आत्मनिर्भरता के लिए कौशल दक्षता का आलाप

Talk of skill efficiency for self-reliance

प्रमोद भार्गव

देश में वस्तु निर्माण के पुख्ता स्तंभ बनाने के लिए कौशल दक्षता में कमी की बात कही जाती है। यहां तक कि इंजीनियर और पीएचडी डिग्रीधारी को भी अयोग्य ठहरा दिया जाता है। हाल ही में आईफोन बनाने वाली अमेरिकी कंपनी एप्पल ने चेन्नई में फोन निर्माण के लिए एक संयंत्र स्थापित किया है, किंतु उसे पर्याप्त दक्ष युवा नहीं मिल रहे। इनकी प्रतिपूर्ति कंपनी ने चीन और ताइवान से की। यहां सवाल उच्च शिक्षित पेशेवरों के साथ उन शिक्षा संस्थानों पर भी खड़ा होता है कि तमाम आधुनिक संसाधनों से भरे पड़े ये पढ़ा व सिखा क्या रहे हैं ? दक्षता की लक्ष्य पूर्ति के लिए अक्सर चीन से सीख लेने की बात कही जाती है। जिससे यह जान लिया जाए कि सस्ते मजदूरों के जरिए सस्ती वस्तुओं का निर्माण कैसे हो ? क्योंकि इन्हीं वस्तुओं के निर्माण से चीन दुनिया की औद्योगिक व प्रौद्योगिक षक्ति बना है। उसके माल से दुनिया के बाजार भरे पड़े हैं।

यहां प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हम सस्ती वस्तुओं के निर्माण की तरकीब और देशज ज्ञान भारत और भारतीयों से नहीं सीख सकते ? मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले में एक तहसील स्तरीय कस्बा है बदरवास। संयोग से मैं (लेखक) यहीं का रहने वाला हूं। अब से करीब पैंतालीस साल पहले बदरवास के ही बैक से 10 हजार रुपए का ऋण लेकर रमेश अग्रवाल ने यहीं छोटी सी दुकान में जैकेट बनाने का काम प्रारंभ किया था, तब वे रोजाना 40-50 जैकेट बनवाकर बेच लेते थे। किंतु आज हजारों जैकेट बनवा कर बेच रहे हैं। मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल समेत नेपाल तक फेरी वाले उनकी जैकेट बेचते हैं। इसे मोदी जैकेट कहा जाता है। सस्ती जैकेट का यह व्यापार समूचे देश में फैल रहा है। इस उत्पाद के षौ-रूम भी खुल रहे हैं और बाजार में मांग लगातार बढ़ रही है। अब जैकेट निर्माण का विकेंद्रीकरण हुआ है। करीब एक सैंकड़ा लोग जैकेट के निर्माण और व्यापार में जुटे हैं। पांच-सात हजार क्षेत्रीय ग्रामीण पुरुश और महिलाएं जैकेट की सिलाई के काम से जुड़े रहते हुए आत्मनिर्भर हुए हैं। बदरवास की गली-गली में जैकेट सिलने और बेचने का व्यापार परवान चढ़ा दिखाई देता है। बड़े कारोबारियों के कारखाने देखकर हैरानी होती है कि इतने छोटे कस्बे में जैकेट का इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन कैसे हो रहा ?
इन जैकटों की कीमत न्यूनतम 80 रुपए से लेकर 300 रुपए तक है। यहां के सिले वस्त्र निर्माता इतना सस्ता उत्पाद कैसे कर पाते हैं, इस रहस्यमयी तरकीब को जानना जरूरी है, जिससे चीन की तरह भारत के माल से दुनिया के बाजार भरे जा सकें।

जैकेट व्यापारी अपने ठिकानों पर विभिन्न आकार-प्रकार की जैकेटों के कपड़े की कटिंग कराते हैं। फिर इन कटे वस्त्रों को आसपास के पन्द्रह किलोमीटर तक के ग्रामों में सिलने के लिए दर्जन के हिसाब से भेज देते हैं। अतएव यहां देखने में आता है कि घर-घर और खेत-खेत महिलाएं और छात्राएं जैकेट की सिलाई में लगी हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं खेती-किसानी से जुड़ी होती हैं। ये घरेलू और किसानी की दिनचर्या से निपटने के बाद खेत में बने घर की दहलान में पैरों से चलने वाली सिलाई मशीन से सिलाई के काम में लग जाती हैं। सिलाई के बाद इनके घर का कोई व्यक्ति जैकेटों को साइकिल या बाइक से व्यापारी को दे आते हैं। तत्काल इन्हें प्रति जैकेट के हिसाब से मजदूरी दे दी जाती है। जैकेट की सिलाई खाली समय में की जाती है, इसलिए मजदूर को अतिरिक्त धन मिल जाता है, जो इनकी आर्थिक समृद्धि का मजबूत आधार बन गया है। सिलाई की इस कौशल दक्षता को मां या बड़ी बहन नई पीढ़ी को सिखाती चलती हैं। इस कौशल के लिए अच्छी पढ़ाई या उत्तम प्रशिक्षण की जरूरत ही नहीं पड़ती है। जैकेटों में काज-बटन लगाने का काम पृरुश या तो हाथ से करते हैं या फिर मशीनों से। जैकेट के जितने भी बड़े कारोबारी हैं, उनके कारखानों में आधुनिक व इलेक्ट्रोनिक तकनीक से जुड़ी बड़ी-बड़ी मशीनें लगी हैं। इन मशीनों को चलाना भी लोग परस्पर सीख लेते हैं। इसी तरकीब से बदरवास में प्रतिदिन लगभग दस हजार जैकेट बनाकर बेची जा रही हैं।

