
सोनम लववंशी
पानी के लिए तरसती आंखें, सूखते कंठ, और एक झूठ जो हर चुनावी मंच पर झाग़ की तरह फूटता है—‘हर घर नल से जल’। महाराष्ट्र के नासिक जिले का पेठ तालुका और उसका एक छोटा-सा गांव बोरीचिवारी, उस झूठ का ऐसा आईना है जिसमें सत्ता का चेहरा अब भी चमकता नहीं, बल्कि धुंधलाता हुआ नज़र आता है। यहाँ की महिलाएं आज भी जान हथेली पर रखकर कुएं में उतरती हैं, अपने और अपने परिवार के लिए कुछ बूंदें पानी की तलाश में। विकास के दावों की छाती पर चढ़कर जब लोकतंत्र की ये बेटियाँ रस्सियों के सहारे नीचे उतरती हैं, तब यह दृश्य ‘अमृतकाल’ नहीं, अपवित्र त्रासदी की गाथा गढ़ता है। वैसे ये तस्वीर सिर्फ़ नासिक के एक गांव की नहीं, सूखते कंठ की दर्द भरी दास्तां राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुकी है। महाराष्ट्र के नासिक से लेकर झारखंड के पलामू तक, जल संकट की त्रासदी एक ऐसी सच्चाई है, जो सरकार के ‘हर घर जल’ जैसे तमाम वादों और अभियानों की पोल खोलती है। जल जीवन मिशन के अंतर्गत 2024 तक सभी ग्रामीण घरों में नल से जल उपलब्ध कराने का दावा किया गया, लेकिन कैग और नीति आयोग की रिपोर्टें बताती हैं कि यह योजना आंकड़ों के मायाजाल से आगे नहीं बढ़ पाई।
नीति आयोग की ‘जल प्रबंधन सूचकांक’ 2018 की रिपोर्ट चेतावनी देती है कि 2030 तक देश के 21 शहरों का भूजल पूरी तरह समाप्त हो सकता है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में अब भी 15 करोड़ से ज्यादा लोग स्वच्छ पेयजल से वंचित हैं। विगत वर्षों में लातूर को ट्रेन से पानी भेजना पड़ा, बुंदेलखंड में महिलाएं निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन करती हैं, और झारखंड के गाँवों में लोग पेड़ों से रिसती बूंदों को जमा करके पीते हैं। ये घटनाएं 21वीं सदी की नहीं लगतीं, फिर भी ये हमारे आज की सच्चाई हैं। विश्वगुरु बनाने को लालायित देश की हक़ीक़त है, लेकिन रहनुमाओं को सिर्फ़ अपनी फ़िक्र है। तभी तो बोतलबंद पानी पीने वाले नेतागण ‘नमामि गंगे’, ‘अटल भूजल योजना’ और ‘जल क्रांति अभियान’ जैसे कार्यक्रम को शुरू कर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के अनुसार, ग्रामीण महिलाओं को प्रतिदिन 2-3 घंटे पानी लाने में गंवाने पड़ते हैं, जिससे शिक्षा और स्वास्थ्य प्रभावित होता हैं। जबकि यूनेस्को की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में जल संकट सामाजिक असमानता और जलवायु परिवर्तन के साथ मिलकर एक गहरी मानवीय आपदा का रूप ले चुका है, और यह अब चेतावनी नहीं, बल्कि वास्तविकता है।
