गुजरे जमाने की बातें हो रही हैं गोष्ठियों और बैठकी के दौर

आर.के. सिन्हा

यह संभव है कि मौजूदा युवा पीढ़ी को शायद पता ही न हो कि कोई एक-डेढ़ दशक पहले तक दिल्ली, लखनऊ, पटना वगैरह हिन्दी पट्टी के खास शहरों में हिन्दी लेखकों-कवियों की दिनभर कॉफी हाउस से लेकर शामों में अलग-अलग साहित्य प्रेमियों के घरों में लगातार गोष्ठियां आयोजित हुआ करती थीं। उनमें लेखक बंधु अपनी ताजा रचनाएं पढ़ते थे। उसके बाद उन पर बहस होती थी। वह कभी-कभी विस्फोटक भी होने लगती थीं। अब लगता है कि गोष्ठियों और बैठकी के दौर गुजरे जमाने की बातें हो रही हैं। अब गोष्ठियां आनलाइन अधिक होने लगी हैं। इसके अलावा लेखक अपनी ताजा कहानियां, गजलें, कविताएं अपनी फेसबुक वॉल पर ही डाल रहे हैं। वहां पर कुछ लाइक और छिट-पुट कमेंट जरूर आ जाते हैं। लेखक एक-दूसरे से पहले की तरह गर्मजोशी के साथ नहीं मिल रहे। पहले वाली बेतकल्लुफी गायब सी हो गई। कुछ साल पहले तक राजधानी दिल्ली में निर्मल वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, राजेन्द्र यादव, पदमा सचदेव जैसे लेखकों के घरों में उनके समकालीन और नौजवान लेखक लगातार आते-जाते रहते थे। वहां पर बैठकी के लंबे दौर चला करते थे। कभी-कभी सुबह भी हो जाती थी I लेकिन वह स्थिति अब कम या कहें की खत्म होती जा रही है।

उन दिनों, कॉफी हाउस तो वैचारिक मुठभेड़ों के गढ़ होते थे। उनमें लेखक, संस्कृतिकर्मी, कलाकार, राजनीतिक कार्यकता सब तो आकर घंटों बैठते थे। अब उनमें भी सन्नाटा पसरा रहता है। पटना के काफी हाउस में फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन, सत्यनारायण, रॉबिन शॉ पुष्प, बाल्मीकि प्रसाद विकट, गोपीबल्लभ सहाय, शम्भुदयाल, सिंह, जीतेन्द्र सिंह अनेकों पत्रकार ही बैठने वालों में शामिल थेI पहले वाली गहमा-गहमी नहीं दिखाई देती। यही स्थिति दिल्ली के मोहन सिंह प्लेस के कॉफी हाउस की भी थी। दिल्ली के बाहर से आने वाला लगभग हर नेता, कार्यकर्ता, लेखक अगर कॉफीहाउस न आए तो समझा जाता था कि उसका दिल्ली आगमन निरर्थक है। कॉफी हाउस कई लोगों तथा संस्थाओं के लिए स्थायी कार्यालय का भी कार्य करता था। दिल्ली के कॉफी हाउस में अवारा मसीहा के लेखक विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव वगैरह रोज गपशप कर रहे होते थे। इनमें साहित्य,समाज और सामयिक बिन्दुओं पर कॉफी की प्याली पर लंबी चर्चाएं होती थीं। इस बीच, हिदी के बड़े साहित्यकारों के नामों की चर्चा जब होती है तब मुंशी प्रेमचंद, रामधारी सिंह दिनकर, बाबा नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु और शिव पूजन सहाय का उल्लेख अवश्य होता है। इन सबने पटना में रहते हुए हिदी के राष्ट्रीय फलक पर अपनी छाप छोड़ी थी। रेणु, दिनकर, नागार्जुन, रामवृक्ष बेनीपुरी, जानकी वल्लभ शास्त्री जैसे शब्दों के सम्राटों ने पटना में दर्जनों साहित्यिक गोष्ठियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। ये पटना के चाय के प्रमुख अड्डों से लेकर कॉफी हाउस तक में बैठा करते थे। रामधारी सिंह दिनकर ने निबंधन विभाग के पटना कार्यालय में 1934 में नौकरी शुरू की थी। दिनकर ने 1935 में जब ‘रेणुका’ नामक कविता संग्रह की रचना की तो उनका तबादला पटना निबंधन कार्यालय से बाढ़ कार्यालय कर दिया गया। 1938 में जब कविता संग्रह ‘हुंकार’ प्रकाशित हुआ, तब उनपर ब्रिटिश सरकार विरोधी होने के आरोप लगे और उनका तबादला नरकटियागंज कर दिया गया। वह पटना रहें या कहीं अन्य शहर में, वे साहित्य की सेवा करते रहे और नौजवान लेखकों से भी मिलते-जुलते रहे।

