गोपेंद्र नाथ भट्ट
रंग रंगीला राजस्थान अपने तीज पर्व और त्यौहारों के लिए देश दुनिया में विख्यात है। यहाँ मानसून की शुरुआत के साथ ही त्यौहार शुरू हों जाते है और वर्ष पर्यन्त विभिन्न त्यौहारों को मनाने के बाद रंगों के पर्व होली के बाद गणगौर का पर्व मनाने के बाद इन त्यौहारों का समापन होता है। इसलिए यह कहावत प्रचलित है कि-तीज त्योहारा बावड़ी,ले डूबी गणगौर यानि सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम लग जाता है। जयपुर की राजसी गणगौर उदयपुर की धींगा, बीकानेर की चांदमल आदि बहुत प्रसिद्ध गणगौर हैं।
राजस्थान का गणगौर पर्व
अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं समृद्ध इतिहास की वजह से ऐतिहासिक राजस्थान की बहुरंगी भूमि के कण-कण में देशी विदेशी पर्यटकों की खास रुचि रहती है। भारत ही नहीं, विश्व के पर्यटन मानचित्र पर महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले राजस्थान में आयोजित होने वाले मेले, उत्सव, पर्व और त्यौहार इसे और विशिष्ट रूप एवं स्थान प्रदान करते हैं।
जब तक कि हवाओं पर बसंत ऋतु का मौसम राज कर रहा हो तब राजस्थान में बसंत ऋतु और रंगोत्सव होली का रंग लगातार छाया हुआ रहता है और उसके बाद बसंत के आगमन की खुशी में उदयपुर में गणगौर पर्व पर तीन दिन का मेवाड़ उत्सव तथा जयपुर में देवी पार्वती को समर्पित गणगौर-उत्सव की धूम व्याप्त हों जाती है।
होली के दूसरे दिन से ही गणगौर का त्यौहारों आरंभ हो जाता है जो कि पूरे 18 दिनों तक लगातार चलता हैं । बड़े सवेरे ही गीत गाती-बजाती स्त्रियां होली की राख अपने घर ले जाती है और उसे मिट्टी में गलाकर उससे सोलह पिंडियां बनाती है। दीवार पर सोलह बिंदियां कुंकुम की, सोलह बिंदिया मेहंदी की और सोलह बिंदिया काजल की प्रतिदिन लगाती हैं। कुंकुम, मेहंदी और काजल तीनों ही श्रृंगार की वस्तुएं हैं, सुहाग का प्रतीक है ! शंकर को पूजती कुंआरी कन्याएं प्रार्थना करती हैंकि उन्हें मनचाहे वर की प्राप्ति होवें। खूबसूरत मौसम भी उनकी इस कामना को अपना मौन समर्थन देता जान पड़ता है।
गणगौर के त्यौहार को उमंग, उत्साह और जोश से मनाया जाता है। यह उत्सव मस्ती का पर्व है। इसमें कन्याएँ और विवाहित स्त्रियाँ मिट्टी के ईशर और गौर बनाती है। और उनको सुन्दर पोशाक पहनाती है और उनका शृंगार करती हैं।
गणगौर के दिन कुँआरी कन्याएँ एक खेल भी खेलती है जिसमें एक लड़की दूल्हा और दूसरी दूल्हन बनती हैं। जिन्हें वे ईशर और गौर कहते हैं और उनके साथ सखियाँ गीत गाती हुई उन दोनों को लेकर अपने घर से निकलती है और सब मिलकर एक बगीचे पर जाती है वहाँ पीपल के पेड़ के जो इसर और गौर बने होते है वो दोनों फेरे लेते हैं। जब फेरे पूरे हो जाते है तब ये सब नाचती और गाती है। उसके बाद ये घर जाकर उनका पूजन करती हैं, और भोग लगाती हैं और शाम को उन्हें पानी पिलाती हैं। अगले दिन वे उन मिट्टी के इसर और गौर को ले जाकर किसी भी नदी में विसर्जन कर देती हैं।
जयपुर में गणगौर की सवारी
जयपुर में गणगौर महिलाओं का प्रमुख उत्सव है। कुंवारी लड़कियां मनपसंद वर की कामना करती हैं तो विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। अलग-अलग समूहों में महिलाओं द्वारा लोकगीत गाते हुए फूल तोड़ने तथा कुओं से पानी भरने का दृश्य लोगों की निगाहें ठहरा देता है। लोक संगीत की धुनें पारंपरिक लोक नृत्य पर हावी होती हैं। मां पार्वती की स्तुति का सिलसिला होली ही शुरू होकर दो सप्ताह चलता है ।
