कहानी: चिट्ठियाँ और चुप्पियाँ

Story: Letters and Silences

डॉ. सत्यवान सौरभ

भिवानी जिले के एक छोटे से गाँव ‘निवाड़ा’ में एक जीर्ण-शीर्ण सा डाकघर था। मिट्टी की दीवारें, छप्पर की छत और सामने एक पुराना नीम का पेड़, जिसकी छाँव में बैठकर बुज़ुर्ग चिट्ठियाँ पढ़ते थे। उसी डाकघर में चालीस वर्षों से कार्यरत था गोपाल डाकिया—गाँव की धड़कन जैसा, हर घर का अपना आदमी।

गोपाल सिर्फ चिट्ठियाँ नहीं लाता था, वह बेटों की नौकरी की खबर, बेटियों की ससुराल की बातें और कहीं दूर पढ़ने गए बच्चों की ममता भरी स्याही भी साथ लाता था।

हर किसी के पास उसकी अपनी कहानी थी—गोपाल की वज़ह से।

गाँव में एक लड़की थी सविता। और शहर में एक लड़का था रमेश—इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता था। दोनों के बीच प्रेमपत्रों का सिलसिला गोपाल डाकिए की उंगलियों के ज़रिए चलता रहा। हर शुक्रवार सविता, नीम के नीचे बैठी, गोपाल से पूछती—”कुछ आया है?”

गोपाल मुस्कुराता और लिफाफा आगे बढ़ा देता। सविता की आँखें चमक जातीं। कभी उसमें कविता होती, कभी सपना, कभी शादी का वादा।

इन्हीं चिट्ठियों में दो दिलों ने भविष्य की कल्पना कर ली थी।

लेकिन सब कुछ हमेशा प्रेम से नहीं चलता। सविता के पिता रामस्वरूप को यह रिश्ता मंज़ूर नहीं था। जात-पात की दीवार, ज़मीन-जायदाद का घमंड, और समाज की निगाहें—इन सब ने चिट्ठियों की स्याही को जहर बना दिया।

रामस्वरूप ने रमेश पर बलात्कार और धोखा देने का केस दर्ज करवा दिया।

और वहीं से एक और दरवाज़ा खुला—कचहरी का दरवाज़ा।

अब सविता हर शुक्रवार चिट्ठियों का इंतजार नहीं करती थी, बल्कि तारीख़ की अगली पर्ची का।

कचहरी में रमेश का वकील और रामस्वरूप का वकील, दोनों अपने-अपने कागज़ों में “सविता की सहमति” और “रमेश की नीयत” के तर्क खोज रहे थे।

प्यार की चिट्ठियाँ अब सबूत बन चुकी थीं। अदालत में उन्हें पेश किया गया। जज साहब ने कहा, “यह पत्र क्या किसी नाबालिग को फुसलाने का प्रमाण नहीं है?”

गोपाल को गवाही के लिए बुलाया गया। उसने कांपते स्वर में कहा, “हुजूर, मैंने तो बस चिट्ठियाँ दी थीं… किसी अदालत के लिए नहीं, दो दिलों के लिए।”

मगर कोर्ट को दिलों की भाषा नहीं आती।

सविता अब चुप रहने लगी थी। चिट्ठियों की जगह केस डायरी आ गई थी। माँ-बाप ने घर से बाहर निकलने पर रोक लगा दी। लड़की अब “इज्ज़त” बन चुकी थी, जिसका मोल अदालत में तय हो रहा था।

हर तारीख पर सविता से वही सवाल पूछे जाते:
“क्या आपने अपनी इच्छा से चिट्ठियाँ लिखीं?”
“क्या आप दोनों ने शारीरिक संबंध बनाए?”
“क्या लड़का शादी से मुकर गया?”

उसकी आत्मा चीत्कार करती—”हाँ, मैंने प्रेम किया था, जुर्म नहीं!”

मगर अदालत प्रेम नहीं सुनती—वो सिर्फ बयान दर्ज करती है।

इस बीच गाँव का डाकघर बंद कर दिया गया।

“अब सबकुछ डिजिटल है, चिट्ठियाँ कौन भेजता है?” — ये कहकर पोस्टल विभाग ने गोपाल को रिटायर कर दिया।

गोपाल उस दिन रोया था। नीम के नीचे बैठकर उसने आख़िरी चिट्ठियाँ जलाईं, सिवाय एक के—सविता की चिट्ठी रमेश को, जो उसने कभी भेजी नहीं थी। उसमें लिखा था— “अगर ये दुनिया हमें अलग कर दे, तो याद रखना… मेरी आत्मा तुम्हारे नाम की स्याही से रंगी है।”

तीन साल बाद, कोर्ट ने फैसला सुनाया—”युवक निर्दोष है। संबंध आपसी सहमति से थे। लड़की बालिग थी। केस झूठा था।”

मगर तब तक रमेश अमेरिका चला गया था, शादी कर ली थी।

और सविता? वह चुप थी। अदालत से बाहर निकलकर एक संवाददाता ने पूछा—”आप न्याय से संतुष्ट हैं?”

उसने सिर झुका लिया। बोली— “मैं प्रेम चाहती थी, इंसाफ नहीं।”

गोपाल अब अकेला रहता है। वह पुरानी चिट्ठियों को संभालकर रखता है—मानो प्रेम का संग्रहालय।

एक दिन किसी पत्रकार ने पूछा—”काका, अब आप क्या करते हैं?”

गोपाल बोला— “डाकिया था… अब गवाही देने वालों की कतार में हूँ। पहले प्रेम की डाक पहुंचाता था, अब तारीख़ की सूचना देने वालों की भीड़ देखता हूँ। हैरत है… डाकखाने कम हो गए और कचहरियां बढ़ती चली गईं…”

एक नई पीढ़ी अब ईमेल और व्हाट्सऐप पर बात करती है। उन्हें चिट्ठियों की अहमियत नहीं मालूम।
पर एक दिन, एक लड़की अपने कॉलेज में प्रेम पत्रों पर प्रोजेक्ट बना रही थी। उसने गोपाल से मुलाक़ात की।

गोपाल ने सविता की वह चिट्ठी उसे सौंप दी, और कहा, “अगर तुम कभी फिर चिट्ठियों की दुनिया बसा सको, तो इसे याद रखना—प्रेम को सबूत मत बनने देना।”

चिट्ठियाँ रिश्तों की रचनात्मकता थीं, और कचहरियाँ टूटते रिश्तों का दस्तावेज़।
आज डाकखाने वीरान हैं, और अदालतें भीड़ से भरीं। संवाद की जगह विवाद ने ले ली है। यह कहानी सविता और रमेश की नहीं, हम सबकी चेतावनी है—कि यदि हमने रिश्तों में संवाद, भरोसा और सच्चाई नहीं बचाई, तो हर प्रेम एक केस बन जाएगा, और हर भावना एक तारीख़।