आपको पटना में अब भी इस तरह के कई लोग मिल जाएंगे जिन्होंने दिनकर, रेणु, नागार्जुन, बेनीपुरी आदि बड़े कवियों को किसी कार्यक्रम में सुना। रेणु कालजयी रचनाकार और क्रांतिकारी थे। वे भी मित्रों तथा साहित्य प्रेमियों के लिए सदैव उपलब्ध रहते थे। पर अब तो नहीं लगता कि पटना में बहुत गोष्ठियां हो रही हैं या साहित्यकार एक-दूसरे से मिल जुल कर ताजा रचनाओं पर बतिया रहे हैं। हाँ, इधर कुछ वर्षों से बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन अवश्य ही सक्रिय हुआ है और वहां हर सप्ताह कोई न कोई साहित्यिक कार्यक्रम होने लगे हैं I

अगर बात लखनऊ की हो तो यहां के लोगों का साहित्य से बहुत पुराना रिश्ता रहा है। यशपाल शर्मा, अमृतलाल नागर,मुद्राराक्षस,के.पी. सक्सेना, शिवानी जैसे कई बड़े साहित्यकार यहां रहे। लेकिन अब लखनऊ में भी साहित्यिक हलचलें न के बराबर हैं। यह सब कोई सुखद संकेत नहीं माने जा सकते। लखनऊ के आसपास के दो शहरों क्रमश: कानपुर तथा प्रयागराज में घर-घर में कवि तथा कहानीकार होते थे। खूब गोष्ठियां होती थीं। पर उनमें कमी आ रही है। जिस समाज के लेखक, कवि, कहानीकार घरों में छिप जाएंगे तो फिर निराशा होना लाजिमी है। दरअसल 1990 के दशक के बाद से हालात बदलने लगे थे। तब तक नवोदित लेखक बड़े लेखकों के घर बिन बताए ही पहुँच जाया थे। कोई बुरा नहीं मानता था। निर्मल वर्मा के करोल बाग वाले घर की बरसाती का ऐसा सम्मोहन था कि रोज ही दर्जनों साहित्यकार उनके घर में पहुँच जाया करते थे। उनकी बरसाती में बैठकर घंटों बातें होती। तो अब क्या हुआ? इस बदलाव की एक वजह यह भी समझ आ रही है कि इंसान आज अनेक मुश्किलों से घिरा है। एक ऐसी दुनिया में रह रहा है जिसमें सबकुछ व्यक्ति केन्द्रित है। स्वार्थ परक और लालसापूर्ण जीवन शैली का परिणाम है यह I साहित्यिक आयोजन और व्यक्ति लॉबिंग और समूहों में चल रहे हैं। आप अकारण तो आज किसी से मिल ही नहीं सकते।

लखनऊ के कॉफी हाउस की क्या बात थी। शहर के दिल हजरतगंज के जहांगीराबाद बिल्डिंग में इंडियन कॉफी हाउस रहा है। ये लखनऊ के इतिहास का वह खुशगवार पन्ना है जो हमेशा से साहित्यिक, कला, संस्कृति और राजनीतिक विमर्शों का अड्डा रहा है। यहां की हरी-पीली रंग की दीवारों पर लखनऊ शहर की ऐतिहासिक धरोहरों की तस्वीरें हैं। ये गवाह है दोस्तों की, यारियों की, प्रेमी जोड़ों का, साहित्यकारों के विमर्श की , राजनेताओं की राजनैतिक चर्चाओं और क्रांतिकारी संघर्षों की । बेशक, देश के हर शहर के कॉफी हाउस बौद्धिक विचारों के गढ़ रहे हैं। लेकिन इनसे लेखक और साहित्यकार दूरियां बना रहे हैं । इस सबकी एक वजह यह भी लगती है कि अब शहरों-महानगरों का बहुत विस्तार हो गया है। एक-दूसरे से मिलने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। सफर करने में भी मोटा खर्च आता है। इस कारण भी लेखकों का आपसी मिलना-जुलना कम हो गया है। मेरे पटना के एक कवि मित्र बता रहे थे कि हम कवि मित्र बीच-बीच में व्हाट्सएप पर ही वीडियो कांफ्रेंस कर लेते हैं। उधर ही गोष्ठी हो जाती है। जाहिर है, इस तरह की गोष्ठियों में कोई रस नहीं होता। ये तो सांकेतिक गोष्ठियां ही मानी जा सकती हैं। अब जबकि कोरोना का कहर जा चुका है, इसलिए कलम के सिपाहियों को फिर से आपस में मिलना-जुलना शुरू करना होगा ताकि साहित्य का कोना फिर से गुलजार हो सके।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)