इतना ही नहीं स्कूलों में लड़कियों की उपस्थिति जल की अनुपलब्धता के कारण भी प्रभावित होती है। यूनेस्को की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, जल संकट वाले क्षेत्रों में लड़कियों की ड्रॉप-आउट दर लगभग 23 प्रतिशत से अधिक होती है। दूसरी तरफ हमारी रहनुमाई व्यवस्था है, जो 2024 आकर बीत जाने के बाद भी ‘हर घर नल’ वाला सपना भूल गई है। पीएम मोदी ने लालकिले से घोषणा की थी कि जल जीवन मिशन के अंतर्गत देश के हर ग्रामीण घर को नल से शुद्ध पानी मिलेगा। सरकारी पोर्टल्स और पीआईबी की प्रेस रिलीज़ों में सफलता की झिलमिलाती कहानियाँ दर्ज हैं, करोड़ों कनेक्शन दिए जा चुके हैं, ग्राफ़ ऊपर की ओर जा रहे हैं और काग़ज़ों में भारत प्यासा नहीं है। लेकिन बोरीचिवारी में ज़मीन पर उतरते ही ये आँकड़े गले में अटक जाते हैं। महिलाओं के हाथों में मटके हैं, लेकिन उनमें पानी नहीं, शिकायतें भरी हैं। कुएं में उतरकर पानी निकालने की उनकी आदत आज़ादी के 75 साल बाद भी नहीं छूटी, क्योंकि ‘नल’ उनके घर की दीवारों पर सिर्फ़ एक मेटल का पाइप है जो सूखा और खामोश है। ऐसे में क्या यही है ‘अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस’ मनाने का औचित्य? क्या यही है यूनिसेफ और नीति आयोग की सिफारिशों पर खरे उतरने वाला भारत? यदि जल जीवन मिशन इतना सफल रहा है, तो फिर क्यों पेठ तालुका के बोरीचिवारी, भोर, त्र्यंबकेश्वर, अक्कलगांव जैसे गांवों की बच्चियां स्कूल के बजाय दिन भर पानी की लाइन में लगी रहती हैं? क्या उनके लिए शिक्षा का अधिकार अब भी सिर्फ किताबों में छपी इबारत है?
भारत के संविधान की धारा 21 ‘जीवन के अधिकार’ की बात करती है, जिसमें स्वच्छ जल की उपलब्धता एक बुनियादी मानवीय अधिकार माना गया है। लेकिन इस अधिकार को पाने के लिए इन महिलाओं को कुएं की गहराई में उतरना पड़ता है, बिना सुरक्षा के महज एक रस्सी के सहारे। क्या इसी को ‘सुशासन’ कहते हैं? महाराष्ट्र में ही 2023-24 के बजट में जल संसाधन परियोजनाओं के लिए 15,000 करोड़ रुपए से अधिक की राशि आवंटित की गई थी। जल जीवन मिशन के लिए केंद्र सरकार ने 3.6 लाख करोड़ का प्रावधान किया था। इन योजनाओं का लाभ किसे मिला? क्या ठेकेदारों को? क्या टेंडर लेने वाले निगमों को? या फिर अधिकारियों की ट्रैवल रिपोर्ट्स को, जिनमें ‘प्रोजेक्ट्स ऑन ट्रैक’ लिखा होता है? सरकारें आती हैं, नारे बदलते हैं, लेकिन प्यास नहीं बुझती। नासिक जैसे अर्ध-शहरी क्षेत्रों में भी जब ये स्थिति है, तो आदिवासी और घने जंगलों में बसे गांवों की दशा की कल्पना मात्र ही सिहरन पैदा कर देती है। पेठ का यह गांव न तो बाढ़ग्रस्त है, न भूकंप-प्रभावित, फिर भी यहाँ पीने का पानी नहीं। क्यों?
