मन्दिरों में पैसे लेकर एवं वीआईपी दर्शन बन्द हो

Taking money in temples and VIP darshan should be stopped

ललित गर्ग

ठाकुर बांके बिहारी मंदिर में पैसे लेकर दर्शन कराने वाले बाउंसरों की गिरफ्तारी के बाद श्रीकाशी विश्वनाथ धाम में सुगम दर्शन के नाम पर एक साथ इक्कीस लोगों की गिरफ्तारी जहां मंदिर प्रशासन की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह है, वही ईश्वर के दरबार में पांव फैला रहा भ्रष्टाचार गहन चिन्ताजनक एवं शर्मनाक हैं। कुछ ही दिनों पहले ओंकारेश्वर स्थित ममलेश्वर मंदिर में भक्तों से वीआइपी दर्शन के नाम पर अवैध वसूली करने पर प्रशासन ने एक होमगार्ड जवान और दो पंडितों पर कार्रवाई की है। देश-विदेश के भक्त अगाध श्रद्धा से अपने आराध्य का दर्शन करने आते हैं, लेकिन देश के प्रमुख मन्दिरों में सीधे दर्शन कराने के नाम पर पैसों की लूट मची है या वीआईपी संस्कृति के नाम पर त्रासद एवं भेदभावपूर्ण स्थितियां पसरी है। सवाल यह पूछा जा रहा है कि हिंदुओं के धार्मिक स्थलों और आयोजनों में क्यों भक्तों के बीच भेदभाव होता है? मन्दिरों में गरीब एवं अमीर के बीच भेदभाव की स्थितियां खुला भ्रष्टाचार ही है। पैसे लेकर एवं वीआईपी दर्शन की अवधारणा भक्ति एवं आस्था के खिलाफ है। यह एक असमानता का उदाहरण है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी आघात करती है। श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर में तो त्रिस्तरीय सुरक्षा व्यवस्था भी है। मंदिर का चप्पा-चप्पा सीसीटीवी कैमरे की पहुंच में है। यह मन्दिर सुरक्षा कारणों से अतिसंवेदनशील स्थल होने के बावजूद ऐसा कृत्य खेदजनक ही नहीं, आपत्तिजनक भी है। मंदिर प्रबंधन को चाहिए कि दर्शन की प्रचलित व्यवस्था को और सुगम, भ्रष्ठाचार व दोषरहित बनाए ताकि व्यवस्था में कोई सेंध न लगे और जन-आस्था आहत न हो।

श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर में तो सुगम दर्शन का शुल्क भी जमा कराया जाता है पर ठगों की जमात ने शीघ्र दर्शन के नाम पर कमाई का नया रास्ता तलाश लिया। मंदिर प्रबंधन को चाहिए कि वह सुगम दर्शन व्यवस्था के नाम पर हो रही धांधली को गंभीरता से ले। फर्जी पंडा, गाइड बनकर लोगों को झांसे में लेने वाले लोग अचानक एक दिन में डेरा नहीं जमाए होंगे। यह सब काफी समय से चल रहा होगा। इस प्रकार की ठगी करने की संभावना कैसे बन जाती है, इसकी जांच होनी चाहिए। बात केवल ठाकुर बांके बिहारी मंदिर या श्रीकाशी विश्वनाथ धाम की ही नहीं है, बल्कि देश के प्रमुख मन्दिरों में बढ़ती जन-आस्था की भीड़ एवं लम्बी-लम्बी लाइनों के बीच पैसे लेकर या वीआईपी दर्शन कराने की त्रासद एवं विसंगतिपूर्ण स्थितियांे की हैं, जिसने न केवल देश के आम आदमी के मन को आहत किया है, बल्कि भारत के समानता के सिद्धान्त की भी धज्जियां उड़ा दी है। कुछ विशेष लोगों को मिलने वाले वीआईपी सम्मान एवं सुविधा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

बांके बिहारी मंदिर में एक बार फिर वीआईपी कल्चर का खेल सामने आया है। मंदिर की भीड़ से हटकर वीआईपी दर्शन कराने के नाम पर एक निजी सुरक्षा एजेंसी ने बाउंसर उपलब्ध कराकर पैसे कमाने का गोरखधंधा शुरू कर दिया था। एजेंसी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे फेसबुक और इंस्टाग्राम पर प्रचार कर यह दावा किया कि वे श्रद्धालुओं को भीड़ से बचाकर विशेष वीआईपी दर्शन कराने में मदद कर सकते हैं। यह तो घोषित गैरकानूनी व्यवस्था है, लेकिन अन्य प्रमुख मन्दिरों में भी मन्दिर से जुड़े लोग या अन्य ठग पैसे लेकर दर्शन कराते हैं। सबसे ज्यादा दुखद एवं विडम्बनापूर्ण है वीआईपी दर्शन का प्रचलन। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पहले ही कार्यकाल के दौरान वीआईपी कल्चर को खत्म करते हुए लालबत्ती एवं ऐसी अनेक वीआईपी सुविधाओं को समाप्त कर दिया था तो मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों की वीआईवी संस्कृति को क्यों नहीं समाप्त किया? क्यों मन्दिरों में वीआईपी दर्शन के लिये सरकार ने अलग से व्यवस्थाएं की। दरअसल, वीआईपी संस्कृति का दायरा बहुत व्यापक है। यह धार्मिक स्थलों तक सीमित नहीं है। लोकतंत्र से लेकर आस्था तक, कई मौकों पर कुछ खास लोगों को विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। लोकतंत्र का मूल सिद्धांत कहता है कि सभी नागरिक समान हैं, फिर भी व्यवहार में कुछ लोग ‘विशेष’ बन जाते हैं, चाहे वे सड़क पर हों, सरकारी दफ्तरों में, अस्पतालों में या मंदिरों में! इसी तरह, बड़े नेताओं और अधिकारियों के लिये मन्दिरों में सीधे दर्शन कराने की व्यवस्थाएं हैं, जिससे लम्बी कतारे और लम्बे समय का इंतजार करती है। ऐसी व्यवस्था से मन्दिरों एवं धार्मिक आयोजनों में हादसें भी होते हुए देखे गये हैं। इन वीआईपी के लिए अक्सर यातायात रोक दिया जाता है, जिससे आम जनता घंटों जाम में फंसी रहती है। अस्पतालों में वीआईपी वार्ड हैं, जबकि आम मरीजों को बिस्तर भी नहीं मिल पाता। एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशनों पर वीआईपी यात्रियों को विशेष सुविधाएं मिलती हैं, जबकि आम लोग लंबी कतारों में खड़े रहते हैं। वीआईपी संस्कृति एक नासूर बन गई है। यही कारण है कि हर सरकार वीआईपी संस्कृति को खत्म करने का वादा करती है, लेकिन हकीकत में इसे बनाए रखने के नए-नए तरीके खोजे जाते हैं।

