भ्रष्टाचार के अंधेरे कुएं से निकालने की चुनौती

The challenge of getting out of the dark well of corruption

ललित गर्ग

अन्तर्राष्ट्रीय भ्रष्टाचार निरोध दिवस प्रतिवर्ष 9 दिसम्बर को पूरे विश्व में मनाया जाता है। 31 अक्टूबर 2003 को संयुक्त राष्ट्र ने एक भ्रष्टाचार-निरोधी समझौता पारित किया था और तभी से यह दिवस मनाया जाता है। पूरे विश्व में एक समृद्ध, ईमानदार, पारदर्शी, नैतिक एवं मूल्याधारित समाज को बनाए रखने के लिए भ्रष्टाचार को खत्म करना इस दिन का मुख्य उद्देश्य है। तेजी से पांव पसार रहा भ्रष्टाचार किसी एक समाज, प्रांत या देश की समस्या नहीं है। इसने हर व्यक्ति एवं व्यवस्था को दूषित किया है, इसे रोकने के लिये प्रतीक्षा नहीं प्रक्रिया आवश्यक है। सत्ता एवं स्वार्थ ने भ्रष्टाचारमुक्ति को पूर्णता देने में नैतिक कायरता दिखाई है। इसी कायरता का एक उदाहरण शुक्रवार को संसद में नोटों का बण्डल मिलना है, सांसदों के खरीद-फरोश्त के किस्से आम है, वर्ष 2008 में अविश्वास प्रस्ताव पर मनमोहन सिंह की सरकार को बचाने के लिये सांसदों को खरीदने की कोशिश का मामला भी काफी चर्चित रहा है। ऐसी ही घटनाओं की वजह से लोगों में विश्वास इस कदर उठ गया कि चौराहे पर खड़े आदमी को सही रास्ता दिखाने वाला भी झूठा-सा, भ्रष्ट एवं अनैतिक लगता है। आंखें उस चेहरे पर सच्चाई की साक्षी ढूंढ़ती हैं। भ्रष्टाचार एक गंभीर अपराध है जो सभी समाजों में नैतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास को कमजोर करता है।

भ्रष्टाचार दुनिया के सभी हिस्सों में व्याप्त है, यह राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक हो और साथ ही लोकतांत्रिक संस्थानों को भी कमजोर करता है, सरकारी अस्थिरता में योगदान देता है और आर्थिक विकास को भी धीमा करता है, तभी इस विकराल होती समस्या पर नियंत्रण पाने के लिये संयुक्त राष्ट्र ने भ्रष्टाचार निरोध दिवस को आयोजित करने का निश्चय किया। इस वर्ष इस दिवस की थीम है ‘‘भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं के साथ एकजुट होना: कल की ईमानदारी को आकार देना।’’ यह थीम भ्रष्टाचार विरोधी प्रयासों में युवाओं को शामिल करने पर केंद्रित है, जो युवाओं को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करने के लिए सशक्त बनाती है। पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता को बढ़ावा देकर हम सभी के लिए एक उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं।

भ्रष्टाचार निरोध दिवस मनाते हुए दुनिया के कतिपय राष्ट्रों ने ईमानदार शासन व्यवस्था देने का उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिनमें भारत में नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश में भ्रष्टाचार मुक्त कार्यसंस्कृति को जन्म दिया है, न खाऊंगा का प्रधानमंत्री का दावा अपनी जगह कायम है लेकिन न खाने दूंगा वाली हुंकार अभी अपना असर नहीं दिखा पा रही है। सरकार को भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये सख्ती के साथ-साथ व्यावहारिक कदम उठाने की अपेक्षा है। आजादी का अमृत महोत्सव मना चुके देश में भ्रष्ट कार्यसंस्कृति ने देश के विकास को अवरूद्ध किया। आजादी के बाद से अब तक देश में हुये भ्रष्टाचार और घोटालों का हिसाब जोड़ा जाए तो देश में विकास की गंगा बहायी जा सकती थी। दूषित राजनीतिक व्यवस्था, कमजोर विपक्ष और क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत ने पूरी व्यवस्था को भ्रष्टाचार के अंधेरे कुएं में धकेलने का काम किया। देखना यह है कि क्या वास्तव में हमारा देश भ्रष्टाचारमुक्त होगा? यह प्रश्न आज देश के हर नागरिक के दिमाग में बार-बार उठ रहा है कि किस प्रकार देश की रगों में बह रहे भ्रष्टाचार के दूषित रक्त से मुक्ति मिलेगी।

