
डॉ. सत्यवान सौरभ
वो एक साधारण-सा गांव था, जहां की गलियों में गोबर की गंध और उम्मीदों की महक साथ-साथ बहती थी। उसी गांव में पला-बढ़ा अर्जुन, बचपन से ही कुछ अलग करने का सपना देखता था। जब लोग गोबर को गंदगी समझते थे, अर्जुन उसकी खुशबू में संभावनाओं की तलाश करता था।
“गोबर… हाँ, यही तो वो खजाना है जिसे दुनिया मिट्टी समझकर फेंक रही है,” उसने एक दिन खुद से कहा था।
उसके दिमाग में एक विचार था—गोबर से कुछ ऐसा तैयार करना जो न केवल पर्यावरण के लिए लाभकारी हो, बल्कि लोगों की ज़िंदगी भी बदल दे। कई सालों की मेहनत, असफल प्रयोगों, और हंसी उड़ाए जाने के बाद, उसने एक अनोखा उत्पाद विकसित किया—एक ऐसा प्राकृतिक कोटिंग मिक्स जो दीवारों पर लगाया जा सकता था और जो तापमान नियंत्रित करता, हवा शुद्ध करता, और मानसिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर डालता।
संघर्ष की शुरुआत
लेकिन एक नवाचार का जन्म होना जितना कठिन होता है, उससे कहीं ज़्यादा कठिन होता है उसका जीवन में उतरना। अर्जुन को अपने उत्पाद के लिए ट्रेडमार्क लेने में ही एक साल लग गया। सरकारी दफ्तरों के चक्कर, फॉर्म भरने की जटिलताएं और विभागीय चुप्पी ने उसकी हिम्मत को बार-बार परखा। मंत्रालय के संबंधित अधिकारियों से संपर्क करना, फाइलें आगे बढ़वाना, और हर बार ‘विचाराधीन’ सुनना उसकी दिनचर्या बन गई थी।
इस बीच, समाज में एक डर और संशय का माहौल बना रहा। “गोबर से कोई पेंट बनेगा?” लोग पूछते थे और हँस देते थे। लेकिन अर्जुन ने हार नहीं मानी।
बाजार में पहचान बनाना
सबसे कठिन था बाज़ार में एक जगह बनाना। डीलरों को समझाना कि यह कोई सामान्य पेंट नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी कदम है, आसान नहीं था। अधिकतर लोग या तो विश्वास नहीं करते थे, या सोचते थे कि ये कुछ दिन का शौक है जो मिट जाएगा।
टीम बनाना, मजदूरों को प्रशिक्षित करना, उन्हें स्किल्स सिखाना, और उत्पाद के मानक बनाए रखना – हर स्तर पर अर्जुन को संघर्ष करना पड़ा। कई बार तो उसे खुद ही बैल्ट बांधकर गोबर छानना पड़ा, ताकि टीम को दिखा सके कि यह कोई शर्म की बात नहीं, बल्कि सम्मानजनक काम है।
विश्वास बनाना
ग्राहकों में विश्वास जगाना एक और चुनौती थी। जब लोग सुनते कि दीवारों पर गोबर का लेप लगाया जाएगा, तो उनका चेहरा सिकुड़ जाता। अर्जुन ने इस सोच को बदलने के लिए छोटे-छोटे प्रयास किए। गाँव के स्कूल में पहला प्रयोग किया गया। परिणाम चौंकाने वाले थे—कमरे का तापमान बाहर से 5 डिग्री कम, बदबू नहीं बल्कि मिट्टी की सौंधी खुशबू, और बच्चों की एकाग्रता में सुधार।
धीरे-धीरे शब्द फैलने लगे, और अर्जुन के फोन पर ऑर्डर आने लगे। जिन लोगों ने शुरुआत में उसका मज़ाक उड़ाया था, वे अब उसके ग्राहक बन चुके थे।
सस्टेनेबिलिटी बना ताकत