जल संकट कोई अचानक आई आपदा नहीं, यह तो लंबे समय से तैयार किया गया एक ‘सामाजिक अपराध’ है—संवेदनहीनता का परिणाम। ग्राउंड वाटर लेवल गिरता रहा, तालाब और जलाशयों पर मॉल खड़े होते रहे, जल संरचनाओं की मरम्मत कागजों तक सीमित रही, और जनता को आश्वासन के पानी से बहलाया जाता रहा। कभी सरकारी बाबू कहते हैं कि पाइपलाइन बिछाई जा रही है, तो कभी सरपंच कहते हैं कि बिजली नहीं है, पंप चालू नहीं हो सकता। लेकिन असली सवाल कोई नहीं उठाता कि आखिर इन योजनाओं की मॉनिटरिंग कौन कर रहा है? पेठ जैसी जगहों में आरटीआई के ज़रिए पूछे गए सवालों के जवाब अक्सर ‘रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं’ कहकर टाल दिए जाते हैं। जनसुनवाई की बैठकें नदारद हैं और जनता के हिस्से में सिर्फ एक ‘सुनो और भूल जाओ’ वाली व्यवस्था है।
यह तस्वीर केवल एक गांव की नहीं है, यह तस्वीर उस राष्ट्र की है जो अब भी अपनी 50 करोड़ ग्रामीण आबादी को स्वच्छ पानी की न्यूनतम गारंटी नहीं दे सका है। दुनिया भर में ‘जलवायु परिवर्तन’ की बड़ी-बड़ी कांफ्रेंस में भारत भागीदारी करता है, लेकिन अपने गांवों में पानी की कमी से आत्महत्या करते किसानों की सूची तक नहीं बनाता। क्या हमने कभी सोचा है कि जब एक बच्ची हर दिन 3-4 घंटे पानी लाने में खर्च करती है, तो उसकी शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है? जब एक माँ, जो प्रसव के बाद बमुश्किल ठीक हुई हो, कुएं में उतरती है, तो उसे जिंदगी की कितनी कीमत चुकानी पड़ती है? और जब पानी की एक बाल्टी के लिए झगड़े होते हैं, तो समाज के ताने-बाने पर कैसा असर होता है? सरकारों के पास ‘पानी पर राजनीति’ का अद्भुत हुनर है। कभी इसे मुफ्त देने का वादा, कभी टैक्स घटाने का एलान, और कभी नदी जोड़ो योजना जैसे ‘विकासशील स्वप्न’। लेकिन जब ज़मीनी हालात से इन्हें टकराया जाता है, तो हकीकत वही रहती है सूखे नल, टूटे बर्तन और कुएं में उतरती ज़िंदगियाँ।
क्या इन महिलाओं ने भारत माता की जय नहीं बोला? क्या इन्होंने भी वोट नहीं दिया था? क्या इनके आँसू भी राष्ट्रगीत के सुरों से कमज़ोर हैं? अगर नहीं, तो क्यों इनकी प्यास पर सिर्फ भाषण मिलता है, योजना नहीं? क्या लोकतंत्र सिर्फ चुनाव जीतने की मशीन है और जनता सिर्फ एक आँकड़ा? आज अगर बोरीचिवारी की कोई महिला संविधान की धारा 21 के तहत सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दे कि उसे पीने के पानी की गारंटी दी जाए, तो क्या हम उसे विजयी कहेंगे या ‘सरकारी तंत्र को बदनाम करने वाली’? दुख इस बात का है कि हम तकनीक की बात करते हैं, चंद्रयान की उपलब्धियों पर तालियाँ बजाते हैं, लेकिन धरती पर मौजूद कुएं के पानी तक पहुँचने के लिए हमारे पास कोई समाधान नहीं है। हम स्मार्ट सिटी बना रहे हैं, लेकिन बोरीचिवारी के लिए एक सिंपल पंप सेट भी नहीं लगा पाए और जब अगली बार प्रधानमंत्री कैमरे के सामने कहेंगे कि ‘जल जीवन मिशन एक सफलता है’, तो क्या बोरीचिवारी की कोई माँ अपना मटका दिखाकर पूछ सकेगी—‘मोदी जी, इसमें क्या भरूं?’ ऐसे में ये शब्द सिर्फ सरकार की विफलता पर कटाक्ष नहीं, बल्कि लोकतंत्र के असल मतलब की पुनर्परिभाषा है। पानी किसी का अहसान नहीं, यह हक़ है और जब हक़ नहीं मिलता, तो नागरिकता की गरिमा भी खो जाती है। बोरीचिवारी की महिलाएं नायक नहीं बनना चाहतीं, वे बस इंसान बनकर जीना चाहती हैं। वे पुरस्कार नहीं चाहतीं, उन्हें बस पानी चाहिए। इतना पानी, जितना किसी भी ‘विश्वगुरु’ देश के नागरिक को बिना जान गंवाए मिल सके, परंतु जब पानी भी एक ‘विकास कथा’ में बदल जाए, तो समझिए कि लोकतंत्र की आत्मा सूखने लगी है। शायद अब हमें कुएं में सिर्फ पानी नहीं, अपना जमीर भी तलाशना होगा।