वर्तमान सरकार की नीति और नियत दोनों देश को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने की है, लेकिन उसका असर दिखना चाहिए। विभिन्न राजनीतिक दल जनता के सेवक बनने की बजाय स्वामी बन बैठे। मोदी ने इस सड़ी-गली और भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने का बीड़ा उठाया और उसके परिणाम भी देखने को मिले। प्रधानमंत्री का स्वयं को प्रधानसेवक कहना विपक्ष के लिये जुमलेबाजी का विषय हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र में लोक विश्वास, लोक सम्मान जब ऊर्जा से भर जाए तो लोकतंत्र की सच्ची संकल्पना आकार लेने लगती है। मोदी ने लोकतंत्र में लोक को स्वामी होने का एहसास बखूबी कराया है। लेकिन प्रश्न यह है कि यही लोक अब तक भ्रष्टाचार के खिलाफ जागृत क्यों नहीं हो रहा है? जन-जागृति के बिना भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचार की चरम पराकाष्ठा के बीच मोदी रूपी एक छोटी-सी किरण जगी है, जो सूर्य का प्रकाश भी देती है और चन्द्रमा की ठण्डक भी। और सबसे बड़ी बात, वह यह कहती है कि ‘अभी सभी कुछ समाप्त नहीं हुआ। अभी भी सब कुछ ठीक हो सकता है।’ भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े लोग एक दूसरे के कान में कह रहे हैं, इस देश ने भ्रष्टाचार की अनेक आंधियाँ अपने सीने पर झेली हैं, तू तूफान झेल लेना, पर भारत की ईमानदारी, नैतिकता एवं सदाचार के दीपक को बुझने मत देना।

भ्रष्टाचार और काले घन के खिलाफ जो माहौल बना निश्चित ही एक शुभ संकेत है देश को शुद्ध सांसें देेने का। क्योंकि हम गिरते गिरते इतने गिर गये कि भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण, नैतिकता, पारदर्शिता की कहीं कोई आवाज उठती भी थी तो ऐसा लगने लगता है कि यह विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुस रहा है। जिस नैतिकता, प्रामाणिकता और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही, सामाजिक व्यवस्था बनी रही, जीवन व्यवहार चलता रहा, वे आज लुप्त हो गये हैं। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था आज हमने उसे तार-तारकर खूंटी पर टांग दिया है। मानों वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब इतिहास की चीज हो गई। लेकिन देर आये दुरस्त आये कि भांति अब कुछ संभावनाएं मोदी ने जगाई है, इस जागृति से कुछ सबक भी मिले हैं और कुछ सबब भी है। इसका पहला सबब तो यही है कि भ्रष्टाचार की लडाई चोले से नहीं, आत्मा से ही लड़ी जा सकती है। दूसरा सबब यह है कि धर्म और राजनीति को एक करने की कोशिश इस मुहिम को भोंथरा कर सकती है। तीसरा सबब है कि कोई गांधी या कोई गांधी बन कर ही इस लड़ाई को वास्तविक मंजिल दे सकता है। एक सबब यह भी है कि कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों से भ्रष्टाचारमुक्ति की आशा करना, अंधेरे में सूई तलाशना है।

विभिन्न देशों में भ्रष्टाचार की सीमा को मापने का एक तरीका भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक है, जिसे ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा प्रतिवर्ष प्रकाशित किया जाता है, जो नीति निर्माताओं और संगठनों को भ्रष्टाचार रूपी समस्याओं को पहचानने और भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बेहतर रणनीति बनाने में मदद करता है। ग्लोबल करप्शन परसेप्शन इंडेक्स में भारत की स्थिति चिंताजनक रही है। 2023 में भारत 40 अंकों के साथ 180 देशों में 93वें स्थान पर था। यह स्कोर दर्शाता है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए भारत को अभी भी लंबा रास्ता तय करना है। भारत ने भ्रष्ट आचरण पर अंकुश लगाने और पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए कई भ्रष्टाचार विरोधी कानून और नीतियां लागू की हैं। इन ढांचों का उद्देश्य जवाबदेही को मजबूत करना और नैतिक शासन सुनिश्चित करना है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 यह भ्रष्टाचार को परिभाषित करता है और लोक सेवकों द्वारा किए गए अपराधों के लिए दंड निर्धारित करता है। इसे 2018 में संशोधित किया गया और रिश्वत देने वालों के लिए दंड को शामिल करने के लिए पीसीए के दायरे का विस्तार किया गया। भारतीय न्याय संहिता, 2023 इस अधिनियम ने भारतीय दंड संहिता, 1860 का स्थान लिया। इसने भ्रष्टाचार से संबंधित विभिन्न प्रावधानों का आधुनिकीकरण और सुधार किया तथा रिश्वतखोरी के लिए दंड का प्रावधान किया।

आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। लेकिन आजादी के बाद की सरकारों एवं राजनीतिक दलों के शीर्ष पर इसका अभाव रहा है। वहां मूल्य बने ही नहीं हैं, फलस्वरूप नीचे तक, साधारण से साधारण संस्थाएं, संगठनों और मंचों तक स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान छाया हुआ रहा है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर निजी हितों पर ठहरता गया है। यहां तक धर्म का क्षेत्र एवं तथाकथित चर्चित बाबाओं की आर्थिक समृद्धियों ने इस बात को पुष्ट किया है। क्योंकि वे खुद संन्यासी होने के बावजूद फकीर नहीं रह पाए। वह अरबपति बन गये, कारोबारी होे गये, कोरपोरेटर हो गये। इन बाबाओं के साथ जो विडम्बना है वह यह है कि वे यह सब करते हुए भी गांधी बनना चाहते हैं, गांधी दिखना चाहते हैं। पैसा और ताकत ही अगर देश में ज्वार पैदा कर पाते, तो आज तक कई अरबपति देश की सत्ता पर काबिज हो गये होते, कोई चाय बेचने पर प्रधानमंत्री नहीं बन पाता। यही लोकतंत्र की विशेषता एवं प्राण ऊर्जा है, जिस पर देश टिका है।