बाहरी दुनिया की चकाचौंध के बीच भीतरी संसार को सँभालना ही जीवन का सबसे बड़ा संतुलन
डॉ. प्रियंका सौरभ
आज का मनुष्य निरंतर दौड़ में है—लक्ष्य पाने की दौड़, दिखावे की दौड़, और दूसरों की अपेक्षाओं को पूरा करने की दौड़। इस भागदौड़ के बीच जो सबसे अधिक छूट गया है, वह है मनुष्य का अपना आंतरिक जगत। आधुनिक जीवनशैली ने हमें बाहरी दुनिया से इतना जोड़ दिया है कि हम स्वयं से मिलने का समय ही खो बैठे हैं। ऐसे समय में ‘एकांत’ कोई विलासिता नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। यही वह क्षण है जब जीवन हमें धीरे से कहता है—आंतरिक रूप से एकांत में रहिए, लक्ष्यहीन जीवन मत बिताइए, ध्यान कीजिए और अच्छी पुस्तकें पढ़िए।
जीवन की दिशा तभी स्पष्ट होती है जब मन के भीतर शांति हो। लक्ष्यहीन भटकाव केवल थकाता है, प्रेरित नहीं करता। आत्मिक यात्रा के लिए एकांत वह दीपक है जो मन की गहराइयों को रोशन करता है। ध्यान और अध्ययन उस गहराई को दिशा देने वाले दो मजबूत स्तंभ हैं। ध्यान व्यक्ति को स्थिरता देता है और अध्ययन उसे विस्तार प्रदान करता है। दोनों मिलकर जीवन में लक्ष्य, अनुशासन और सृजनात्मकता का संचार करते हैं।
यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य समाज से कट जाए। मनुष्य सामाजिक प्राणी है—लोगों में थोड़ा घुलना–मिलना जीवन का स्वाभाविक हिस्सा है। किन्तु वास्तविक समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम लोगों में इतने खो जाते हैं कि स्वयं से मिलने का अवसर ही न बचे। इसलिए प्रतिदिन एक–दो घंटे अपने लिए निकालना केवल मानसिक स्वास्थ्य नहीं, बल्कि जीवन प्रबंधन का सबसे बड़ा मंत्र है। यही समय हमें सजग बनाता है, थकान को धोता है, और भीतर की ऊर्जा को पुनः भरता है। अलग रहिए, पर अपने अंतर में स्थित रहिए—यही आदर्श संतुलन है।
एकांत का आनंद उठाना किसी पलायन का नाम नहीं है। यह स्वयं को पुनः निर्मित करने की प्रक्रिया है। यह वह शांति है जो किसी कोने में बैठकर मन को उसकी मौलिक लय में वापस ले आती है। यह वह स्पेस है जहाँ जीवन के अनुत्तरित प्रश्न स्वयं उत्तर बनने लगते हैं। विचार निर्मल होते हैं, भावनाएँ संयमित होती हैं, और लक्ष्य स्पष्ट होने लगते हैं। इतने सारे लाभों के बावजूद लोग एकांत से डरते हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं के साथ बैठने का अभ्यास ही नहीं किया। लेकिन सच यही है—जो व्यक्ति स्वयं के साथ सुखी है, वही दूसरों को भी सुख दे सकता है।
किन्तु एकांत का आनंद लेने का अर्थ यह नहीं कि समाज से विमुख हो जाएँ। मनुष्य का व्यक्तित्व पूर्ण तब होता है जब वह एकांत और मेल–मिलाप के बीच संतुलन बनाए रखे। जब आप दूसरों से मिलें तो पूरे प्रेम और मित्रता के साथ मिलें। आपकी उपस्थिति लोगों के मन में सकारात्मकता भर दे, यह एक साधना है; और इस साधना का आधार भी एकांत ही है। जो व्यक्ति भीतर से स्थिर होता है, वही दूसरों के लिए प्रेरणा बनता है। ऐसे व्यक्ति को देखकर लोग भूलते नहीं; वे याद रखते हैं कि वे एक ऐसी आत्मा से मिले थे जिसने उनके भीतर प्रसन्नता और प्रेम के बीज बोए।
आज के समय में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि लोगों के बीच रहते हुए भी लोग भीतर से अकेले हो गए हैं, और अकेले रहते हुए भी स्वयं से कटे हुए हैं। सोशल मीडिया की चमक, निरंतर सूचना के प्रवाह और बाहरी अपेक्षाओं का बोझ मन को ऐसा व्यस्त बनाए रहता है कि शांति का क्षण मिलना दुर्लभ हो जाता है। ऐसे माहौल में एकांत हमें उसी तरह बचाता है जैसे समुद्र में तैरते हुए किसी नाविक को तट बचाता है। जीवन की तेज़ हवाओं में यह हमारा एंकर बन जाता है।
एकांत जीवन को संतुलन देता है। ध्यान उसे गहराई देता है। अध्ययन उसे दिशा देता है। और प्रेम—वह जीवन को सार्थक बनाता है। जब यह चारों तत्व एक साथ मिलते हैं, तब जीवन केवल बाहरी उपलब्धियों का खेल नहीं रहता; वह अर्थपूर्ण यात्रा बन जाता है।
समाज को ऐसे ही व्यक्तियों की आवश्यकता है—जो भीतर से शांत हों और बाहर से करुणामय; जो अपनी अकेली सुबहों में आत्मा को मजबूत करते हों और अपनी भीड़ भरी दोपहरों में दुनिया को मुस्कान देते हों; जिनकी उपस्थिति लोगों को छोटा न करे बल्कि ऊँचा उठाए; जिनकी वाणी में विनम्रता हो, मन में करुणा हो और जीवन में दृढ़ता।
संदेश स्पष्ट है—अपने भीतर लौटिए। जीवन को दिशा दीजिए। कुछ देर अकेले बैठिए, पर जब दुनिया से मिलिए तो प्रेम और मित्रता के साथ मिलिए। ताकि लोग आपको इसलिए याद रखें कि आपने उनके हृदय में खुशी और आशा का एक छोटा सा दीप जला दिया था। यही एकांत का उद्देश्य है—पहले स्वयं को प्रकाशित करना और फिर उस प्रकाश से दुनिया को gently छू लेना।





