पराली और पटाख़ा ही प्रदूषण के कारक या बेतहाशा यातायात ?

निर्मल रानी

भारत का सबसे प्रमुख पर्व दीपावली एक बार फिर जहाँ भारतीय अर्थ व्यवस्था तथा व्यवसाय को गति प्रदान कर गया वहीं इस बार भी इस पावन पर्व के दौरान पटाख़ा और इससे उत्पन्न होने वाले प्रदूषण की चर्चा ज़ोरों पर रही। देश की सर्वोच्च अदालत से लेकर विभिन्न राज्य सरकारों व प्रदूषण नियंत्रण संबंधी संस्थानों तक ने इस विषय पर अपने अपने नज़रिये से संज्ञान लिया। दिल्ली के प्रदूषण पर नज़र रखने व इसके नियंत्रण की ज़िम्मेदारी संभालने वाली सबसे बड़ी संस्था दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने इसी वर्ष गत सितंबर माह के मध्य में ही दीपावली के मद्दे नज़र एक लिखित आदेश जारी किया। इस आदेश में साफ़ कहा गया था कि “एक जनवरी, 2023 तक सभी प्रकार के पटाखों के निर्माण, भंडारण, बिक्री,आनलाइन शॉपिंग तथा सभी प्रकार के पटाखे फोड़ने पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। दिल्ली सरकार के आदेशानुसार दिल्ली में आतिशबाज़ी की बिक्री और भंडारण पर पूरी तरह से रोक लगाई गई है और आदेश का उल्लंघन करने वालों पर 5 हज़ार रुपये जुर्माना और 3 साल की जेल की सज़ा का भी प्रावधान किया गया था। दिल्ली सरकार ने गत वर्ष भी 1 जनवरी 2022 तक आतिशबाज़ी पर इसी तरह के प्रतिबंध की घोषणा की थी। इसके साथ ही आतिशबाज़ी की बिक्री और उपयोग के विरुद्ध एक कठोर अभियान भी चलाया गया था। उत्तर भारत के विभिन्न इलाक़ों विशेषकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में अक्टूबर माह से ही वायु प्रदूषण का लगातार बढ़ना शुरू हो जाता है और यह प्रदूषण फ़रवरी व मार्च तक रहता है।

सरकार के इस आदेश के विरुद्ध जब दिल्ली के कुछ बड़े आतिशबाज़ी व्यव्सायियों ने अपने व्यवसाय व आजीविका का वास्ता देते हुये सर्वोच्च न्यायलय का दरवाज़ा खटखटाया तो सर्वोच्च न्यायलय ने भी आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध के विरुद्ध दायर याचिका पर तुरंत (दीपावली पूर्व ) सुनवाई करने से इस टिप्पणी के साथ इनकार कर दिया कि ‘लोगों को साफ़ हवा में सांस लेने दीजिए’ मिठाई पर ख़र्च करिए। इससे पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट भी दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा राजधानी में आतिशबाज़ी की बिक्री और रखने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने के निर्णय के विरुद्ध दायर याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर चुका है। हाईकोर्ट ने कहा कि ये मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और वो सुनवाई नहीं कर सकते हैं। गोया अदालतें भी नहीं चाहतीं कि देश में दीपावली का त्यौहार प्रदूषण फैलाने का कारण बने। परंतु अनेक अदालती व शासनिक प्रतिबंधों के बावजूद दिल्ली सहित पूरे देश में दीपावली पर आतिशबाज़ियाँ जलाई गयीं। हां सरकारी आदेश का असर राजधानी दिल्ली में इतना ज़रूर हुआ कि यहाँ इस बार पिछले वर्षों की तुलना में लगभग 30 प्रतिशत कम आतिशबाज़ी जलाई गयी।

