पुलिस में ‘लिफाफा-प्रथा’ को उजागर करती है “दारोगा से DCP एल एन राव आत्मकथा”

“The autobiography of L N Rao, a sub-inspector to DCP” exposes the ‘envelope system’ in the police

संजीव चौहान

यह तो पूरा भारत जानता है कि पुलिस देश के किसी भी सूबे की क्यों न हो. खाकी वर्दी के इस महकमे में भ्रष्टाचार, अवैध उगाही यानी रिश्वतखोरी ‘चरम’ पर हमेशा मौजूद मिलती है. जब सब जानते हैं कि पुलिस महकमा ‘वसूली’ के लिए बदनाम है. तब सवाल यह पैदा होना लाजिमी है कि आखिर इस बदनाम कु-संस्कृति को कोई आखिर ‘कुचलता’ क्यों नहीं है? इसी सवाल का माकूल कहिए या फिर दो टूक खरा-खरा जवाब है “दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा”.
नाम से ही साफ जाहिर है कि किताब पुलिस महकमे में दरोगा से शुरू सफर को डीसीपी के पद पर पहुंच कर विराम देने वाले एल एन राव ने लिखा है. अगर इतने बड़े लोकतांत्रिक देश में बहुतों को एल एन राव का नाम नहीं भी पता होगा. तो सैकड़ों ऐसे लोगों की भी तादाद इसी भारत में मौजूद है जो एल एन राव को जानते भी होंगे. जो लोग नहीं जानते उनके लिए बताना जरूरी है कि, एल एन राव कर्मचारी चयन आयोग यानी एसएससी से पासआउट दिल्ली पुलिस के पहले बैच के थानेदार-सब-इंस्पेक्टरों में से एक हैं. 1970 के दशक के वही थानेदार और बीते कल के वही रिटायर्ड डीसीपी एल एन राव जिनका पूरा नाम है लक्ष्मी नारायण राव.
करीब 37 साल दिल्ली पुलिस की नौकरी में एल एन राव का अधिकांश वक्त स्पेशल सेल की नौकरी में ही बीता. ‘दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा’ के सह-लेखक हैं देश के जाने-माने वरिष्ठ खोजी पत्रकार संजीव चौहान. इसे इत्तिफाक ही कहेंगे कि 37 साल की पुलिस की नौकरी के बाद एल एन राव की अगर यह पहली किताब है, तो 37 साल के ही पत्रकारिता जीवन-काल में संजीव चौहान द्वारा भी लिखी गई उनकी यह पहली पुस्तक है. 224 पेज की इस पुस्तक में 24 अध्याय हैं. किताब का हर अध्याय पुलिस की नौकरी के बदनाम-अंधेरे कुंए, या कहिए बदनाम आड़ी-तिरछी संकरी गलियों की सच्चाई को करीब से दिखाने की ईमानदार कोशिश है. किताब लिखने का मूल उद्देश्य यह नहीं है कि इससे, पुलिस की छवि बिगाड़ी जाए या सुधारी जाए. किताब के हर पन्ने को बारीकी से पढ़ने पर साफ हो जाता है कि, “दारोगा से DCP एल एन राव आत्मकत्था” वास्तव में लेखक की निहायत निजी जिंदगी के अनुभवों का दस्तावेज है.
किताब में एक चैप्टर इस बात का द्योतक है कि इनसान की चाहत के मुताबिक परमात्मा कभी उसे कुछ नहीं देता है. परमात्मा इनसान को वही देता है जो इंसान के हित का होता है. एल एन राव के बचपन का वह किस्सा जब स्कूल जाते वक्त वे रास्ते में स्थित थाने के गेट पर खाकी वर्दी में खड़े पुलिस के सिपाही को देख कर घबड़ा और डर जाते थे. इसलिए उन्होंने थाने के सामने से स्कूल जाने-आने का वह रास्ता ही हमेशा के लिए छोड़ दिया.
किताब के लेखक दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के पूर्व डीसीपी एल एन राव इसे विधि का विधान ही मानते हैं कि 1970 के दशक में, एल एन राव को उसी पुलिस विभाग की नौकरी करने को मिली, जिस पुलिस के सिपाही और थाने को देखकर उनकी बचपन में घिग्घी बंध जाया करती थी. न केवल पुलिस में नौकरी करने को मिली अपितु कालांतर में वे देश के नामी एनकाउंटर स्पेशलिस्ट भी बने. जिन्होंने 1994-1995 में यूपी के 7 लाख के इनामी मोस्ट वॉन्टेड क्रिमिनल बृजमोहन त्यागी और दिल्ली के मोस्ट वॉन्टेड अनिल मल्होत्रा के साथ, दिन-दहाड़े हुई खूनी मुठभेड़ में अपने बदन में कई गोलियां भी खाईं. दिल्ली के राजा गार्डन चौराहे पर हुए उस एनकाउंटर को मौजूद जनता (तमाशबीन चश्मदीद) किसी मुंबइया फिल्म की शूटिंग समझ रही थी.
