काशी के मठ-मंदिरों पर है तमिलों का भी प्रभाव

अनंत अमित

आदिदेव महादेव की नगरी के रूप में विख्यात काशी के कण-कण में शंकर विराजमान है। इस बात से हर कोई इत्तेफाक रखता है। करीब दो हजार वर्षों से पहले से दक्षिण भारतीय खासकर तमिलों का यहां आना जारी है। वाराणसी में तमिल के धार्मिक संस्थानों की स्थापना सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना रहा है. यह मठ और मंदिर तमिल तीर्थयात्रियों को शहर की ओर खींचते हैं। तमिल समुदाय और काशी के बीच का कभी न मिटने वाला संबंध यहां रहने वाले लोगों के साथ बातचीत में नजर आता है।

आदि शंकराचार्य के समय से ही शिव के ‘सुख साधन रहित आनंद’ की तलाश में काशी पहुंचने वाले शैव तमिलों की एक सतत धारा रही है। यहां के मंदिरों-मठों पर दक्षिण भारतीय शैली का प्रभाव सीधेतौर पर देखा जा सकता है। हरिश्चंद्र घाट के ठीक ऊपर मिनी दक्षिण भारत के रूप में ख्यात हनुमान घाट का श्रीकाशी कामकोटीश्वर मंदिर भी शिव नगरी में दाक्षिणात्य शिल्प कला के वैभव की अनुपम झलक देता है। मंदिर के न्यासी सुब्रमण्यम मणि के अनुसार सर्वज्ञ पीठ के परमाचार्य स्वामी चंद्रशेखरेंद्र की इच्छा के अनुसार उनकी स्मृतियों को समर्पित इस शिवालय की स्थापना वर्ष 1974 में भव्य कुंभाभिषेक अनुष्ठान के साथ हुई। जगत गुरु शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती के सानिध्य में हुए अनुष्ठानों के प्रथम यजमान बने तत्कालीन काशीराज डॉक्टर विभूति नारायण सिंह जिन्हें ट्रस्ट के प्रथम संरक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।वास्तु सिद्धांतों के आधार पर मंदिर में मंडप में आग्नेय कोण पर अग्नि स्वरूप सूर्य, ईशान कोण में महाविष्णु, वायव्य कोण में महालक्ष्मी व नैऋत्य कोण में यहां विघ्नहर्ता गणेश विराजते हैं। चारों दिशाओं के देवों के साथ यहां मध्य पीठ पर आसन है स्वयं पंचभूत स्वरूप महादेव भगवान शिव का।

दक्षिण भारतीय परंपरा के अनुसार देवालय के गोपुरम व शिखर को रामायण, महाभारत, गीता व श्रीमद्भागवत के सभी देव पात्रों की श्यामल प्रतिमाओं से सजाया गया है। इन मूर्तियों के भाव व उनकी जीवंत भंगिमाएं दूर से ही दृष्टि को बांधती हैं। मानो आमंत्रण देती हैं देव नमन से चित्त को साधने का, साथ ही दक्षिण भारतीय शिल्प कला की गहराई में झांकने का। बताते हैं श्रीमणि, नित्य वंदन-अर्चन के साथ मंदिर में प्रतिवर्ष कई विशाल व भव्य आयोजन भी होते हैं। परमाचार्य की जयंती के अलावा भगवना अयप्पा की अभ्यर्थना में आयोजित 45 दिनी समारोह काशी के बड़े उत्सवों में शुमार है।

महारानी अहिल्याबाई होलकर ने 1777 में काशी विश्वनाथ मंदिर की पुनः स्थापना की तभी से तमिलनाडु से काशी आने का क्रम तेज हुआ। तमिल प्रांतों की अनेक संस्थाएं आकर अपनी-अपनी शैली अनुसार भवन, मठ-मंदिर आदि का निर्माण करने लगीं।
केदार घाट पर मौजूद केदारेश्वर मंदिर द्रविड़ शैली का सबसे पुराना मंदिर है, जिसे कुमारगुरुपरार ने पुनर्निर्मित किया था। उन्होंने कुमारस्वामी मठ की स्थापना भी की थी, जो आज भी मंदिर की देखभाल में लगा है। मौजूदा समय में द्रविड़ संतों द्वारा बनाए गए लगभग 150 मंदिर हैं, उन्होंने कहा कि काशी में रहने वाले हर तमिल परिवार का एक शिवालय (शिव मंदिर) है।

दक्षिण भारतीय कवि-संगीतकारों ने भी काशी में मंदिरों के रूप में अपने निशान छोड़े हैं। उनमें से एक प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार, कवि, संगीतकार और वीणा वादक मुथुस्वामी दीक्षितार के पूजा स्थल पर स्थित चक्र लिंगेश्वर मंदिर है। कवि लगभग 200 साल पहले अपने गुरु के साथ काशी आए थे।

नाट्टुक्कोट्टै नगरत्तार, तमिलनाडु के वैश्य समुदाय की एक संस्था है। काशी में वर्ष 1820 के लगभग आए और प्रथम निवास केदारघाट स्थित कुमारस्वामी मठ को बनाया। श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर में तीनों पहर की पूजा में इनका विशेष योगदान है। इनका छत्रम् (धर्मशाला) अगस्त्य कुंडा में है। विशालाक्षी गौरी का प्रबंधन भी इन्हीं के द्वारा होता है।

कुमारस्वामी मठ तमिलनाडु के शैव संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा संचालित है। केदारेश्वर मंदिर का प्रबंधन के साथ ही धर्मशाला, अन्नक्षेत्र आदि की व्यवस्था भी मठ करता है। धर्मपुरम् मठ कुमारस्वामी मठ के उत्तर पश्चिम में स्थित है। इसे कुमारस्वामी मठ की गुरुपीठ माना जाता है। यहां तमिल भाषा अध्ययन के साथ रामचरितमानस, तमिल महाकवि कम्ब विरचित कम्ब रामायण का भी प्रवचन एवं अध्यापन होता रहा है।

तमिलनाडु से आए दंडी संन्यासी शुकदेव का संकल्प था कि काशी में संन्यासियों के लिए एक निवास स्थान हो जहां भगवान् आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित प्रस्थानत्रयी ग्रंथों का अध्ययन-अध्यापन हो। इस मठ का निर्माण वर्ष 1800-1802 के आसपास हुआ। कर्नाटक संगीत के त्रिमूर्तियों में एक मुत्तुस्वामी दीक्षित का आगमन भी इसी मठ में हुआ।

काशी में भगवान् आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सर्वज्ञ पीठ श्रीकांचीकामकोटिपीठम् का आविर्भाव वर्ष 1934 में हुआ । पूज्य परमाचार्य चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती पदयात्रा कर काशी आए तो प्रथम आगमन शुकदेव मठ में हुआ।आज कांची मठ द्वारा काशी में तमिल संस्कृत एवं हिन्दी के लिए अनेक कार्य किए जा रहे हैं। ब्रह्मेन्द्र मठ भी कांची मठ का ही संगठन है। यहां संन्यासियों के रहने तथा वेदांत के अध्ययन – अध्यापन का कार्य किया जाता है ।

(लेखक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)