
अशोक भाटिया
एनडीए के मुख्य घटक दलों भाजपा और जदयू को बराबर संख्या में यानी 101-101 सीटें दी गई हैं। इसके अलावा, अन्य सहयोगी दलों को भी चुनाव लड़ने के लिए हिस्सेदारी दी गई है। लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 सीटें, राष्ट्रीय लोक मोर्चा (रालोमो) और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) को छ-छ सीटें दी गई हैं।एनडीए के महासचिव विनोद तावड़े ने इस सीट बंटवारे की जानकारी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व ट्विटर) पर साझा की। उन्होंने लिखा,“संगठित और समर्पित एनडीए परिवार ने आगामी बिहार विधानसभा चुनाव के लिए आपसी सहमति और सौहार्दपूर्ण माहौल में सीटों का वितरण पूर्ण किया। सभी सहयोगी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इस फैसले का खुशी-खुशी स्वागत किया है। सभी साथी कमर कस चुके हैं और बिहार में फिर से एनडीए सरकार बनाने के लिए संकल्पित हैं।”इस सीट बंटवारे में स्पष्ट रूप से यह संकेत मिलता है कि भाजपा और जदयू दोनों प्रमुख दल अपने क्षेत्रीय प्रभुत्व को बरकरार रखना चाहते हैं। 101-101 सीटों का विभाजन दोनों दलों के बीच संतुलन बनाए रखने की रणनीति है। इसके अलावा, छोटी पार्टियों को हिस्सेदारी देना भी गठबंधन की मजबूती और चुनावी संतुलन बनाए रखने का हिस्सा है।लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 सीटें दी गई हैं। यह संख्या इस बात का प्रतीक है कि गठबंधन में छोटे दलों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रीय लोक मोर्चा और हम को छह-छह सीटें दी गई हैं, जो चुनाव में उनके स्थानीय और क्षेत्रीय प्रभाव को ध्यान में रखते हुए तय की गई हैं। इस सीट बंटवारें में कोई खास बात नहीं है सिवाय इसके किभाजपा और जेडीयू को बराबर-बराबर सीटें मिल रही हैं। अब तक प्रतीकात्मक ही सही जेडीयू की सीटेंभाजपा से अधिक रहतीं रहीं हैं।
यही कारण है सोशल मीडिया पर आम जनता यह आंकलन कर रही है कि अब बिहार में जनता दल या नीतीश कुमार की बढ़े भाई की भूमिका का अंत आ गया है। लोगों का कहना है किभाजपा ने अपने हिसाब से एनडीए के लोगों को टिकट दे दिया है। जाहिर है कि बिहार विधानसभा चुनावों परिणामों के बाद जेडीयूभाजपा की पिछलग्गू पार्टी बनकर रह जाएगी। पर यह इतना आसान नहीं है। अगर नीतीश कुमार स्वस्थ रहते हैं तो उनकी कुर्सी को चैलेंज करने वाला न कोई एनडीए में है और न ही कोई महागठबंधन में है।जाहिर है कि विधानसभा चुनावों में अगर एनडीए को बहुमत मिलता है तो नीतीश कुमार की कुर्सी सुरक्षित कही जा सकती है।
बताया जाता है कि नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक- कुर्मी (4%), कोइरी (6%), और अन्य EBC (27%) -बिहार की सियासत में एन डी ए की रीढ़ है। 2020 में जे डी यू ने 43 सीटें जीतीं, लेकिन उनका वोट शेयर (15%) एन डी ए की कुल 37% वोट हिस्सेदारी का अहम हिस्सा था।भाजपा का अपना वोट (23%) अपर कास्ट और शहरी मध्यम वर्ग तक सीमित है। नीतीश कुमार की उम्र पर अगर ध्यान दें तो ये उनकी अंतिम राजनीतिक पारी हो सकती है।भाजपा जानती है कि जब तक नीतीश कुमार मजबूत हैं तब तक जेडीयू का अस्तित्व है। नीतीश कुमार अगर स्वास्थ्य कारणों से पार्टी के रोजमर्रा की राजनीति से दूर होते हैं तो पार्टी बिखर जाएगी। ऐसे में उनके कोर वोटर्स जैसे EBC और महादलित वोटर महागठबंधन (आर जे डी +कांग्रेस) या प्रशांत किशोर की जन सुराज की ओर खिसक सकते हैं। जाहिर है किभाजपा के लिए फिर बिहार को फतह करना हमेशा के लिए मुश्किल हो जाएगा। यही कारण है किभाजपा नीतीश कुमार का साथ कभी नहीं छोड़ेगी।
