नृपेन्द्र अभिषेक नृप
बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) द्वारा आयोजित प्रारंभिक 70 वीं (पीटी) परीक्षा को लेकर बिहार में बड़े पैमाने पर छात्रों का आक्रोश उभर कर सामने आया है। इस परीक्षा को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब 13 दिसंबर को आयोजित परीक्षा में व्यापक गड़बड़ियों की शिकायतें सामने आईं। परीक्षा से संबंधित प्रश्नपत्रों के लीक होने और परीक्षा केंद्रों पर अव्यवस्थाओं के आरोपों ने इस पूरी प्रक्रिया को कटघरे में खड़ा कर दिया। इसके बाद आयोग ने विवादित परीक्षा को रद्द करने के बजाय 4 जनवरी को परीक्षा पुनः आयोजित करने का निर्णय लिया। इस फैसले ने पहले से ही असंतुष्ट छात्रों के आक्रोश को और भड़का दिया।
छात्रों का कहना है कि एक ही परीक्षा को अलग-अलग तारीखों पर आयोजित करना पूरी तरह से अनुचित है। इससे परीक्षा की निष्पक्षता और वैधता पर सवाल खड़े होते हैं। आयोग के इस निर्णय ने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हजारों छात्रों के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है। छात्रों ने अपनी नाराजगी व्यक्त करने के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन का सहारा लिया, लेकिन उनकी आवाज को प्रशासन ने बर्बरतापूर्वक दबाने की कोशिश की। पटना में आयोग के कार्यालय के बाहर प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसमें 40 से अधिक छात्र घायल हुए और आठ को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इनमें महिलाएं भी शामिल थीं।
13 दिसंबर को आयोजित परीक्षा में हुई गड़बड़ियों को लेकर छात्रों का गुस्सा जायज है। परीक्षा के दौरान कई परीक्षा केंद्रों पर पेपर लीक होने की खबरें आईं, लेकिन आयोग ने इन शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया। इसके बजाय, उसने परीक्षा को दोबारा आयोजित करने का फैसला लिया। छात्रों का कहना है कि 4 जनवरी को होने वाली परीक्षा में प्रश्नों का स्तर अलग हो सकता है, जिससे पहले परीक्षा में शामिल छात्रों के साथ अन्याय होगा। सवाल यह भी उठता है कि आयोग ने परीक्षा को रद्द किए बिना नए सिरे से परीक्षा आयोजित करने का निर्णय क्यों लिया। यह फैसला आयोग की कार्यप्रणाली और परीक्षा प्रक्रिया की पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
छात्रों का तर्क है कि यदि एक ही परीक्षा के लिए दो बार अलग-अलग प्रश्नपत्र बनाए जाएंगे, तो मेरिट सूची तैयार करने में भेदभाव की संभावना बढ़ जाएगी। परीक्षा का कठिनाई स्तर अलग-अलग होने से परिणाम भी असमान होंगे। यह एक ऐसा मुद्दा है जो न केवल परीक्षा में शामिल छात्रों के भविष्य को प्रभावित करेगा, बल्कि आयोग की साख और उसकी कार्यप्रणाली पर भी गहरा प्रभाव डालेगा।
इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि सरकार और आयोग ने अब तक छात्रों की शिकायतों पर कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं दी है। छात्रों का कहना है कि वे न्याय के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन उनकी बातों को सुनने के बजाय उन पर बल प्रयोग किया जा रहा है। पटना में हुए प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने छात्रों पर लाठियां बरसाईं, उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर पीटा गया। यह कार्रवाई न केवल छात्रों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है, बल्कि यह सरकार और प्रशासन की तानाशाही प्रवृत्ति को भी उजागर करता है।
पुलिस की बर्बरता ने छात्रों के आंदोलन को और तेज कर दिया है। अब यह आंदोलन केवल परीक्षा को लेकर नहीं रह गया है, बल्कि यह शिक्षा व्यवस्था की पारदर्शिता और न्याय की मांग के लिए एक व्यापक संघर्ष बन चुका है। छात्रों का कहना है कि वे अपने हक के लिए हर संभव कदम उठाएंगे। कई छात्रों ने सोशल मीडिया पर अपनी आवाज बुलंद की है और इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने की मांग की है।
यह मामला केवल एक परीक्षा तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में शिक्षा व्यवस्था की खामियों को उजागर करता है। प्रतियोगी परीक्षाओं में पारदर्शिता और निष्पक्षता का अभाव लंबे समय से एक गंभीर समस्या रहा है। परीक्षा प्रक्रियाओं में गड़बड़ी और प्रशासन की उदासीनता ने हजारों छात्रों के भविष्य को दांव पर लगा दिया है। बीपीएससी का यह विवाद इस समस्या का ताजा उदाहरण है।
छात्रों का यह भी कहना है कि 13 दिसंबर को हुई परीक्षा में लगभग 12,000 उम्मीदवार शामिल हुए थे। ऐसे में यदि 4 जनवरी को पुनः परीक्षा आयोजित की जाती है, तो यह परिणाम को प्रभावित करेगा। छात्रों का सवाल है कि क्या आयोग इस बात की गारंटी दे सकता है कि नई परीक्षा में सभी को समान अवसर मिलेगा? यदि नई परीक्षा में प्रश्न आसान हुए, तो यह 13 दिसंबर की परीक्षा में शामिल छात्रों के साथ अन्याय होगा।
सरकार और आयोग को यह समझना चाहिए कि छात्रों का यह आंदोलन केवल उनके भविष्य को लेकर नहीं है। यह एक ऐसी प्रणाली के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास है, जो अपनी गलतियों को स्वीकार करने के बजाय उन्हें छिपाने की कोशिश करती है। छात्रों का कहना है कि यदि उनकी मांगें नहीं मानी गईं, तो वे न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे। यह संघर्ष केवल बिहार तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह एक राष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है।
इस पूरे प्रकरण में मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। जहां कुछ मीडिया संस्थानों ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया, वहीं कुछ ने इसे प्रशासन के पक्ष में हल्का दिखाने की कोशिश की। छात्रों का कहना है कि उनकी आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन वे अपने हक के लिए लड़ते रहेंगे।
सरकार और आयोग को इस समस्या का समाधान निकालने के लिए तत्पर होना चाहिए। छात्रों की मांगें पूरी तरह जायज हैं और उन्हें नजरअंदाज करना न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह देश की शिक्षा व्यवस्था की विश्वसनीयता को भी ठेस पहुंचाएगा। आयोग को परीक्षा की प्रक्रिया की जांच करानी चाहिए और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। इसके साथ ही, परीक्षा प्रणाली में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।
इस विवाद ने यह स्पष्ट कर दिया है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज को दबाना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह समाज के बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ भी है। छात्रों का यह संघर्ष उनके अधिकारों के लिए है, और इसे हल्के में लेना सरकार और प्रशासन की बड़ी भूल होगी। अगर इस समस्या का समाधान जल्द नहीं निकाला गया, तो यह आंदोलन और बड़ा रूप ले सकता है, जो सरकार के लिए गंभीर चुनौती बन सकता है।
छात्रों का यह आंदोलन न्याय और पारदर्शिता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। यह संघर्ष यह साबित करता है कि देश के युवा अपने अधिकारों के लिए खड़े होने से नहीं हिचकते। अब यह सरकार और आयोग पर निर्भर करता है कि वे इस मुद्दे को कितनी गंभीरता से लेते हैं।