडिया एकाउण्ट से भी पता चलता है कि शुरू से ही कट्टर खालिस्तानी समर्थक हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के चलते उन्होंने पुलिस की नौकरी से इस्तीफा दिया। भिंडरावाले को अपनी जीत का श्रेय देने वाले यह सांसद, संसद में कश्मीर में भारतीय सेना के अत्याचार का मुद्दा और बिहार और छत्तीसगढ़ में आदिवासी लोगों को नक्सली बताकर उनकी हत्या किए जाने के मुद्दे को भी उठाने की बात कहकर कौन सा संदेश देना चाहते हैं यह तो वही जाने लेकिन न केवल पंजाब बल्कि पूरे देश में विरोध झलकने लगा है यहाँ तक कि पंजाब के तमाम राजनीतिक दलों ने भी खुले शब्दों में निंदा की है।
1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के दौर में मान ने तरनतारन लोकसभा चुनाव जेल में रहते हुए जीता था। लेकिन जब संसद की कार्यवाही में हिस्सा लेने संसद पहुँचे तो इस जिद पर अड़ गए कि तीन फुट लंबी कृपाण लेकर ही प्रवेश करेंगे। इस पर तब काफी बहस हुई। लेकिन लोकसभा में कृपाण समेत घुसने की इजाजत नहीं मिली। जिससे संसद की किसी भी बैठक में शामिल हुए बगैर सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। कमोवेश कहीं वही जिद फिर न कर बैठें? अब सबकी निगाहें हमारे लोकतंत्र के बेहद खूबसूरत उस मंदिर की ओर है जिसमें अपनी जिद व देश विरोधी ताकतों को बढ़ाने वाले 77 वर्षीय सांसद क्या करेंगे?
लोकतंत्र के पहरुए बनकर ही संसद जा रहे हैं जहाँ विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा, निष्ठा, संप्रभुता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने की शपथ और साँसद के कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करने की शपथ लेंगे। इस शपथ के साथ वो कुतर्को, गैर जरूरी बयानों और आतंकवाद को समर्थन की बात कह पाएंगे? इतना तो है कि उन भगत सिंह के बलिदान का तिरस्कार जो भारत के बच्चे-बच्चे के लिए एक आदर्श हैं असहनीय है। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की कुर्बानी पर सवाल अब तक न उठे हैं न उठ सकते हैं।
अब किसी भी राजनीतिक वजह से हो, मान की फिर से ऐसे विरोधों को सुलगाने की कोशिशें हवा हो जाएगी। लेकिन कम से कम इतना तो होना चाहिए कि देश के आदर्श, देश के लिए कुर्बान होने वाले और देश के लिए मर मिटने वालों पर नफरती सवाल उठाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। साथ ही अब यह बेहद जरूरी हो गया है कि देश विऱोधी किसी भी बकवास व इस तरह शहीदों के अपमान की छूट किसी को भी न मिले भले ही कितनी भी बड़ी हैसियत ke क्यों न हो। कम से कम उस साँसद को सोचना ही चाहिए जिस देश की संसद में जो शपथ को लेने जा रहा है बाहर उसी के खिलाफ आग उगलता हो। यह किसी को भी न स्वीकार्य था, न है, न होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)