सस्ते श्रम से सस्ते माल के उत्पादन की इस विधि को संपूर्ण भारत समेत विदेश में भी फैलाने की जरूरत है। चीन इसी तकनीक से विश्व बाजार में औद्योगिक षक्ति बना हुआ है। दरअसल चीन पिछले चार दशक से बदरवास जैसी वस्तु निर्माण की तरकीब अपनाए हुए है। वह वस्तु निर्माण से जुड़े कारीगरों को नगरों में आकर काम करने को विवश नहीं करता, अपितु कच्चा माल गांव-गांव भिजवाकर वस्तु निर्माण कराता है। देवी-देवताओं की मूर्तियां, दीपक, राखी, बिजली की झालर वह इसी तरकीब से बनवाता है और फिर उनकी दर्शनीय पैकिंग कराकर निर्यात करता है। अमेरिका समेत अन्य देशों के उद्योगपति चीन की इस सस्ती तरकीब से जुड़े सफल मंत्र के चमत्कार को अनुभव करके इसे अपनाने की पहल कर रहे हैं। लेकिन भारत जो अपनी समृद्ध ज्ञान परंपरा से वस्तुओं के निर्माण में हजारों साल से जुड़ा हुआ था, वहां के लोग और शिक्षा संस्थान पश्चिम की ओर ताक रहे हैं। भारत के शिक्षा विशेशज्ञ भी इसी विचार से प्रेरित हैं। लोगों को षेयर बाजार के सिद्धांत और ऋण से धंधे की स्थापना के जुनून का पाठ पढ़ाया जाकर सरकारी या कंपनियों की नौकरी मिल जाए। जिससे वे कुलीन की श्रेणी में आ जाएं। उच्च शिक्षा के इस लक्ष्य को साधने के लिए कर्ज की सुविधा देकर विदेशी व्यापार-प्रबंधन के संस्थानों में पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। कथित कामयाबी के लिए यह प्रोत्साहन सर्वथा अनुचित है। जबकि भारतीय संस्कृति में शिक्षित होने का उद्देश्य धनवान या आभिजात्य होना कतई नहीं था। विनम्र व षालीन बने रहते हुए ज्ञान को अन्य समुदायों में बांटना और वंचितों की सेवा करना था। जैकेट का कारोबार षुरू करने वाले रमेश अग्रवाल एक ऐसे अपवाद हैं, जो ‘अपना घर‘ के माध्यम से उपेक्षित रोगियों की सेवा में नियमित लगे हैं। किसी भी धनवान का देश और समाज के प्रति यही उत्तरदायित्व होना चाहिए।

दूसरी तरफ हमारे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं। जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में 29 प्रतिशत, रोजगार में 60 प्रतिशत और निर्यात में 40 प्रतिशत योगदान इन्हीं उद्योगों का है। फिर भी इन उद्योगों से लेकर ऑटोमोबाइल, कृत्रिम-मेघा और मशीन लर्निंग जैसे उद्योगों के लिए दक्ष युवाओं की कमी है। आखिर भारतीय राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन युवाओं को दक्ष करने में असफल क्यों रहा ? क्योंकि इस अभियान में युवाओं को प्रशिक्षण देकर दक्ष बनाने का दायित्व जिन लोगों को सौंपा गया था, वे वही किताबी ज्ञान देते रहे, जिसे प्रशिक्षु शिक्षा संस्थानों से पढ़कर निकले थे, जबकि उन्हें उद्योग में प्रायोगिक ज्ञान की जरूरत थी। इसी ज्ञान से उत्पादकता बढ़ेगी। उत्पादकता बढ़ेगी तो आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी। मेक इन इंडिया का यही उपाय वैश्विक प्रतिस्पर्धा के बाजार में भारत को स्थापित करेगा। राजस्व और रोजगार के नए द्वार खुलेंगे।