बैंक की ज्यादा वेतन की नौकरी छोड़कर दिल्ली पुलिस में थानेदार की कम वेतन की नौकरी ज्वाइन करने वाले एल एन राव अपनी आत्मकथा में और भी कई अंदर की बातों को बेबाकी से बयान करते हैं. मसलन, नई-नई थानेदारी में उन्हें कैसे होटल-गेस्ट मालिक द्वारा उनके बिना मांगे हुए ही मंथली (हर महीने की चौथ-वसूली) का “लिफाफा” पकड़ाया गया था. तब तक पुलिस में फैली ‘लिफाफा-कुरीति’ से पूरी तरह अनजान एल एन राव होटल-गेस्ट हाउस मालिक के हाथ में मौजूद लिफाफा देखकर पूछने लगे कि, यह किस बात का लिफाफा है क्या है इसमें? सवाल के जवाब में मालिक बोला, “साहब हमारे इलाके में जो भी डिवीजन अफसर थानेदार आता है, उसे हम खुश रखने के लिए उसके बिना मांगे ही हर महीने यह लिफाफा देते हैं.”
उस “लिफाफा कांड” का भी ‘आत्मकथा’ में विस्तृत रुप में जिक्र किया गया है. जिसमें डीसीपी एल एन राव आगे बताते हैं कि, “दरअसल वह लिफाफा इलाके के पुलिस डिवीजन अफसर को इसलिए बिना मांगे ही दिया जाता था ताकि, पुलिस वाले इलाके के होटल-गेस्ट हाउस में होने वाले किसी भी संदिग्ध-गैर-कानूनी या बेजा काले-धंधे पर नजर उठाकर देखने की हिमाकत न कर सकें. एल एन राव को परोसे जा रहे उस पहले लिफाफे में 500 रुपए थे. बकौल एल एन राव, “जब मैंने वह लिफाफा लेने से इनकार कर दिया. तो इलाका गेस्ट हाउस मालिकों को लगा कि शायद 500 महीना एक गेस्ट हाउस से मिलने वाली वह नजराने की रकम मुझे (तब के नए नए दारोगा बने) कम लग रही होगी. इसलिए मैंने नहीं ली. तो उन सबने मिलकर हर गेस्ट हाउस के लिफाफे में रकम दोगुनी यानी 1000 रुपए प्रति लिफाफा कर दी. चूंकि मेरा तो कम या ज्यादा रकम से कोई मतलब ही नहीं था. सो मैने वह लिफाफा नहीं पकड़ा.
हां, एक नया नया थानेदार होने के नाते इतना मेरा जरूर माथा ठनक गया कि, इन गेस्ट हाउस में कुछ न कुछ गड़बड़ काम तो होता है. मैंने अपने मुखबिर जब उन गेस्ट हाउस वाले इलाके में छोड़े तो, एक दिन पता चला कि उस जमाने का देश का सबसे बड़ा गोल्ड स्मगलर उन्हीं में से एक गेस्ट हाउस में आकर रुकता है. बाद में मैने उस गोल्ड तस्कर को जब पकड़ा तो करीब 40 किलोग्राम वजन के सोने के बिस्कुट उससे जब्त किए. वह सोना दुबई से तस्करी करके दिल्ली लाया गया था. तस्कर ने कहा भी कि मैं और मेरे साथ मौजूद बाकी पुलिस टीम 40 किलोग्राम सोना लेकर, उसे छोड़ दे. मगर हमने वह तस्कर और उससे 40 किलोग्राम सोना छोड़ने के लिए नहीं, सोना जब्त करके तस्कर को गिरफ्तार करने के लिए पकड़ा था.”
“दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा” का यूं तो हर अध्याय की पुलिस के अंदर की कहानियों की ‘पोल-पट्टी’ खोलता है. यहां लेकिन एक उस चैप्टर का जिक्र करना जरूरी है जिसमें एल एन राव लिखते हैं कि, “पुलिस विभाग में मुखबर तंत्र की अहम भूमिका होती है. पुलिस मानती भी है कि मुखबिर उसकी रीढ़ की हड्डी हैं. बिना मुखबर-मुखबरी के पुलिस बेकार है. एक बार मेरे मुखबर को सरोजनी नगर थाने के उस वक्त के एसएचओ ने मेरे गुडवर्क से चिढ़ ड्रग्स के फर्जी मुकदमे में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. ऐसे में पहले तो मैंने पूरा वाकया जिला डीसीपी को बताया. जिला डीसीपी भी मगर मामले को दबा कर बैठ गए. तब मैं अपने मुखबर को उस फर्जी मुकदमे से बचाने के लिए खुद ही दिल्ली की अदालत में दिल्ली पुलिस के खिलाफ ही एप्लीकेशन लेकर पहुंच गया. जब जज ने देखा कि दिल्ली पुलिस का अफसर ही अपनी पुलिस के खिलाफ खड़ा है. तो जज भी हैरान रह गए. बाद में मेरे मुखबर पर लगाया गया वह मुकदमा फर्जी निकला और उसे कोर्ट से बरी भी किया गया.”
