
सुनील कुमार महला
आज हम इक्कीसवीं सदी में सांस ले रहे हैं।यह युग विज्ञान और तकनीक का युग है जहां आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) का प्रयोग किया जा रहा है। विज्ञान और तकनीक के इस दौर के बीच भारत आज भी एक बहुत ही धार्मिक देश है, जहां अलग-अलग धर्म, संप्रदायों, वर्गों के लोग आपसी सहयोग, सद्भावना से रहते हैं, लेकिन विज्ञान और तकनीक के इस दौर में भी आज भी भारतीय समाज में कहीं न कहीं अंधविश्वास की जड़ें अब भी कम गहरी नहीं हैं। आज जरूरत इस बात की है कि अंधविश्वास की इन जड़ों को समूल नष्ट किया जाए।वास्तव में अंधविश्वास, अज्ञानता, डर, या तर्कहीन विश्वासों पर आधारित एक विश्वास या प्रथा है। यह अक्सर अलौकिक शक्तियों, भाग्य, या कुछ कार्यों या वस्तुओं के शुभ या अशुभ प्रभावों में विश्वास से जुड़ा होता है। अंधविश्वास किसी तर्क या प्रमाण पर आधारित नहीं होते हैं, बल्कि ये अक्सर मान्यताओं, परंपराओं, या व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित होते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि ये अक्सर परंपराओं और रीति-रिवाजों से जुड़े होते हैं, जिनका पालन बिना किसी तर्क या प्रमाण के किया जाता है। हाल ही में अंधविश्वास के चक्कर में बिहार में परिवार के पांच लोगों की हत्या की खबरें मीडिया की सुर्खियों में आईं थीं।अंधविश्वास के कारण हैवानों ने पति-पत्नी और बच्चों को मार डाला, यह बहुत ही दुखद है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार पूर्णिया जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र अंतर्गत राजीगंज पंचायत के टेटगामा वार्ड-10 में डायन का आरोप लगाकर गांव के ही एक ही परिवार के पांच लोगों की पीट-पीटकर और जिंदा जलाकर हत्या कर दी गई। मरने वालों में तीन महिलाएं और दो पुरुष शामिल हैं। इसी प्रकार से आजमगढ़ में पुत्र की चाहत में एक महिला अंधिविश्वास की भेंट चढ़ गई। परिजनों का आरोप है कि तांत्रिक ने झांड़फूंक के नाम पर नाले का गंदा पानी पिलाया जिससे उसकी मौत हुई। इतना ही नहीं, मध्यप्रदेश के एक गांव में देवस्थान के चबूतरे पर नरबलि देने का मामला भी सामने आया है। इसी प्रकार से कुछ समय पहले महाराष्ट्र के अमरावती जिले में अंधविश्वास की वजह से मासूम बच्चे के साथ दरिंदगी की दिल दहला देने वाली घटना सामने आई थी। जानकारी के अनुसार यहां एक महिला ने 10 दिन की नवजात बच्ची को पेट दर्द से राहत दिलाने के नाम पर उसे गर्म लोहे की छड़ से दाग दिया। दरअसल अंधविश्वास ‘आत्मज्ञान’ के अभाव में पनपता है, व्यक्ति को ज्ञान का अभाव होता है। यह देखा गया है बहुत बार हमारी आस्था ही अंधविश्वास में बदल जाती है। वास्तव में, जब हमारी आस्था हमारी आत्मा और हमारे ज्ञान का गला घोंटने लगती है, तो हम अपने सोचने-समझने की क्षमताएं खो देते हैं और वहीं जाकर अंधविश्वास का रूप धारण कर लेता है।‘अंधविश्वास’ एक नकारात्मक भावना है, जबकि ‘आस्था’ एक सकारात्मक। आस्था हमें आगे बढ़ाती है, जबकि अंधविश्वास पीछे की ओर ढकेलता है। आस्था हमारे विश्वास का ‘दृढ़ और अडिग स्वरूप’ है, जबकि अंधविश्वास, विश्वास का एक विचलित और विकृत स्वरूप होता है।हम ईश्वर के प्रति आस्था रखें, यह ठीक है, क्यों कि आस्था हमें आगे बढ़ाती है, हमारे में विश्वास की जड़ों को मजबूत करती है, लेकिन हम अंधे होकर किसी भी चीज का अनुसरण नहीं करें। अंधविश्वास चमत्कार को जन्म नहीं देता। न ही कभी चमत्कार होते हैं। आदमी को चमत्कार के लिए कर्म करने पड़ते हैं, मेहनत करनी पड़ती है। टोनो-टोटको से यदि चमत्कार होते तो हर कोई कर लेता। यह बहुत दुखद है कि अनेक बार टोनो टोटको के चक्कर में हम अपने जीवन को दांव पर लगा देते हैं और जीवन में बदलाव की या चमत्कार की उम्मीद करने लगते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि आस्था कभी भी मूर्तिपूजा, पूजा-पाठ, उपासना, किसी नियम विशेष या किसी धार्मिक-कर्मकांड विशेष का मोहताज नहीं होता। आस्था, ईश्वर की तरह ही असीम है, अनादि है, अनंत है।