बिहार के बजट से चार गुना बड़े तेजस्वी के वायदे

Tejashwi's promises are four times bigger than Bihar's budget

संजय सक्सेना

बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान की तारीख नजदीक आ रही है। 6 और 11 नवंबर को मतदान होगा और 14 को नतीजे आ जाएंगे। इस बीच तमाम दलों के नेता वोटरों को लुभाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहते हैं। हर दल की तरफ से दावों और वायदों की खैरात बांटने की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं, लेकिन इसमें महागठबंधन में शामिल सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने सभी हदें पार कर दी हैं। राजद की बैसाखी के सहारे बिहार में अपनी जड़ें तलाश रही कांग्रेस भी राजद के साथ सुर में सुर मिला रही है। राजद नेता और महागठबंधन के सीएम फेस तेजस्वी यादव के चुनावी वादों की झड़ी ने बिहार में सियासी हलचल मचा दी है। उन्होंने हाल ही में जिन योजनाओं और रियायतों का वादा किया है, उनकी कुल अनुमानित लागत बिहार के मौजूदा वार्षिक बजट से लगभग चार गुना अधिक बताई जा रही है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह वादे आर्थिक व्यवहार्यता के दायरे में आते हैं या फिर यह केवल जनता को लुभाने की एक रणनीति है। विपक्षी दल और कई अर्थशास्त्री अब खुलकर कह रहे हैं कि यह खैरात बांटने की राजनीति बिहार को आर्थिक संकट की ओर ले जा सकती है।

तेजस्वी यादव ने अपने हालिया जनसभाओं और घोषणाओं में युवाओं को लाखों नौकरियों, छात्रों को मुफ्त लैपटॉप, किसानों की कर्जमाफी, हर गरीब को भत्ते जैसी कई मनलुभावन योजनाओं की घोषणा की है। उनकी पार्टी की तरफ से यह दावा किया जा रहा है कि यह सब न्याय का रोजगार और विकास का अधिकार के तहत आने वाली योजनाएं हैं, जो सत्ता में आने पर प्राथमिकता पर लागू की जाएंगी। परंतु यही दावे अब राजनीतिक विमर्श का केंद्र बन गए हैं। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि बिहार पहले से ही राजस्व संग्रहण में पिछड़ा हुआ राज्य है। राज्य की कुल आय मुख्यतः केंद्र सरकार से मिलने वाले अनुदानों और टैक्स शेयरिंग पर निर्भर करती है। पटना विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त अर्थशास्त्री प्रो. अजय नारायण सिंह का कहना है, तेजस्वी यादव के वादों की कुल लागत करीब चार लाख करोड़ रुपये से ऊपर बैठती है, जबकि बिहार का वार्षिक बजट मुश्किल से 2.60 लाख करोड़ रुपये का है। ऐसे में यदि उन्होंने जो कुछ कहा है, उसे लागू करना हो तो राज्य को या तो भारी-भरकम कर्ज लेना पड़ेगा या फिर विकास कार्यों पर खर्च कटौती करनी होगी।

विपक्षी नेताओं का रुख और भी आक्रामक है। भाजपा के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का कहना है कि तेजस्वी यादव यह मानकर चल रहे हैं कि बिहार की जनता केवल झूठे वादों पर वोट देगी। जिन योजनाओं की वह बात कर रहे हैं, वे राज्य की आर्थिक क्षमता से बाहर हैं। यह वादे नहीं, दिवास्वप्न हैं। वहीं जदयू प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा, जिस व्यक्ति ने 18 महीनों में एक भी वादा पूरा नहीं किया और अब फिर वही पुराने जुमले दोहरा रहे हैं, उससे जनता अब भ्रमित नहीं होगी। वादे तभी पूरे होते हैं जब नीयत और नीति दोनों साफ हो। तेजस्वी यादव और महागठबंधन की तरफ से भी सफाई दी जा रही है। राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी का कहना है कि तेजस्वी यादव ने युवाओं को रोजगार देने का जो संकल्प लिया है, वह बिहार की वास्तविक जरूरत है। नीतीश कुमार की सरकार ने जो कुछ नहीं किया, उसे अब पूरा करना तेजस्वी की जिम्मेदारी है। बजट का सवाल बाद में देखा जाएगा, लेकिन राजनीति जनभावना से चलती है, कागजी गणित से नहीं।

