गिरीश पंकज
जी हाँ, यही है लोकतंत्र! मतदाता कब किसे शिखर से उठाकर धरातल पर लाकर पटक दे, कहा नहीं जा सकता। देखते ही देखते मजबूत सरकार मजबूर सरकार में तब्दील हो सकती है, इसलिए नेताओं को , दलों को काम ऐसे करने चाहिए कि वे शिखर तक भले न पहुंचें, धरातल पर तो न गिरें। इस आम चुनाव में 12 केंद्रीय मंत्री बुरी तरह पराजित हुए। सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों की उपेक्षा की। जो अच्छा काम करते रहे, वे लाखों मतों से विजय भी हुए हैं। लोकतंत्र में जनमानस उसी प्रतिनिधि को चुनता है, जो सहज, सरल, उदार और सहिष्णु हो। जो जनभावनाओं की कद्र करता है। जिसमें ऐसे गुण नहीं होते, वे समय आने पर दृश्य से बाहर हो जाते हैं । यानी भूतपूर्व। अयोध्या में भारतीय जनता पार्टी की पराजय की देशभर में चर्चा है ।एक चर्चा प्रधानमंत्री मोदी की जीत को लेकर भी है। पिछली बार मोदी वाराणसी से चार लाख वोटो से विजयी हुए थे ।इस बार वह मात्र डेढ़ लाख वोटो से ही जीत सके जबकि उन्हीं की पार्टी के अनेक प्रत्याशी 5 से 8 लाख तक के वोटो से विजयी हुए। इसका मतलब साफ है कि कहीं न कहीं वाराणसी के लाखों मतदाता मोदी जी से नाखुश थे। इस पर मोदी जी को विचार करना चाहिए कि चूक कहां हुई। अयोध्या में भी लोग असंतुष्ट थे । ये वे लोग थे जिनके घर तोड़े गए ।दुकानें तोड़ी गई इसलिए कि अयोध्या का विकास करना है। लेकिन कोई भी विकास विनाश के ऊपर खड़ा नहीं हो सकता। अयोध्या के अनेक लोगों को, जिनके घर टूटे उन्हें, मुआवजा नहीं मिला। बेशक वहां राम मंदिर बना, 500 साल की तपस्या पूरी हुई ,लेकिन रामलला को तो घर मिल गया मगर राम भक्त दुखी हो जाएँ, तो उनके मन में आक्रोश पनपेगा ही। इसी आक्रोश की परिणति थी कि अयोध्या में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश की अनेक सीटें भाजपा हार गई क्योंकि प्रत्याशियों का चयन गलत हो गया। जो लोग दोबारा जीते, निःसन्देह उनसे वहां का मतदाता खुश था।
मैं यह देखकर चकित रहता हूँ कि जैसे ही कोई विधायक या सांसद बनता है, और भूलवश मंत्री बन गया तो उसके पैर धरती पर पड़ते ही नहीं। वह गगनबिहारी हो जाता है । उसे वही जानता कीड़े-मकोड़े की तरह लगने लगती है, जिसने उसे सत्ता के रथ पर बैठाया। वह लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं करता। फोन उठाने के लिए पीए रख लेगा। अगर भूले-भटके फोन उठा भी लिया तो बहुत बदतमीजी से बात करेगा। जनहित के काम करने के लिए उसे जो बजट मिलता है, वह भी खर्च करने में उसे तकलीफ होती है । उसे लगता है कि उसके घर से कुछ जा रहा है। अगर वह सरकारी निधि से कुछ देना भी चाहता है तो उसकी अपेक्षा रहती है कि उसमें से कुछ प्रतिशत रिश्वत मिल जाए। सब रिश्वतखोर नहीं होते लेकिन अनेक यही करते हैं । इस बार के लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक झटका भारतीय जनता पार्टी को लगा । हालांकि एनडीए के रूप में अंततः भाजपा ही सत्ता पर काबिज हुई और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में भी उभरी है, लेकिन उसके लिए दुख की बात यह है कि वह बहुमत से 32 सीट दूर है। उसे जनता दल यूनाइटेड और तेलुगुदेशम पार्टी का सहयोग मिला है। इसके अलावा भी अन्य छोटे-छोटे दल हैं। उनके कारण एनडीए की संख्या 292 हो गई है । यानी बहुमत से 20 सीट अधिक । लेकिन अब यह तय है कि यह सरकार मजबूत नहीं मजबूर सरकार के रूप में काम करेगी । प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी अब उस हिम्मत के साथ काम नहीं कर सकेंगे, जिस हिम्मत के साथ में पिछले दस वर्षों से करते रहे। बहुत से निर्णय लेने में अब दिक्कत होगी। देशहित में कोई विधेयक लाया जाएगा तो हो सकता है वह सहयोगी दल को पसंद ना आए और वे विरोध करने लगें। जैसे कुछ सहयोगी दलों को अग्निवीर योजना पसंद नहीं। वे इसका विरोध कर सकते हैं। कुछ एनआरसी का विरोध कर सकते हैं । यानी वैचारिक मतभेद की स्थिति बनी रहेगी। ऐसे में लंबे समय तक इस सरकार का चल पाना बहुत कठिन लग रहा है। कब जेडीयू के नीतीश बाबू या चंद्रबाबू नायडू पाला बदल लें,कहा नहीं जा सकता। फिर भी हम सब उम्मीद कर सकते हैं कि देशहित में वर्तमान एनडीए सरकार पाँच साल पूरा करेगी। भले ही लड़खड़ाती सरकार चले लेकिन मध्यावधि चुनाव की नौबत न आए। इसलिए सहयोगी दलों सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के देशहित में लिए गए निर्णयों का गंभीरतापूर्वक अनुशीलन करके सहयोग भी करना होगा। सहयोगी दलों की नाराजगी एनडीए सरकार पर भारी पड़ सकती है। उधर कांग्रेसनीत इंडिया गठबंधन ने विपक्ष में बैठने का मन बनाया है ।
लेकिन उनकी निगाह हमेशा उस बिल्ली की तरह रहेगी जो ऊपर लटके छीके को गौर से देखती रहती है कि कब टूटे और वह दुग्ध/पान करे। यानी जोड़-तोड़ करके वह भी सत्ता का स्वाद लेने की कोशिश कर सकती है। राजनीति में कुछ भी संभव है। फिलहाल देश का आम नागरिक तो यही चाहता है कि वर्तमान की गठबंधन सरकार पाँच साल पूर्ण करे और देश को आगे बढ़ाने के मामले में एकजुटता ही दिखाए।