अर्जुन के उत्पाद की सबसे बड़ी ताकत थी – उसका टिकाऊपन। ना केवल यह पर्यावरण के लिए सुरक्षित था, बल्कि सस्ता भी था। इसमें न तो हानिकारक केमिकल थे, न ही यह सांस या त्वचा पर कोई प्रभाव डालता था। वह कहता, “यह उत्पाद सिर्फ एक दीवार को नहीं, पूरी सोच को सजाता है।”
धीरे-धीरे सरकारी संस्थान भी जागरूक हुए। कुछ अधिकारियों ने उसके प्रोजेक्ट को देखा, समझा और मंत्रालय से जुड़ी संस्थाओं ने मदद देना शुरू किया। अब अर्जुन का स्टार्टअप रजिस्टर हो चुका था और वह पूरे राज्य में आपूर्ति करने लगा था।
अनुभव से मिली सीख
शुरुआत में समय पर डिलीवरी देना, कच्चा माल जुटाना, और स्केल पर ऑपरेट करना बहुत बड़ी चुनौती थी। पर अनुभव ने उसे सिखा दिया कि समय, योजना और संयम – ये तीन चीजें ही किसी भी व्यापार की रीढ़ होती हैं।
आज उसकी टीम में 40 से ज्यादा लोग हैं – महिलाएं, ग्रामीण युवा, और वो भी जो पहले बेरोज़गार थे। अर्जुन ने न सिर्फ एक उत्पाद बनाया, बल्कि एक आंदोलन खड़ा किया।
भविष्य की दिशा
अब उसका सपना है कि उसके इस उत्पाद का उपयोग अस्पतालों, मानसिक आरोग्य केंद्रों और पुनर्वास गृहों की दीवारों पर किया जाए, ताकि वहाँ आने वाले मरीजों को प्राकृतिक रूप से राहत मिले। “जब वातावरण शुद्ध हो, तो मन भी स्वच्छ होता है,” वह मुस्कुरा कर कहता है।
अर्जुन चाहता है कि उसका यह नवाचार वैश्विक स्तर पर पहुँचे। उसका मानना है कि भारत की पारंपरिक तकनीकों में वो ताकत है जो विश्व की पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान दे सकती हैं।
अंतरराष्ट्रीय सोच
अब अर्जुन वैश्विक संस्थाओं से संवाद कर रहा है। कई देशों के पर्यावरण वैज्ञानिक उसकी तकनीक में रुचि दिखा चुके हैं। वह कहता है – “अगर हम यह साबित कर सकें कि एक देशी गाय का गोबर भी पर्यावरण सुधार सकता है, तो हम पूरी दुनिया को अपनी मिट्टी की शक्ति समझा सकते हैं।”
वह अब विश्वविद्यालयों से जुड़कर रिसर्च करवा रहा है, ताकि आगे और नये प्रयोग हो सकें। स्कूलों के लिए विशेष कम कीमत वाले संस्करण, वृद्धाश्रमों के लिए सुगंधित गोबर कोटिंग, और सरकारी भवनों के लिए सस्टेनेबल डिज़ाइन—ये सब उसकी योजना में हैं।
एक दीवार नहीं, क्रांति है
अर्जुन की कहानी ये बताती है कि अगर सोच मौलिक हो, इरादा मजबूत हो, और रास्ते में आने वाले पत्थरों को सीढ़ी बना लिया जाए, तो कोई भी सपना असंभव नहीं होता।
उसके गोबर से बनी दीवारें अब महज़ घरों की सजावट नहीं रहीं, बल्कि एक संदेश हैं – कि हमारी परंपराएं अगर विज्ञान से मिलें, तो वे क्रांति बन सकती हैं।
अंतिम पंक्तियाँ
“गंध वही है, नजर बदलने की देर है। जो कल तक गंदगी थी, आज वही प्रकृति की औषधि बन चुकी है। अर्जुन जैसे युवा अगर हिम्मत ना हारें, तो भारत का गांव भी प्रयोगशाला बन सकता है, और गोबर भी गौरव।”