भाजपा का सहयोगी दलों के साथ रिश्तों में विश्वसनीयता का सवाल बिहार में नीतीश की स्थिति को और मजबूत करता है। यूपी में 2022 मेंभाजपा ने अपना दल और निषाद पार्टी को कम सीटें देकर उनके साथ तनाव पैदा किया। झारखंड में ए जे एस यू और JMM के साथ गठबंधन टूटने सेभाजपा को 2019 में नुकसान हुआ। बिहार में नीतीश के साथ ऐसा जोखिमभाजपा नहीं ले सकती।अगर चुनाव जीतने के बादभाजपा नीतीश को मुख्यमंत्री पद से हटाने की कोशिश करती है तो इसका संदेश यूपी और झारखंड जैसे राज्यों में सहयोगी दलों के साथ ईबीसी वोटों पर भी पड़ेगा।भाजपा को पहले से ही उसके सहयोगी दल शंका की दृष्टि से देखते रहे हैं। अगर नीतीश कुमार को सीएम नहीं बनाया जाता है तो यह संदेश जाएगा किभाजपा ने बिहार में धोखा किया है। नीतीश को मुख्यमंत्री बनाकरभाजपा सहयोगियों को संदेश देना चाहेगी कि वह ‘गठबंधन धर्म’ निभाती है। 2020 में जे डी यूकी 43 सीटों के बावजूद नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया गया, क्योंकिभाजपा को नीतीश की जरूरत थी। 2025 में भी यही रणनीति रहेगी।
नीतीश कुमार एन डी ए के लिए ‘संतुलन बिंदु’ हैं। बिहार की सियासत में जातिगत समीकरण और सामाजिक गठजोड़ अहम हैं। नीतीश का कुर्मी-EBC-महादलित वोट बैंक एन डी ए को वह संतुलन देता है, जोभाजपा अकेले नहीं हासिल कर सकती। 2020 में जे डी यूकी 43 सीटें थीं, लेकिन नीतीश की साख ने एन डी ए को 125 सीटें दिलाईं। अगर जे डी यूकी सीटें कम हुईं, तो भी नीतीश की साख और गठबंधन में उनकी भूमिका एन डी ए को बहुमत दिलाएगी। हम के जीतन राम मांझी ने कहा कि नीतीश के बिना एन डी ए का संतुलन बिगड़ेगा। नीतीश की कम सीटेंभाजपा को दबाव में ला सकती हैं, लेकिन उनकी जगह कोई और मुख्यमंत्री लाना एन डी ए को अस्थिर करेगा।
सवाल यह भी है कि बिहारभाजपा में कोई ऐसा चेहरा नहीं, जो नीतीश की जगह ले सके। सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा के पास न तो नीतीश जैसी व्यापक स्वीकार्यता है, न ही EBC-महादलित वोट खींचने की क्षमता।भाजपा का वोट बैंक (23%) अपर कास्ट (भूमिहार, राजपूत) और शहरी मध्यम वर्ग तक सीमित है। नीतीश की तरह कोईभाजपा नेता पूरे बिहार में स्वीकार्य नहीं है।कुछ लोग महाराष्ट्र का उदाहरण दे रहे हैं । कहा जा रहा है कि जिस तरह एकनाथ शिंदे को डिप्टी सीएम बना कर देवेंद्र फडणवीस को सीएम बना दिया गया ऐसा ही कुछ बिहार में हो सकता है। पर नीतीश कुमार न एकनाथ शिंदे हैं और न ही भाजपा के पास बिहार में कोई देवेंद्र फडणवीस है।
X पर एक यूजर ने एक पोल में पूछा, नीतीश के बादभाजपा का मुख्यमंत्री कौन? 60% ने कहा, कोई नहीं। अगरभाजपा नीतीश कुमार को हटाकर अपना मुख्यमंत्री लाती है, तो EBC और महिला वोटर (50%) छिटक सकते हैं। 2024 लोकसभा में एनडीए की 30/40 सीटें नीतीश की मदद से आईं। नीतीश की अनुपस्थिति में तेजस्वी यादव की ‘युवा’ इमेज और ‘नौकरी’ नारा एन डी ए को नुकसान पहुंचा सकता है।
नीतीश की ‘पलटीमार’ हिस्ट्रीभाजपा को डराती भी है। 2013 (भाजपा से अलग), 2015 (आर जे डी के साथ), 2017 (एन डी ए में वापस), 2022 (महागठबंधन के साथ)। 2024 में नीतीश फिर एन डी ए में लौटे, और कई बार बोल चुके हैं कि अब कोई पलटी नहीं। लेकिनभाजपा जानती है कि अगर नीतीश को मुख्यमंत्री पद न मिला, तो वह महागठबंधन के साथ जा सकते हैं। और महागठबंधन इसके लिए सहर्ष तैयार भी हो जाएगा।इसके पहले भी महागठबंधन ने नीतीश कुमार के पास कम विधायक होने के बावजूद उनको मुख्यमंत्री बनाया था। X पर एक यूजर लिखता है कि नीतीश की पलटी का डरभाजपा को नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखने पर मजबूर करता है। 2022 में नीतीश ने महागठबंधन जॉइन करभाजपा को झटका दिया था। इसके साथ ही अगर जे डी यूकी सीटें 20-30 तक सिमटीं, औरभाजपा ने नीतीश को मुख्यमंत्री न बनाया तो वह गठबंधन तोड़ भी सकते हैं।