वीआईपी कल्चर एवं पैसे लेकर दर्शन कराने की धांधली ने एक बार फिर से नये सिरे से बहस छेड़ दी है। सवाल उठ रहा है कि जब गुरुद्वारे में वीआईपी दर्शन नहीं, मस्जिद में वीआईपी नमाज नहीं, चर्च में वीआईपी प्रार्थना नहीं होती है तो सिर्फ हिन्दू मंदिरों में कुछ प्रमुख लोगों के लिए वीआईपी या पैसे लेकर दर्शन क्यों है? क्या इस पद्धति को खत्म नहीं किया जाना चाहिए, जो हिंदुओं में दूरिया पैदा करता है? प्रसिद्ध मन्दिरों में वीआईपी पास एवं दर्शन की व्यवस्था समाप्त क्यों नहीं होती? यह व्यवस्था समाप्त होना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने ही धार्मिक स्थलों पर होने वाली वीआईपी व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े किये हैं। निश्चित ही जब किसी को वरीयता दी जाती है और प्राथमिकता दी जाती है तो उसे वीवीआईपी या वीआईपी कहते हैं। यह समानता की अवधारणा को कमतर आंकना है। वीआईपी संस्कृति एक पथभ्रष्टता है, यह एक अतिक्रमण है, यह मानवाधिकारों का हनन है। समानता के नजरिए से देखा जाए तो समाज में इसका कोई स्थान नहीं होना चाहिए, धार्मिक स्थलों एवं मन्दिरों में तो बिल्कुल भी नहीं।

न्यायालय भी देश में बढ़ती वीआईपी संस्कृति को लेकर चिन्तीत है। मद्रास उच्च न्यायालय की मुदुरै पीठ ने अपनी एक सुनवाई के दौरान कहा भी है कि लोग वीआईपी संस्कृति से ‘हताश’ हो गए हैं, खासतौर पर मंदिरों में। इसके साथ ही अदालत ने तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों में विशेष दर्शन के संबंध में कई दिशा निर्देश जारी किए। राजस्थान में गहलोत सरकार ने भी मन्दिरों में वीआईपी दर्शनों की परम्परा को समाप्त करने की घोषणा की थी कि मन्दिरों में बुजुर्ग ही एकमात्र वीआईपी होंगे। इस तरह की सरकारी घोषणाएं भी समस्या का कारगर उपाय न होकर कोरा दिखावा होती रही है। अक्सर नेताओं एवं धनाढ्यों को विशेष दर्शन कराने के लिए मंदिर परिसरों को आम लोगों के लिये बंद कर दिया जाता है, जिससे श्रद्धालुओं को भारी परेशानी होती है, लोग वास्तव में इससे दुखी होते हैं और कोसते हैं। वीआईपी लोगों को तरह-तरह की सुविधाएं दी जाती है, मन्दिर के मूल परिसर-गर्भ परिसर में दर्शन कराये जाते हैं, उनके वाहन मन्दिर के दरवाजे तक जाते हैं, उनके साथ पुलिस-व्यवस्था रहती है, जबकि आम श्रद्धालुओं को कई किलोमीटर पैदल चलना होता है, भगवान के दर्शन दूर से कराये जाते हैं, उनके साथ धक्का-मुक्की की जाती है। लगता है मन्दिरों में दर्शन में सहभागिता को लेकर आम आदमी गुलामी की मानसिकता को ही जी रहा है। इन स्थानों पर उसके स्वाभिमान, सम्मान एवं समानता को बेरहमी से कुचला जा रहा है। ये कैसा मंदिर और ये कैसा दर्शन जहाँ सरेआम आम दर्शनार्थी का अपमान हो रहा है। इसलिए जिस भी मंदिर में वीआईपी दर्शन की सुविधा दी जा रही है उसके खिलाफ जनक्रांति हो। आज हिन्दू मन्दिरों की भेदभाव पूर्ण दर्शन-व्यवस्था को समाप्त करके ही आम आदमी को उसका उचित सम्मान किया जा सकता है, उसकी निराशा एवं पीड़ा को समझा जा सकता है। भाजपा सरकार मन्दिरों एवं धार्मिक-स्थलों से वीआईपी संस्कृति को समाप्त करने के लिये कोई ठोस कदम उठाये।