दीपावली में आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध की कोशिशों व इसपर दिये जाने वाले ‘प्रवचनों’ के अतिरिक्त अदालत,सरकार व प्रशासन के निशाने पर किसानों द्वारा फ़सल की कटाई के बाद अपने अपने खेतों में जलाई जाने वाली पराली रहा करती है। आरोप लगता है कि दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का कारण जहां दीपावली में जलने वाली आतिशबाज़ी होती है वहीँ इससे भी बड़ा कारण ख़ासकर पंजाब व हरियाणा में पराली फूंकने को बताया जाता है। परन्तु इस विषय पर शोध कर्ताओं व अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि पराली या आतिशबाज़ी के चलते वर्ष भर में मात्र चंद दिनों तक फैलने वाले प्रदूषण से सैकड़ों गुना अधिक प्रदूषण प्रतिदिन लाखों की संख्या में बढ़ते हुये वाहन, औद्योगिक इकाइयों से निरंतर उगलने वाला ज़हरीला धुंआ,दिल्ली में प्रतिदिन उड़ने वाली हज़ारों राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों से निकलने वाला अति ज़हरीला धुंआ तथा निर्माण कार्यों के चलते उड़ने वाली धूल-मिट्टी-ग़ुबार आदि प्रदूषण के बड़े कारक हैं। परन्तु सरकार या प्रशासन इन विषयों पर चर्चा करने के बजाये बार दीपावली के प्रदूषण व किसानों की पराली पर ही उंगली उठाता है। जबकि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली भी अपनी एक रिपोर्ट में स्पष्ट कर चुका है कि दिल्ली में प्रत्येक वर्ष होने वाली स्मॉग का कारण दीपावली की आतिशबाज़ियाँ नहीं हैं।

कभी दिल्ली, चंडीगढ़ जैसे किसी भी महानगर के यातायात पर ग़ौर से नज़र डालिये। आप देखेंगे कि इनमें लगभग 80 प्रतिशत या शायद इससे भी अधिक कारें ऐसे होती हैं जिनमें कार मालिक अकेले ही सवार रहते हैं। ऐसी लाखों करें केवल एक एक व्यक्ति को ढोने के लिये रोज़ाना सुबह शाम न केवल पूरे वर्ष प्रदूषण फैलाती हैं बल्कि इनकी बड़ी संख्या के चलते ट्रैफ़िक जाम की स्थिति भी अक्सर बनी रहती है। और जाम की स्थिति में प्रदूषण और भी बढ़ जाता है। परन्तु इस पर कभी चर्चा शायद इसीलिये नहीं होती कि जहां संभ्रांत व अमीर तबक़ा कारों का इस्तेमाल अधिक करता है वहीं कार कंपनियों द्वारा कारों की बिक्री किये जाने से भी यह विषय जुड़ा हुआ है। विमान भी कार्पोरेट्स द्वारा संचालित होने के साथ साथ बड़े लोगों की सवारी है लिहाज़ा सरकार की नज़रों में यह भी प्रदूषण नहीं शायद ‘ऑक्सीजन ‘ ही छोड़ता हो। और यदि यह मान भी लिया जाये कि आतिशबाज़ियाँ ही प्रदूषण फैलाने की सबसे बड़ी ज़िम्मेदार हैं तो केवल दीपावली की ही आतिशबाज़ी क्यों ? नव वर्ष ,शादी ब्याह,दशहरा जैसे अनेक अवसरों व त्योहारों पर जलने वाली आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध क्यों नहीं? और इससे भी बड़ी बात यह कि यदि पर्यावरण व स्वच्छ वातावरण की सबसे बड़ी दुश्मन आतिशबाज़ी ही हैं तो इनके उत्पादन पर प्रतिबंध क्यों नहीं ? इनके निर्माण,बिक्री व एजेंसी,विक्रय केंद्र आदि के लिये लाइसेंस जारी करने का क्या औचित्य ? यह तो वैसा ही है कि पॉलीथिन का उत्पादन भी होगा और बिक्री भी परन्तु यदि किसी उपभोक्ता के हाथों में पॉलीथिन बैग नज़र आया तो उसपर जुर्माना ?

दरअसल सरकार ऐसे कई विषयों पर भ्रमित नज़र आती है। एक ओर तो कारपोरेट के हितों की चिंता,राजस्व की प्राप्ति की लालच तो दूसरी ओर बढ़ती गलोबल वार्मिंग के चलते प्रदूषण नियंत्रण हेतु पड़ने वाले अंतर्राष्ट्रीय दबाव। इन हालात में सरकार को सबसे ‘साफ़्ट टारगेट ‘ असंगठित आम जनता ही नज़र आती है या फिर देश का अन्नदाता किसान। जिनको समय समय पर सरकार प्रदूषण का ज़िम्मेदार ठहराती रहती है। जबकि हक़ीक़त में पराली और पटाख़ा ही प्रदूषण के मुख्य कारक नहीं बल्कि हर वक़्त का बेतहाशा यातायात इसका सबसे बड़ा कारण है।