तनवीर जाफ़री
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संघर्षपूर्ण इतिहास में जहाँ पूरे देश के कोने कोने से सम्बंधित लाखों ऐसे बलिदानियों के नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं जिन्होंने अपनी जान व माल की क़ुर्बानी देकर,अपने पूरे परिवार को न्योछावर कर,अपने सुख शांति वैभव को त्याग कर,जेलों में ज़िंदिगी गुज़ारी। फांसी के फंदों को गले लगाकर भारतवर्ष को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। वहीँ यही देश सदियों से ऐसे चाटुकार,अवसरवादी,सत्ता लोलुप,लालची व ‘रीढ़ विहीन’ लोगों से भी भरा रहा है जो समय समय पर किसी न किसी भय,लालच,स्वार्थ या चाटुकारिता वश विदेशी शक्तियों के आगे नत मस्तक होते रहे। यहां तक कि अंग्रेज़ों ने तो ऐसे ‘दोगले ‘ व अवसरवादी लोगों को ही भारत पर शासन करने के दौरान अपने प्रमुख ‘टूल ‘ के रूप में इस्तेमाल किया। ऐसे ‘ज़मीर फ़रोश ‘ लोगों में केवल आम लोग ही नहीं बल्कि बड़ी बड़ी रियासतों के अनेक राजा,महाराजा,जागीरदार,सूबेदार और अनेक बड़े ओहदेदार लोग भी शामिल थे। ऐसे देश विरोधी अंग्रेज़ परस्त चाटुकारों को बर्तानवी हुकूमत बड़े बड़े पदों से नवाज़ती थी। उन्हें साहब बहादुर,रॉय बहादुर और ख़ान बहादुर जैसे अनेक अलक़ाब से नवाज़ा जाता था। उनकी सल्तनत का क्षेत्रफल और बढ़ा दिया जाता था ,उन्हें ‘अंग्रेज़ बहादुर’ अपने ख़ैर ख़्वाहों की सूची में प्रमुख स्थान देते थे। और विदेशी सत्ता ही सही परन्तु इन्हें सत्ता संरक्षण में धन-दौलत, मान-सम्मान, रियासत, ज़मीन, ओहदा, रुतबा आदि सब कुछ आसानी से हासिल हो जाता था। इसके बदले ऐसे अवसरवादी व सत्ता लोलुप लोगों को सिर्फ़ अपना ज़मीर ही तो बेचना होता था ?
आज के दौर में भी जब हम उसी मिज़ाज के चाटुकार,अवसरवादी,सत्ता लोलुप,लालची व ‘रीढ़ विहीन’ लोगों को देखते हैं तो ग़ुलामी के उस दौर के उन्हीं के वैचारिक ‘पूर्वजों ‘ की याद आनी भी स्वाभाविक है। आज देश राजनीति के एक नये क़िस्म के प्रयोग के दौर से गुज़र रहा है । पूर्ण बहुमत की केंद्रीय सत्ता अपनी पूरी मनमानी से सरकार चला रही है। तमाम सरकारी संस्थाओं पर कथित तौर पर किसी न किसी तरह से सरकारी नियंत्रण किया जा चुका है। पूरे देश में क़ानून व्यवस्था से लेकर बेरोज़गारी,मंहगाई,भ्रष्टाचार जैसे अनेक मोर्चों पर सरकार विफल है। भ्रष्टाचार को लेकर यदि सरकार के निशाने पर कोई रहता भी है तो वह केवल सत्ता विरोधी दलों के नेता या उनके समर्थक। गोया देश के लोगों को यह सन्देश देने की कोशिश है कि देश में केवल भाजपा ही ऐसी पार्टी है जिसके नेता ईमानदार हैं शेष सभी दलों में भ्रष्ट नेताओं की भरमार है। प्रायः प्रवर्तन निदेशालय,आयकर व सी बी आई के छापे भी विरोधी दलों के नेताओं के घरों या कार्यालयों पर ही पड़ते रहते हैं।
परन्तु ब्रिटिश काल की ही तरह आज भी सत्ता की चाटुकारिता करने वाला अवसरवादियों का एक बड़ा वर्ग जिसमें नेता, अधिकारी, पत्रकार,लेखक,कवि आदि विभिन्न वर्गों के लोग शामिल हैं, जिनकी नज़रों में सत्ता जो भी कर रही है वह सब ठीक परन्तु विपक्षी दलों में सभी कमियां व बुराइयां नज़र आती हैं। बड़ा आश्चर्य है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वाले ऐसे अवसरवादियों की समझ में यह नहीं आता कि सत्ता जिस तरह से विपक्ष मुक्त राजनीति करने की कोशिश में है वह देश के लोकतंत्र के हित में कैसे हो सकता है ? लोकतंत्र की तो असली पहचान ही मज़बूत विपक्ष है। परन्तु सत्ता व मीडिया का गठजोड़ विपक्ष की आवाज़ को न केवल दबाना चाहता है बल्कि उसे बदनाम व कमज़ोर भी करने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा है। आज देश का एक बड़ा वर्ग चाहे वह मुख्यधारा