अंतिम दिन शिव गौरी की प्रतिमाओं के साथ जयपुर के सिटी पैलेस से सुसज्जित हाथियों, घोड़ों का जुलूस और गणगौर की सवारी निकलती है जोकि छोटी चौपड़ और चौगान स्टेडियम तक सभी के आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग के सौजन्य से हर वर्ष मनाए जाने वाले इस गणगौर उत्सव में अनेक देशी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं। राज्य सरकार की ओर से इस दिन आधे दिन का अवकाश भी रहता है।
राजस्थान के अन्य स्थानों में भी गणगौर का पर्व बड़े धूमधाम, उमंग, उत्साह एवं जोश के साथ मनाया जाता है।
नाव पर गणगौर
झीलों की नगरी उदयपुर का गणगौर उत्सव अपने आप में अनूठा और बेजोड़ है क्योंकि पूरे देश में एक मात्र यहाँ नावों पर गणगौर की आकर्षक सवारी निकलती है । उदयपुर की ऐतिहासिक पिछौला झील में सजी धजी नौकाओं का जुलूस सैलानियों के आकर्षण का केंद्र है। विशेष कर उदयपुर राजघराने के समय की ऐतिहासिक जग प्रसिद्ध गणगौर नाव प्रमुख आकर्षण का केंद्र रहती है। यहाँ की महिलाएं पारंपरिक परिधानों में सज धज कर शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए पिछौला झील के गणगौर घाट पर अपने सिर पर देवी पार्वती की मूर्तियों को लेकर आती हैं और झील के तट पर श्रद्धा पूर्वक उनकी पूजा-अर्चना करती हैं।
इस तीन दिवसीय सालाना मेवाड़ उत्सव में देशी-विदेशी सैलानी बड़ी संख्या में पहुंते हैं। समारोह के अंतिम दिन उदयपुर के निकट ग्रामीण अंचल गोगुन्दा में गणगौर का एक बड़ा मेला भी लगता है। इस वर्ष उदयपुर में मेवाड़ उत्सव पाँच से सात अप्रेल और जयपुर में सौभाग्यवती तीज चार से पाँच अप्रेल तक गणगौर उत्सव आयोजित किया जा रहा है।
राजघरानों में रानियां और राजकुमारियां भी प्रतिदिन गवर की पूजा करती थी। पूजन के स्थान पर दीवार पर ईसर और गवरी के भव्य चित्र अंकित कर दिए जाते हैं। ईसर के सामने गवरी हाथ जोड़े बैठी रहती है। ईसरजी काली दाढ़ी और राजसी पोशाक में तेजस्वी पुरुष के रूप में अंकित किए जाते हैं। मिट्टी की पिंडियों की पूजा कर दीवार पर गवरी के चित्र के नीचे सोली कुंकुम और काजल की बिंदिया लगाकर हरी दूब से पूजती हैं। साथ ही इच्छा प्राप्ति के गीत गाती हैं। एक बुजुर्ग औरत फिर पांच कहानी सुनाती हैं। ये होती है शंकर-पार्वती के प्रेम की, दांपत्य जीवन की मधुर झलकियों की कथाए। शंकर और पार्वती को आदर्श दंपति माना गया है। दोनों के बीच के अटूट प्रेम के संबंध में एक कथा भी है जो गणगौर के अवसर पर सुनी जाती है।
गणगौर पर्व पर स्त्रियां गहने-कपड़ों से सजी-धजी रहती हैं। उनकी आपसी चुहलबाजी बहुत सरस-सुंदर और मनभावन होती हैं। साथ ही शिक्षाप्रद छोटी-छोटी कहानियां, चुटकुले नाचना और गाना तो इस त्योहार का मुख्य अंग है ही। घरों के आंगन में सालेड़ा आदि नृत्य की धूम रहती है।
परदेश गए हुए इस त्यौहार पर घर लौट आते है, जो नहीं आते हैं उनकी बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा की जाती है। आशा रहती है कि गणगौर की रात वे जरूर आएंगे। झुंझलाहट, आह्लाद और आशा भरी प्रतीक्षा की मीठी पीड़ा व्यक्त करने का साधन नारी के पास केवल उनके गीत ही तो हैं।
ये गीत उनकी मानसिक दशा के बोलते चित्र हैं –
गोरडयां गणगौरयां त्यौहार आ गयो पूज रही गणगौर
सुणण्यां सुगण मना सुहाग साथै सोला दिन गणगौर
हरी-हरी दूबा हाथां में पूज रही गणगौर
फूल पांखडयां दूब-पाठा माली ल्यादैतौड़
यै तो पाठा नै चिटकाती बीरा बेल बंधावै ओर गोरडयां..!