किताब में ऐसा नहीं है कि लेखक ने अपनी बड़ाई और शेखी ही बघारी है. एक अध्याय में दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के रिटायर्ड डीसीपी एल एन राव लिखते हैं कि, “कैसे उन्हें एक डीसीपी ने स्पेशल सेल में रहते हुए एक दिन मीटिंग से ही गेट-आउट कर दिया था. यह कहते हुए कि मैं स्पेशल सेल में काम करने की काबिलियत नहीं रखता हूं. कुछ समय बाद वही डीसीपी दिल्ली पुलिस महकमे में मेरे मुखबर नेटवर्क का लोहा मानकर, मेरी तारीफ करते नहीं थक रहे थे. दिल्ली पुलिस के एक ऐसे भी डीसीपी थे जो मेरे पीछे हाथ धोकर सिर्फ इसलिए पड़ गए कि जब उनकी पत्नी सरोजनी नगर मार्केट में खरीददारी करने पहुंची. तो उस खरीददारी का बिल मैंने अपनी जेब से नहीं भरा. वह बिल ले जाकर मैंने जब डीसीपी को थमा दिया, तब वह डीसीपी हाथ धोकर मेरा उत्पीड़न करने में जुट गए.”
जिस दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल में नौकरी करने की लालसा आज भी हर पुलिसकर्मी-अफसर की होती है. उसी दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल में अंदरखाने की उठा-पटक, घटिया राजनीति से एल एन राव इस कदर खफा कहिए या ऊब चुके थे कि, उन्होंने स्पेशल सेल में न रहने की कसम खा ली. जब दिल्ली पुलिस मुख्यालय ने उन्हें स्पेशल सेल से ट्रांसफर नहीं किया तो कुछ वक्त के लिए एल एन राव विदेश (कोसोवो) में पुलिस ट्रेनिंग पर चले गए. आत्मकथा में यूं तो लेखक ने अपनी हर अच्छाई-बुराई खोलने की कोशिश की है. इसी क्रम में “दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा” में लेखक के हवाले से सह-लेखक और वरिष्ठ खोजी पत्रकार संजीव चौहान लिखते हैं कि, “कैसे स्पेशल सेल में डीसीपी एल एन राव का उस समय का एक समकक्ष सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी, जो अब इस दुनिया में नहीं है), अंडरवर्ल्ड डॉन के गुर्गों के साथ मिलकर ‘अवैध-उगाही-वसूली’ का अड्डा चलाता था. यह बात जब एल एन राव ने अपने उस वक्त के डीसीपी को तुरंत ही बताई तो उस आरोपी एसीपी के खिलाफ कोई एक्शन लेने की बात तो दूर की कौड़ी हो गई. दब्बू किस्म के उस डीसीपी (पुलिस उपायुक्त) ने कड़वी और मामला खुलने पर दिल्ली पुलिस को बदनाम कर डालने की पूरी-पूरी संभावना वाले उस कांड में, उस एसीपी की शर्मनाक हरकत को जान-बूझकर दुम दबाकर दबाने में ही मदद की. बाद में उस बेहद शर्मनाक कांड की लिखित शिकायत भी एल एन राव ने ‘ऊपर’ तक की. मगर परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा.
आत्मकथा के एक चैप्टर में दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के डीसीपी एल एन राव लिखते हैं, “एक बार मैंने दिल्ली पुलिस आयुक्त के विशेष निर्देश पर देश के सबसे बड़े कॉलगर्ल सरगना कंवलजीत वालिया को गिरफ्तार कर लिया. बाद में उसी कंवलजीत वालिया के कहने पर उन्हीं पुलिस आयुक्त ने मेरा ट्राँसफर दक्षिण दिल्ली जिला स्पेशल स्टाफ से ऑपरेशन सेल (स्पेशल ब्रांच) कर दिया. भला हो तत्कालीन डीसीपी पी एस बरार का जिन्होंने उस वक्त के पुलिस आयुक्त वेद मारवाह से कहा कि, “राव का मुखबर-नेटवर्क जबरदस्त है. लिहाजा हम उसे अपने जिला स्पेशल स्टाफ से ट्रांसफर पर कहीं और नहीं भेजेंगे.” वरना एक कॉलगर्ल सरगना मेरे ऊपर भारी तो पड़ ही गया था. यह भी दिल्ली पुलिस के ही अंदरखाने की मगर चौंकाने वाली कहानी है कि, जिस पुलिस कमिश्नर (वेद मारवाह) के आदेश पर जिस कॉलगर्ल सरगना (कंवलजीत वालिया) को मैंने गिरफ्तार किया, उसी कॉलगर्ल सरगना के कहने पर मेरा ट्रांसफर उन्हीं पुलिस कमिश्नर ने दक्षिणी दिल्ली जिला स्पेशल स्टाफ से ऑपरेशन सेल (स्पेशल ब्रांच) कर डाला.”