
नृपेन्द्र अभिषेक नृप
भारत की युवा पीढ़ी आज जिस सबसे गंभीर मानसिक, सामाजिक और शैक्षणिक संकट का सामना कर रही है, उसका सबसे भयावह चित्र कोटा जैसे शैक्षणिक नगरों में देखा जा सकता है। कोटा, जो कभी सफलता की सीढ़ी के रूप में देखा जाता था, अब निराशा, अवसाद और आत्महत्याओं का पर्याय बनता जा रहा है। देश के कोने-कोने से हजारों छात्र हर साल यहां केवल एक सपना लेकर आते हैं डॉक्टर या इंजीनियर बनने का। लेकिन इन सपनों की चमक के पीछे एक ऐसी सच्चाई छुपी है, जिसे जानकर आत्मा सिहर उठती है।
अव्यवस्थित कोचिंग संस्कृति, अत्यधिक प्रतियोगिता, पारिवारिक दबाव और परीक्षा प्रणाली की क्रूरता ने कोटा को संघर्ष का अखाड़ा बना दिया है, जहाँ हर दिन कोई न कोई छात्र मानसिक रूप से टूट रहा है। इस त्रासदी की गंभीरता को अब अदालतें भी महसूस करने लगी हैं और यह समय की माँग है कि हम केवल आँकड़ों से नहीं, संवेदनाओं से इस समस्या को समझें।हाल के वर्षों में कोटा जिस कारण से सुर्ख़ियों में रहा है, वह है वहाँ हो रही लगातार आत्महत्याएं। एक वर्ष में 14 से अधिक छात्रों द्वारा आत्महत्या किया जाना न केवल कोटा बल्कि संपूर्ण भारतीय शिक्षा व्यवस्था के लिए एक गहरी चिंता का विषय बन गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजस्थान सरकार को फटकार लगाना इस मुद्दे की गंभीरता को रेखांकित करता है।
आत्महत्या कोई सामान्य घटना नहीं होती। यह किसी युवा मन की अंतिम पुकार होती है, जब जीवन में कहीं कोई आशा नहीं बचती, जब पराजय की भावना इतनी गहराई तक पहुँच जाती है कि मृत्यु ही मुक्ति प्रतीत होती है। कोटा में घटित हो रही इन घटनाओं का सीधा संबंध वहां के कोचिंग संस्कृति से है, जो आज शिक्षा नहीं, बल्कि एक प्रतियोगी युद्धभूमि बन चुकी है। हर कोचिंग संस्थान अपने परिणामों के आँकड़ों के बल पर अगला विज्ञापन खड़ा करता है, और विद्यार्थियों को सफलता की मशीनों में बदलने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में वे बच्चे, जिनका मानसिक, भावनात्मक या बौद्धिक स्तर थोड़ा भी मुख्यधारा से अलग होता है, आत्म-संदेह और अवसाद में डूब जाते हैं।
कोटा की कोचिंग इंडस्ट्री, जो अरबों का कारोबार बन चुकी है, एक भयावह दबाव का वातावरण रचती है। एक आम छात्र का दिन सुबह छह बजे शुरू होकर देर रात तक रटने और टेस्ट देने में गुजरता है। हफ्ते में कई बार मॉक टेस्ट, प्रेशर मीटिंग्स, और शिक्षकों द्वारा दी जाने वाली कठोर फीडबैक, धीरे-धीरे छात्र की आत्मा को कुचलने लगते हैं। परिवार की अपेक्षाएं, समाज की तुलना और अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितता- ये सभी मिलकर उस मनोदशा को जन्म देते हैं जहाँ आत्महत्या एकमात्र विकल्प नज़र आने लगता है।
इस समस्या की जड़ें कहीं गहरी हैं। भारत की शिक्षा प्रणाली लंबे समय से ‘अवसरों की कमी’ के संकट से जूझ रही है। हर वर्ष लाखों छात्र जेईई और नीट जैसी परीक्षाओं में बैठते हैं, लेकिन चयनित होने वालों की संख्या अत्यंत सीमित होती है। परीक्षा प्रणाली की यह निर्दयता बच्चों को एक संकुचित और डरावनी दुनिया में कैद कर देती है, जहाँ असफल होना ‘नाकामी’ नहीं, बल्कि ‘कलंक’ बन जाता है। विडंबना यह है कि इन परीक्षाओं को अब योग्यता की कसौटी नहीं, बल्कि किस्मत की लॉटरी कहा जाने लगा है। जिस प्रक्रिया में बच्चों का मूल्यांकन होना चाहिए, वह अब संख्या-आधारित मशीन बन गई है, जिसमें मानवीय पक्ष की कोई गुंजाइश नहीं।
एक अन्य गहन पहलू है माता-पिता का दृष्टिकोण। कोटा में आने वाले अधिकांश बच्चे मध्यमवर्गीय परिवारों से होते हैं, जिनके माता-पिता अपनी जमा-पूंजी लगाकर बच्चों को कोचिंग में भेजते हैं। इन परिवारों की आर्थिक स्थिति पहले से ही तनावपूर्ण होती है और बच्चों पर एक अतिरिक्त दबाव होता है कि वे किसी भी कीमत पर ‘सफल’ हों। यह भावनात्मक बोझ अक्सर बच्चों के आत्मविश्वास को तोड़ देता है। जब परीक्षा में अपेक्षित परिणाम नहीं आते, तो बच्चा अपने माता-पिता के सपनों को टूटा हुआ महसूस करता है और खुद को अपराधी समझने लगता है। यही वह मनोदशा है जो आत्महत्या की ओर ले जाती है।