हालांकि, जानकारों का मानना है कि राजनीतिक घोषणाओं का यह तरीका बिहार में कोई नया नहीं है। हर चुनाव से पहले पार्टियां मुफ्त योजनाओं, नौकरियों और नकद सहायता का वादा करती हैं। लेकिन नए आंकड़ों और राज्य के आर्थिक ढांचे को देखते हुए, बिहार वर्तमान में ऐसी किसी आर्थिक अति का बोझ उठाने में सक्षम नहीं दिखता। बिहार की प्रति व्यक्ति आय अब भी राष्ट्रीय औसत से आधी है, और बेरोजगारी दर देश में शीर्ष पर बनी हुई है। दिलचस्प यह है कि तेजस्वी यादव का यह अभियान युवा वर्ग और गरीब तबके के बीच तेजी से लोकप्रिय होता दिख रहा है। सोशल मीडिया पर उनके वादे वायरल हैं और बड़ी संख्या में युवाओं ने इसे बदलाव का ब्लूप्रिंट कहा है। इस जनसमर्थन को देखकर भाजपा और जदयू दोनों ही सतर्क दिखाई दे रहे हैं। जबकि कांग्रेस और वाम दलों के सहयोग से महागठबंधन ने इस बार जनता को सीधा आर्थिक लाभ देने वाला एजेंडा अपनाया है। बिहार की अर्थव्यवस्था पर नजदीकी नजर रखने वाले पूर्व वित्त अधिकारी राजीव रंजन का कहना है कि राजनीतिक दृष्टि से ऐसे वादे शॉर्ट टर्म में प्रभावी हो सकते हैं, लेकिन आर्थिक दृष्टि से यह फिस्कल डिसिप्लिन को खत्म करने वाला कदम होगा। राज्य यदि मुफ्तखोरी के चक्कर में फंस गया, तो अगले पांच वर्षों में वित्तीय घाटा दोगुना हो सकता है। उन्होंने आगे कहा कि बिहार को दीर्घकालीन रणनीति चाहिए जैसे उद्योगों में निवेश, शिक्षा और कौशल विकास केवल खैरात पर आधारित चुनावी घोषणाएं नहीं।

दूसरी ओर, जनता के एक हिस्से में यह सोच तेजी से पनप रही है कि भाजपा और जदयू के लंबे शासन में अपेक्षित परिवर्तन नहीं आया, इसलिए तेजस्वी को मौका दिया जाना चाहिए। अररिया के एक किसान नेता रामसागर यादव कहते हैं, सरकारें तो पहले भी आईं, पर गरीब को कुछ नहीं मिला। अगर तेजस्वी कुछ वादा कर रहे हैं, तो उसे मौका देना चाहिए। अगर वह झूठे साबित हुए, तो अगली बार जनता जवाब दे देगी। यह प्रतिक्रिया बताती है कि बड़ी जनसंख्या अब भी वादों के गणित से ज्यादा भावनात्मक आशाओं में विश्वास रखती है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तेजस्वी यादव के वादों ने बिहार में न केवल आर्थिक विमर्श को जन्म दिया है, बल्कि यह चुनावी परिदृश्य को भी नई दिशा दे रहे हैं। जहां विरोधी इसे आर्थिक आत्मघात बता रहे हैं, वहीं समर्थक इसे जनता की आवाज कह रहे हैं। अब सवाल यह है कि क्या बिहार की जनता इस बार वादों से परे जाकर यथार्थवादी विकल्प चुनेगी या एक बार फिर वही भावनात्मक राजनीति हावी रहेगी? और यदि तेजस्वी यादव सचमुच सत्ता में आते हैं, तो क्या वह अपने वादों को वास्तविक धरातल पर उतार पाएंगे या यह केवल बिहार की चुनावी सियासत का एक और सपनों का पुल साबित होगा। इसका जवाब 14 नवंबर को मिल जाएगा, जब चुनाव के नतीजे सामने आएंगे।