चैत्र कृष्ण तीज पर गणगौर की प्रतिमा एक चौकी पर रख दी जाती है। यह प्रतिमा लकड़ी की बनी होती है, उसे जेवर और वस्त्रा पहनाए जाते हैं। उस प्रतिमा की सवारी या शोभायात्रा निकाली जाती है। राजसमन्द के सुप्रसिद्ध तीर्थ नाथद्वारा में सात दिन तक लगातार सवारी निकलती है। सवारी में भाग लेने वाले व्यक्तियों की पोशाक भी उस रंग की होती है जिस रंग की गणगौर की पोशाक होती उपहै। सात दिन तक उलग-अलग रंग की पोशाक पहनी जाती हैं। आम जनता के वस्त्र गणगौर के अवसर पर निःशुल्क रंगें जाते हैं।
जोधपुर का लोटियों का मेला
जोधपुर में गणगौर पर लोटियों का मेला लगता है। कन्याएं कलश सिर पर रखकर घर से निकलती हैं। किसी मनोहर स्थान पर उन कलशों को रखकर इर्द-गिर्द घूमर लेती हैं। वस्त्र और आभूषणों से सजी-धजी, कलापूर्ण लोटियों की मीनार को सिर पर रखे, हजारों की संख्या में गाती हुई नारियों के स्वर से जोधपुर का पूरा बाजार गूंज उठता है।
गणगौर का माहात्म्य
गणगौर का त्योहार चैत्र शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएँ प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है।
किवंदती है कि इस दिन भगवान शिव ने पार्वती को तथा पार्वती ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती स्थानों पर भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। चैत्र मास की तीज को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है। दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है, यानि कि विसर्जित किया जाता है। विसर्जन का स्थान गाँव का कुआँ या तालाब होता है। कुछ स्त्रियाँ जो विवाहित होती हैं वो यदि इस व्रत की पालना करने से निवृति चाहती हैं वो इसका अजूणा करती है (उद्यापन करती हैं) जिसमें सोलह सुहागन स्त्रियों को समस्त सोलह शृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती हैं। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती जी को तथा पार्वती जी ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। सुहागिनें व्रत धारण से पहले रेणुका (मिट्टी) की गौरी की स्थापना करती है एवं उनका पूजन किया जाता है। इसके पश्चात गौरी जी की कथा कही जाती है। कथा के बाद गौरी जी पर चढ़ाए हुए सिन्दूर से स्त्रियाँ अपनी माँग भरती हैं। इसके पश्चात केवल एक बार भोजन करके व्रत का पारण किया जाता है। गणगौर का प्रसाद पुरुषों के लिए वर्जित है।
चैत्र नवरात्र के तीसरे दिन यानि कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (माँ पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गयी। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में जाती हैं, दूब व फूल चुन कर लाती है। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है।
आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर) के साथ अपनी ससुराल आते हैं। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के बर्तन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाती हैं। जहाँ पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहाँ विसर्जन किया जाता है वह स्थान ससुराल माना जाता है।
गणगौर राजस्थान का अत्यंत विशिष्ट त्योहार है। हालांकि यह देश के अन्य प्रदेशों और अप्रवासियों द्वारा विदेशों में भी धूमधाम से मनाया जाता हैं।