शिक्षाविदों और नीति-निर्माताओं की उदासीनता भी इस संकट को बढ़ाने में सहायक रही है। वर्षों से इस पर चर्चा तो होती रही है, लेकिन कोई ठोस नीति नहीं बन सकी जो बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता दे। कोचिंग संस्थानों में काउंसलिंग, मनोरंजन, या रचनात्मक गतिविधियों की व्यवस्था ना के बराबर है। कोचिंग सिलेबस का बोझ, कट-थ्रोट प्रतिस्पर्धा और निरंतर परीक्षा-प्रधान मानसिकता बच्चे को एक रोबोट में तब्दील कर देती है, जिसमें भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं बचता। मानसिक स्वास्थ्य पर खुली चर्चा को अब भी हमारे समाज में दुर्बलता समझा जाता है, जिसके चलते छात्र अपने दर्द को छुपा कर जीने की कोशिश करते हैं और अंततः टूट जाते हैं।
एक अन्य चिंताजनक पहलू यह है कि कोटा जैसी जगहों पर विद्यार्थियों के लिए कोई वैकल्पिक मार्गदर्शन उपलब्ध नहीं है। एक बार बच्चा मेडिकल या इंजीनियरिंग की दौड़ में शामिल हो गया, तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह उसी मार्ग पर अंत तक चले, भले ही वह उसमें सक्षम न हो। उसे यह जानने, समझने या चुनने का अवसर नहीं मिलता कि उसके अंदर क्या अन्य क्षमताएं या रुचियाँ हैं। इस एकांगी सोच ने हमारे युवाओं को रचनात्मकता और खोज की भावना से दूर कर दिया है। शिक्षा अब ज्ञान का विस्तार नहीं, एक संकीर्ण लक्ष्य तक सीमित हो गई है।
सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी इस सड़ी-गली व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है। कोर्ट ने सही पूछा कि एक ही शहर में इतने आत्महत्या के मामले क्यों? और इन पर सरकार ने अब तक क्या ठोस कदम उठाए हैं? राजस्थान सरकार द्वारा एसआईटी गठित करना एक अच्छा कदम है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं। इस समस्या का समाधान केवल स्थानीय स्तर पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर सोचना होगा। शिक्षा मंत्रालय को एक व्यापक नीति बनानी होगी जिसमें कोचिंग संस्थानों को कड़ाई से विनियमित किया जाए, और हर संस्थान में लाइसेंस के साथ मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की नियुक्ति अनिवार्य हो।
इसके अलावा, परीक्षा प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है। केवल एक या दो परीक्षाओं के बल पर जीवन और भविष्य तय करना एक अमानवीय व्यवस्था है। हमें छात्रों के मूल्यांकन के विविध तरीके विकसित करने होंगे, जिसमें प्रोजेक्ट्स, इंटरव्यू, कक्षा प्रदर्शन, और रचनात्मकता को महत्व दिया जाए। इससे छात्रों को यह अनुभव होगा कि जीवन की दौड़ केवल एक रैंकिंग से तय नहीं होती।
समस्या की गहराई को समझने के लिए यह भी जरूरी है कि हम ‘सफलता’ की हमारी सामूहिक परिभाषा को पुनः परिभाषित करें। आज सफलता का अर्थ केवल एक डॉक्टर या इंजीनियर बनना रह गया है, जबकि समाज को शिक्षाविदों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, तकनीशियनों और विचारकों की भी उतनी ही आवश्यकता है। जब तक हम बच्चों को यह विश्वास नहीं दिलाएंगे कि हर रास्ता मूल्यवान है, तब तक कोटा जैसी त्रासदियाँ होती रहेंगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी छात्रों को परीक्षा के समय तनावमुक्त रहने की सलाह दी है, लेकिन यह सलाह तब तक व्यावहारिक नहीं हो सकती जब तक प्रणाली में बदलाव न लाया जाए। केवल ‘मन की बात’ या ‘परीक्षा पे चर्चा’ जैसे कार्यक्रमों से बदलाव नहीं आएगा। हमें जमीनी स्तर पर कोचिंग संस्कृति, परीक्षा प्रणाली और पारिवारिक सोच में परिवर्तन लाने होंगे।
यह भी याद रखना चाहिए कि हर आत्महत्या एक चुप पुकार है, एक ऐसा क्षण जब जीवन और मृत्यु के बीच कोई समर्थन नहीं था। यदि हम एक भी बच्चे को उस कगार से वापस खींच सकें, तो यह समाज के रूप में हमारी विजय होगी। कोटा की आत्महत्याएं केवल आकड़ों की कहानी नहीं हैं, यह हमारे समाज की विफलताओं की दास्तान हैं और यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसे एक नई दिशा दें, जहाँ शिक्षा का उद्देश्य जीवन को समृद्ध करना हो, न कि केवल परीक्षा पास करना।