का मीडिया हो,लेखक स्तम्भकार,पत्रकार व कवि हों, उन्हें अपने कर्तव्यों की चिंता नहीं बल्कि सत्ता से क़दमताल करना उनके लिये ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। ऐसे लोगों को विपक्ष की कमज़ोरियाँ तो दिखाई देती हैं परन्तु सत्ता में या उसकी नीतियों में कोई कमी नज़र नहीं आती। उन्हें न तो देश के संविधान पर मंडराते ख़तरे दिखाई देते हैं न बेरोज़गारी दिखाई देती है न ही मंहगाई। ऐसे रीढ़ विहीन लोग तो दरअसल इसी फ़िराक़ में रहते हैं कि उनके सत्ता का क़सीदा पढ़ने व सत्ता के बजाये विपक्ष पर हमलावर होने से शायद उनपर भी सरकार की कोई ‘नज़्र-ए-इनायत ‘ हो जाये। शायद कुछ ‘रेवड़ी ‘ उनके हिस्से में भी आ जाये। इसीलिये उन्हें सत्ता के समक्ष ‘दण्डवत’ होने से बेहतर व आसान कोई उपाय नज़र नहीं आता।
यह तो भला हो देश के उन चंद लेखकों व पत्रकारों का जिन्होंने अपने मीडिया हॉउस के स्वामियों द्वारा सत्ता के सामने शीर्षासन करने के बाद ‘पत्रकारिता ‘ की लाज बचाते हुये उस मीडिया संस्थान को ही अलविदा कह दिया। इनमें से कई प्रमुख पत्रकार यू ट्यूब व अन्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करते देखे व सुने जा सकते हैं। उनके दर्शकों व पाठकों की भारी संख्या व दिनोंदिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता को देखर भी यह आसानी से समझा जा सकता है कि देश, सत्ता की नाकामियों व ग़लत नीतियों के बारे में जानना चाहता है। परन्तु सत्ता के ‘चाटुकार’ देश को केवल और केवल ‘राग दरबारी ‘ ही सुनाना चाहते हैं। यदि बात किसान आंदोलन की हो तो ‘चाटुकारों’ की नज़रें किसान विरोधी काले क़ानूनों पर नहीं बल्कि इस बात पर टिकी थीं कि आंदोलन का आर्थिक स्रोत क्या है ,यह ख़ालिस्तानी हैं,यह केवल पंजाब हरियाणा के किसान हैं,आदि। इसी तरह जब पहलवानों की इस्मत आबरू पर हमले का सवाल आया तो यही ‘राग दरबारी ‘ पहलवानों के शोषण पर नहीं बल्कि इस बात पर फ़ोकस करता दिखाई दिया कि सारे पहलवान एक ही अखाड़े के क्यों ? इनका राजनैतिक सम्बन्ध किस से है,इनसे जंतर मंतर पर मिलने वाले लोग कौन कौन थे… आदि ?
इसी तरह गत 13 दिसंबर को देश के उस नवनिर्मित संसद भवन में 2 संदिग्ध लोग घुस आये जिसे सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य भवन बताया गया है। दो लोग घुसे भी साथ ही अपने साथ कोई ऐसा प्रतिबंधित सामान अंदर ले जाने में भी सफल रहे जिसके द्वारा उन्होंने संसद के भीतर काफ़ी धुआं फैला दिया। इसके बाद विपक्ष ने संसद भवन की सुरक्षा और घुसने वालों की शिनाख़्त पर सवाल उठाये। बताया गया की इनके पास किसी भाजपा सांसद की सिफ़ारिश से ही हासिल किया गया प्रवेश पत्र था। परन्तु बहुमत की सत्ता ने विपक्षी दलों की आवाज़ को इस क़द्र दबाया कि लगभग डेढ़ सौ सांसदों को निलंबित कर दिया गया। और इसी दौरान विपक्ष की ग़ैर मौजूदगी में कई विवादित विधेयक भी पेश कर दिए गये जिनमें राहुल गांधी के अनुसार ड्राइवर्स विरोधी बताया जा रहा ‘हिट एंड रन ‘ विधेयक भी शामिल था। परन्तु इस हंगामे में भी चाटुकार वर्ग विपक्ष को ही दोषी ठहरता रहा। किसी ने नहीं पूछा कि उस भाजपाई सांसद ने ऐसे लोगों को पास क्यों दिलाया जो संसद की सुरक्षा के लिए ख़तरा थे ? किसी ने यह नहीं पूछा कि जिस नये संसद भवन को सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य भवन बताया गया था उसका सुरक्षा चक्र इतनी आसानी से कैसे टूट गया ? गोया ऐसे लोगों को अपना धर्म व कर्तव्य सत्ता से सवाल करना नहीं बल्कि सिर्फ़ चाटुकारिता करना दिखाई देता है। ऐसे रीढ़ विहीन लोगों ने शायद ‘चाटुकारिता : सदा सहाय’ जैसे कथन को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है।