कबीर जी ने कहा था – ‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। याते चाकी भली, जो पीस खाए संसार।।’ हाल फिलहाल, यह बहुत ही दुखद है कि आज के इस युग में भी हम अनेक प्रकार की कुरूतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों को ढ़ो रहे हैं और इनसे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। वास्तव में भारतीय समाज में व्याप्त ये सभी कुरीतियां, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से जुड़ीं घटनाएं हमारे समाज की तरक्की में सबसे बड़ी बाधक बनी हुई हैं। आज अंधविश्वास के नाम पर पशु बलि दी जाती है। यहां तक कि बहुत बार तो ऐसा भी देखा गया है कि जादू-टोनों पर भरोसा करते हुए कोई नरबलि जैसे कृत्य तक पर उतारू हो जाते हैं। वास्तव में यह अंधविश्वास की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। शिक्षा की कमी, परंपरा और सामाजिक दबाव अंधविश्वास के प्रमुख कारण हैं। वास्तव में आज वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की जरूरत है।अज्ञात, बीमारी, या मृत्यु का भय अंधविश्वास को जन्म दे सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अंधविश्वासी प्रथाओं और उनके हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ाना आज के समय में बहुत ही महत्वपूर्ण व जरूरी है। सच तो यह है कि हमें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए और अंधविश्वासों पर कभी भी आंख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए।यह ठीक है कि आज शिक्षा व तकनीक दोनों क्षेत्रों में प्रगति के कारण हमारे समाज के लोग अंधविश्वास की छाया से निकलने लगे हैं, लेकिन अभी काफी कुछ करना बाकी है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अंधविश्वास आज भी एक जटिल समस्या है जिसके कई कारण और निवारण हैं। शिक्षा, वैज्ञानिक सोच और जागरूकता बढ़ाकर, हम अंधविश्वासों को दूर करने और एक अधिक तर्कसंगत और वैज्ञानिक समाज बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं। हमारे देश में आज अंधविश्वास की रोकथाम के लिए दंडात्मक प्रावधान हैं, लेकिन बावजूद इसके बहुत से पाखंडी लोग, तांत्रिक इस दिशा में सक्रिय हैं। पाखंड व अंधविश्वास का सहारा लेकर ऐसे लोग अपने चूल्हे के नीचे आंच सरकाते हैं और लोगों को बरगलाते हैं। अंधविश्वास समाज को अंदर ही अंदर से खोखला व बर्बाद कर देता है, इसलिए इस पर रोक बहुत आवश्यक है। याद रखिए कि अंधविश्वास हमारी संस्कृति की धरोहर नहीं हैं, जैसा कि अक्सर ऐसा समझा जाता है।अंधविश्वास की असली जड़ भूत-प्रेत का डर, जादू-टोने होने का डर, प्रेम-विवाह, व्यापार-नौकरी में असफलता का डर और दुर्भाग्य घटित होने का डर है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होता है। तांत्रिक उपायों से न तो सफलता मिलती है, न ही कोई बीमारी ठीक होती है, न ही पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, न ही कोई काम बनते हैं,यह कटु सत्य है।
परेशानियां और दुःख कभी भी टोनो-टोटको से ठीक नहीं होते। विज्ञान और तकनीक के इस दौर में शिक्षित कहे जाने वाले लोग भी तांत्रिकों, पाखंडियों के चक्कर में आखिर क्यों आने लगे हैं, यह समझ से परे की बात है। अंत में यही कहूंगा कि अंधविश्वास को खत्म करने के लिए शिक्षा, वैज्ञानिक सोच, और जागरूकता फैलाना ज़रूरी है। याद रखिए कि वैज्ञानिक सोच लोगों को घटनाओं को तर्कसंगत रूप से देखने और उनके पीछे के कारणों को समझने में मदद करती है। इसके अलावा कानून को भी सख्त बनाने की आवश्यकता है। तभी हम वास्तव में हम अपने समाज और देश से अंधविश्वासों का खात्मा कर पायेंगे।